पैग़म्बरे इस्लाम, रसूले ख़ुदा और दुनियाभर के मुसलमानों के मर्कज़े अकीदत हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने 630 ईस्वी में जब मक्का फतेह किया तो शहरे मक्का को बुतपरस्ती से पाक करवाना उनके सबसे पहले और खास आदेशों में से एक था। काबा यानि मक्का की सबसे अहम इमारत में अरबी, सीरियन और ग्रीक देवी देवताओं समेत 360 के आसपास बुत हुआ करते थे। जब हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आदेशानुसार इन बुतों को तोड़ा जा रहा था तो आपने एक बुत को उठाया और उसे एक कपड़े में लपेटकर अपने पास रख लिया। यह बुत हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम (जिन्हें इंग्लिश में जीसस क्राइस्ट और हिन्दी में ईसा मसीह कहा जाता है) की वालिदा हज़रते मरियम का था जिनकी गोद में नन्हें ईसा अलैहिस्सलाम बैठे हुये थे।
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इस्लाम में कुल 124000 या 240000 नबियों की मान्यता है। लेकिन इनमें सिर्फ चार नबियों को रसूल कहा जाता है क्योंकि इन्हीं चार नबियों पर आसमानी किताबें नाज़िल हुई हैं। हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम (जिन्हें बाईबल में डेविड कहा गया है) पर ज़बूर शरीफ, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर तौरेत (ओल्ड टेस्टामेंट), हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम पर इंजील (न्यू टेस्टामेंट या बाइबिल) और हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ुरआने करीम नाज़िल हुई। इन 124000 या 240000 नबियों में से कुल 26 नबियों का ज़िक्र क़ुरआने पाक में आया है। सबसे ज़्यादा 136 बार हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का नाम क़ुरआन में मिलता है।
जबकि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम का ज़िक्र 25 बार और जिन पर क़ुरआन नाज़िल हुआ यानि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का नामे मुबारक 5 बार क़ुरआन में नज़र आता है। 16वें पारे की सूरह मरियम हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की पैदाइश के वक़्त के हालात और हज़रते मरियम के सामाजिक संघर्ष को बयान करती है। इस्लाम, ईसाईयत और यहूदियत तीनों धर्मों के सबसे पवित्र स्थलों में येरुशलम ही एक ऐसी जगह है जिसे तीनों धर्मों के मानने वाले लोग पाक और अहम मानते हैं।
मेरी जानकारी में दुनिया का ऐसा कोई भी धर्म नहीं है जो आलमे इंसानियत की भलाई की बात न करता हो। दुनिया का हर धर्म अच्छाई, सच्चाई, समानता, दया, दान जैसे मानवीय मूल्यों को अहमियत देता है। यह बात और है कि इन धर्मों के ज़्यादातर मानने वालों ने अपने अपने धर्म की बेसिक और कॉमन बातों को उतनी अहमियत नहीं दी जितनी उन बातों को दी जो उन्हें दूसरों से अलग साबित कर सकें। अब ईसा अलैहिस्सलाम के जन्मदिन यानि क्रिसमस के जश्न को ही ले लीजिये। हालांकि धर्म के मामले में अपने देश में किसी तरह की ज़बरदस्ती की मनाही है। इसलिये किसी भी धार्मिक त्योहार को मनाने या न मनाने के लिए हम सभी आज़ाद हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोग क्रिसमस के विरोध में ज़बरदस्ती की हद तक आगे बढ़ जाते हैं।
कोई इसे अपनी संस्कृति के लिए खतरा बताते हुए इसके विरोध में तुलसी पूजन दिवस मनाने पर ज़ोर देता है तो कोई merry christmas का बेवकूफी भरा ट्रांसलेशन करके इन दो शब्दों को बोलना ही कुफ्र बता देता है। यहाँ तक कि कुछ ईसाई भी 25 दिसम्बर को ईसा अलैहिस्सलाम की पैदाइश की सही तारीख़ नहीं मानते और इसके ज़श्न का विरोध करते हैं। जैसे कुछ मुसलमान हर साल ईद मिलादुन्नबी के मौके पर, अपने ही नबी से मोहब्बत करने वालों से, अपने मज़हब की हिफाज़त करने के लिए कुछ ज़्यादा ही जज़्बाती हो जाते हैं।
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दुनिया के हर मज़हब की बुनियाद मान्यताओं पर टिकी होती है और मान्यताओं में अंतर होना कोई बड़ी बात नहीं है। इसलिये विभिन्न धर्मों या एक ही धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों के मानने वालों के धार्मिक विश्वासों में अंतर होना स्वाभाविक ही है। बस ख़याल यह रखना चाहिए कि ये अन्तर किसी भी तरह की नफरत की वजह न बन पायें। याद रखिये किसी भी धर्म या संस्कृति के किसी भी त्योहार या ज़श्न की मुबारकबाद आपके ईमान-धर्म को कमज़ोर करने की वजह तब तक नहीं बन सकती जब तक कि वो त्योहार या ज़श्न इंसानियत को नुकसान न पहुंचाता हो। बल्कि त्योहार की मुबारकबाद और ज़श्न विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोगों को पास लाने का सबसे सशक्त माध्यम होते हैं।
इस क्रिसमस के मौके पर मेरी दुआ है कि अपने देश में जो भी बचा हुआ भाईचारा और आपसी विश्वास है वो बना रहे।