अल्पसंख्यक मंत्रालय ने आठ दिसंबर को यह बताते हुए “मौलाना आज़ाद नैशनल फैलोशिप” को बंद कर दिया की यह फैलोशिप कई स्कॉलरशिप को ओवरलैप करता है जबकि मंत्रालय की और से ऐसा कोई आँकड़ा पेश नहीं किया गया है जिससे यह मालूम हो सके की मौलाना आज़ाद नैशनल फैलोशिप किस स्कॉलरशिप के साथ ओवरलैप हो रहा है
आज़ादी के बाद से ही देखा गया कि माइनॉरिटी समाज में ख़ासकर मुसलमानों में शैक्षिक दर में काफ़ी गिरावट आयी है पर स्वतंत्रता के अर्धशतक साल से अधिक समय बीत जाने के बाद 2005 में तत्कालीन भारत सरकार ने सच्चर कमेटी का गठन किया जिसके बाद उस कमेटी ने एक रिपोर्ट जारी की. जिसमें पाया गया कि देश में मुसलमान सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्र में काफ़ी पिछड़े है इसकी कई वजह थी जिसमें बड़ी वजह लगातार बढ़ती हिंसा,असुरक्षा का भाव और ग़रीबी माना जा रहा था जिसके बाद कांग्रेस की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार ने अल्पसंख्यको के लिए कई योजनाएँ बनाई जिसमें “मौलाना आज़ाद नैशनल फैलोशिप” नाम से योजना बनी जिसका मक़सद उच्च शिक्षा में अल्पसंख्यक वर्ग यानी मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, और जैन समुदाय से आने वाले शोधार्थी को लाभ मिल सके।
केंद्रीय शिक्षा मंत्री के आँकड़ों के अनुसार भारत की साक्षरता दर 73.4 प्रतिशत है जबकि मुसलमानों की साक्षरता दर 57.3 प्रतिशत हैं। वही अखिल भारतीय सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार उच्च शिक्षा में मुसलमानों की भागीदारी एससी, एसटी, और ओबीसी से भी कम है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के आंकड़ों के अनुसार 2014-15 और 2021-22 के बीच योजना के तहत 6722 उम्मीदवारों का चयन किया गया था और इसी अवधि के दौरान 738.85 करोड़ की फैलोशिप वितरित की गई थी
मौलाना आज़ाद नैशनल उर्दू यूनिवर्सिटी” (MANUU) के सामाजिक विज्ञान विषय के पीएच.डी स्कॉलर “मोहम्मद फ़ैजान” का कहना है “यह फ़ेलोशिप मुसलमानों, सिखों, पारसियों, बौद्धों, जैन और ईसाइयों जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों को उच्च शिक्षा (एम.फिल और पीएचडी कोर्स) के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करता है. इसे 2009 में सच्चर समिति की सिफारिशों के उपरांत लाया गया था, जो देश में मुसलमानों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति को देखकर की गई थी हुकूमत ने माइनॉरिटी समाज को उच्च शिक्षा से दूर रखने के इरादे से मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप को बंद किया है। जहां तक इस योजना को लेकर अन्य फेलोशिप के साथ ओवरलैप की बात है इसके लिए सरकार इसकी पुष्टि करने वाला कोई भी डेटा उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं है. यह कदम और कुछ नहीं बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के अधिकारों पर एक सीधा हमला है।”
“हैदराबाद विश्वविद्यालय” के पीएच.डी शोधार्थी व एमएएनएफ लाभार्थी “शैख़ बावाज़ान” बताते है “इस फेलोशिप को एजेंडे के तहत बंद किया गया है ताकि माइनॉरिटी कम्युनिटी से आने वाले छात्रों को उच्च शिक्षा से रोका जाए यह पूरी तरह सोशल जस्टिस के ख़िलाफ़ है सबका साथ सबका विकास का नारा देनी वाली सरकार मुसलमानों को उच्च शिक्षा के भागीदार होने से रोकना चाहती है।
बीते 8 दिसंबर को अल्पसंख्यक मंत्रालय की और से घोषणा हुई की दिसंबर से मौलाना आज़ाद फैलोशिप को बन्द कर दी जाएगी। हुकूमत के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ देशभर के विश्वविद्यालयों में छात्रों और अलग अलग छात्र संगठनों का विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया है।
ऑल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन (AISA) का तर्क है कि जिन छात्रों के लिए ये फेलोशिप उच्च शिक्षा तक पहुंचने के लिए आवश्यक है, वे इसे बंद करने से गंभीर रूप से प्रभावित होंगे. यह कदम उन छात्रों की आकांक्षाओं के लिए आपदा की तरह है. केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा की गई घोषणा किसी सरकारी योजना को साधारण रूप से बंद करने की नहीं है, यह भाजपा सरकार द्वारा सामाजिक न्याय से मुंह मोड़ने जैसा है।
स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन ऑफ इंडिया (SIO) ने बयान जारी कर कहा: अल्पसंख्यकों की शिक्षा तक पहुंच पर लगातार हमला वर्तमान सरकार के संवेदनहीन रवैये को दर्शाता है, जिसकी ‘सबका साथ, सबका विकास’ की खोखली बयानबाजी दिन के उजाले में बेनकाब हो गई है। अल्पसंख्यकों की गरिमा पर इस हमले के खिलाफ कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों की निंदा और गोलबंदी की तत्काल आवश्यकता है।
कांग्रेस व अन्य पार्टियों के सांसदों ने इस मामले को संसद में उठाया है। जिनके जवाब में अल्पसंख्यक मंत्रालय के ज़िम्मेदार स्मृति ईरानी का कहना है की यह योजना इसलिए बंद की जा रही है क्योंकि इस तरह की कई योजनाएँ मौजूद है जैसे ओबीसी के लिए छात्रवृत्तियाँ। शायद ईरानी यह भूल रही है की कोई भी विद्यार्थी एक समय में एक से अधिक स्कॉलरशिप का लाभ नहीं ले सकता है।
मौलाना आज़ाद उर्दू यूनिवर्सिटी के रिसर्च स्कॉलर “मुब्बशीर जमाल” ने अल्पसंख्यक मंत्रालय के ओवरलैप वाले बयान पर बताया की ऐसा कोई भी रिसर्च स्कॉलर नहीं है जो एक समय पर दो फैलोशिप का लाभ ले रहा हो. यूजीसी के गाइडलाइन के मुताबिक़ यह मुमकिन नहीं है। इसलिए मंत्रालय के तरफ़ से ये बयान पूर्णता ग़लत है।
सरकार एक तरफ़ कहती है हम “सबका साथ सबका विकास” सुनिश्चित करते है वही दूसरी तरफ़ अल्पसंख्यको के लिए चल रही योजनाओं को समाप्त करने में लगी है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए की शिक्षा ही किसी भी देश की उन्नति की कुंजी होती है ऐसे में देश को विश्व गुरु बनाने व विकासशील से विकसित देश बानने का सपना देखने वाली सरकार किसी एक समुदाय को दरकिनार करके कैसे पूरी कर सकता है। सन् 2011 के जनगणना के अनुसार देश में मुसलमानों की जनसंख्या 14.2 फ़ीसदी है ऐसे में इतनी बड़ी तादाद को किनारे कर देश आगे कैसे बढ़ सकता है?