यूसुफ खान यानि दिलीप कुमार दुनिया के लिए क़ुदरत का एक नायाब तोहफा हैं। क़ुदरत ने उन्हें जो सलाहियते बख्शी है उनकी वजह से वह जिस किसी भी शोबे में होते अपने मैदान में सबसे ऊपर होते।
अगर वह डाक्टर बनते तो दुनिया के बेमिसाल डाक्टर होते, इंजीनियर बनते तो बेमिसाल इंजीनियर होते, अदीब होते तो बेमिसाल अदीब होते। दिलीप कुमार के सिलसिले में यह ख्यालात है मुमताज अदाकार फारूक शेख के।
उनका कहना है कि दिलीप कुमार ने जिस दिन से हिन्दुस्तानी फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा अपने उसूलों पर कायम रहे और आज भी कायम है। उनमें पैसे का लालच कभी नहीं रहा। दोस्तों के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं।
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हिन्दुस्तान ही नही पूरी दुनिया की कई कम्पनियों ने कोशिश की कि दिलीप कुमार उनकी कम्पनियों के लिए माडलिंग कर दे, लेकिन दिलीप कुमार समाजी मफाद के चंद इश्तेहारात के अलावा किसी भी कीमत पर कोई इश्तहार करने को तैयार नहीं हुए।
दिलीप कुमार सिर्फ अदाकार ही नहीं है मजहबी मामलात में भी उनकी गहरी दिलचस्पी रही। हर मजहब का वह एहतराम करते लेकिन कुरआन को पढ़ते वक्त उसे अच्छी तरह समझने की हर मुमकिन कोशिश करते थे।
जब वह कुरआन पढ़ते थे और मौलाना अब्दुल करीम पारिख हयात थे तो मुकद्दस कुरआन मजीद अच्छी तरह समझने के लिए वह मौलाना पारिख से कई-कई घंटे तक टेलीफोन के राब्ते में रहते थे।
वैसे तो दिलीप कुमार हर शोबे में आला दर्जे के जीनियस हैं लेकिन ज़बान का इस्तेमाल करने का उनका तरीका बाकी लोगों से हमेशा मुख्तलिफ रहा। मसलन कई लोग बात करते वक्त हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू के लफ्ज़ मिला कर बोलने की कोशिश करते हैं लेकिन दिलीप कुमार ने ऐसा कभी नहीं किया।
इंटरव्यू हो या कोई तकरीर उन्होंने हमेशा सिर्फ एक ज़बान में बात की, अगर उर्दू बोले तो ख़ालिस उर्दू, अगर अंग्रेजी बोले तो ख़ालिस अंग्रेजी।
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फिल्मों का भी मामला ऐसा ही था कि दिलीप कुमार ने महज दोस्ती और ताल्लुकात निभाने में कई ऐसी फिल्में कुबूल कर ली जिन फिल्मों की कहानियां अच्छी नहीं थी लेकिन दिलीप कुमार की अदाकारी की वजह से वह खूब चलीं।
आज दिलीप कुमार 98 साल के हो गये है। उनकी तबियत नासाज़ रहती है। उनको करीब से जानने वाले कहते हैं कि पानी पुड़ी दिलीप साहब की सबसे बड़ी कमजोरी है। उनकी कमजोरी तो कबाब भी रहे है, कई साल पहले संभल के एक मुशायरे की सदारत उन्होंने सिर्फ इसलिए कुबूल कर ली कि वह संभल जाकर वहां के मशहूर कबाब खाना चाहते थे।
संभल के कबाबी की दुकान पर गए तो उनके यहां जमीन पर बिछे टाट पर बैठ कर खाने का सिलसिला था तो दिलीप साहब ने आम आदमी की तरह जमीन पर बिछे टाट पर बैठकर उसके कबाब खाए और बहुत तारीफ की थी।
दिलीप कुमार की बेगम सायरा बानों जो खुद भी तकरीबन 69 साल की हो रही हैं लेकिन इस उम्र में वह दिलीप कुमार की अलालत की वजह से जिस खुलूस के साथ उनकी खिदमत करती है उसका मुकाबला कोई तजुर्बेकार नर्स भी नहीं कर सकती।
दिलीप कुमार के एक करीबी साथी आसिफ फारूकी भी हैं जो अक्सर जोगर्स पार्क में सायरा बानो के साथ दिलीप साहब को चहलकदमी कराते दिखते हैं। आसिफ का कहना है कि अगर शौहर की खिदमत करने के एवज में अल्लाह किसी खातून को जन्नत बख्शेगा तो हमें यकीन है कि सायरा बानो उन ख्वातीन की पहली सफ में शामिल होंगी।
सायरा बानो दिलीप कुमार को ‘‘साहेब’’ के नाम से बुलाती है और उनके साथ हमेशा साए की तरह रहती हैं। जिस बेलौस और खुश असलूबी से वह दिलीप कुमार की खिदमत करती है फिल्मी दुनिया में उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती है।
शहंशाहे जज़्बात दिलीप कुमार 98…साल की उम्र में भी अपने शायकीन के लिए वही दर्जा रखते हैं जो अब से पचास साठ बरस पहले रखते थे। वह मुकम्मल फनकार हैं और बतौर फनकार इतने लम्बे अर्से तक अपने शैदाइयों पर हुकूमत करते रहे है। इस सिलसिले में उनका मवाजना सिर्फ लता मंगेशकर से किया जा सकता है।
दिलीप साहब के असर व रसूख का यह आलम है कि आज भी अगर वह किसी जगह पहुंच जाते हैं तो अच्छी खासी बेताब भीड़ वहां जमा हो जाती है। इस बेपनाह मकबूलियत की बड़ी वजह तो जाहिर है फिल्मों में उनकी बेमिसाल अदाकारी है।
लेकिन इसके साथ ही उनकी अपनी शख्सियत की वजाहत और वकार है। जिसे उन्होंने हर सूरत में कायम रखा है और उसी ने उन्हें एक लीजेण्ड का दर्जा दे दिया है।
दिलीप साहब के बाद अदाकारों की कम से कम तीन नस्लें फिल्मी इंडस्ट्री की चकाचैंध में उभरी। मकबूलियत का रिकार्ड बनाया और फिर किनारे लग गईं। उनमें कई अब भी सेलेबे्रिटी का दर्जा रखती हैं। लेकिन दिलीप साहब के मतर्बे व मकाम तक कोई नहीं पहुंच सका।
दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ 1944 में रिलीज हुई थी। इसके बाद साठ की दहाई में आन, अंदाज, देवदास, अमर, नया दौर, कोहिनूर, पैगाम, आजाद जैसी उनकी फिल्मों अवाम में बेहद मकबूल हुईं। लेकिन आजाद, कोहिनूर और राम-श्याम जैसी फिल्मों से उन्होंने साबित किया कि मज़ाहिया अदाकारी में भी उनका कोई मुकाबला नहीं है। फिल्म मुगल-ए-आजम ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाया।
इन सब फिल्मों में उनकी लाजवाब अदाकारी के साथ डायलाग अदा करने का उनका मख़सूस अंदाज आज भी लोगों को याद है और ऐसे लोग अब भी मौजूद है जिन्होंने उनकी फिल्में एक दो बार नहीं बल्कि कई-कई बार देंखी। फिल्म देवदास में उनकी ज़बरदस्त अदाकारी में न सिर्फ शरदचंद के नावेल को क्लासिकी दर्जा अदा किया बल्कि खुद दिलीप कुमार भी ट्रेजडी किंग या शहंशाहे जज़्बात के लकब से जाने जाने लगे।
दिलीप साहब की शख्सियत का एक और वस्फ उनका कसीरूल मुताला होना भी अदब और शायरी से उनका फितरी लगाव शुरू से रहा है और जोश मलिहाबादी और फिराक़ गोरखपुरी समेत उर्दू के कई मशहूर व मारूफ़ शायरों से उनके करीबी रवाबित रहें है।
दिलीप साहब अदाकारी से अलग जब भी किसी महफिल में तकरीर करने खड़े होते तो ऐसा महसूस होता कि मालूमात और अल्फाज़ का एक दरिया बह रहा है। अंग्रेजी ज़बान में भी उनकी तक़रीरें लाजवाब होती थी। इससे अंदाजा होता है कि उन्हें ज़बान में बयान पर पूरी कुदरत हासिल है।
98…साल की मुतहर्रिक जिंदगी पूरी करने के लिए हम उन्हें दिली मुबारकबाद पेश करते है और सेहत के साथ उनकी लम्बी उम्र की दुआ करते हैं।
लेखक : आग़ा ख़ुर्शीद ख़ान