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बिरजू महाराज का जाना

Muslim Today by Muslim Today
जनवरी 19, 2022
in देश
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बिरजू महाराज का जाना
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जैसे संगीत की दुनिया में वज्रपात सा हो गया हो। कथक के पॉंव थम गए। घुँघरू टूट गए। सुर मौन हो गए।भाव शून्य हो गए। लय ठहर गयी। गति रुक गई।  बिरजू महराज के अचानक चले जाने से मानो संगीत की असाध्य वीणा ही टूट गई।

नृत्य और संगीत दोनो ही सदमें में है। कथक महराज जी का मज़हब था और भाव उनका ईमान। जयपुर, लखनऊ और बनारस, ये तीनों कथक नृत्य के त्रिकोण थे। बिरजू महराज के जाने से इस त्रिकोण का सेतु टूट गया।

कथक बिरजू महाराज की देह में आत्मा सरीखा बस चुका था।उन्होंने कथक को वैश्विक पहचान दिलाई। आँखों की भंगिमा, हाथों के भाव ,पैरों की गति और देहयष्टि के लोच से वो प्रतिपल रसमाधुर्य बिखेरते थे।

उनका ताल्लुक़ लखनऊ से था पर बनारस उनके दिल में बसता था। वे कहते थे बनारस में एक रस है और हम सबके भीतर एक बनारस बसता  है। बनारस में उनकी ससुराल थी और मेरे मुहल्ले में उनका समधियाना भी।वे पं साजन मिश्र के ससुर थे।इसलिए यदा कदा महाराज जी से मुलाक़ात हो जाती।

कथक नृत्य बिरजू महाराज को विरासत में मिला। उनके पूर्वज इलाहाबाद की हंडिया तहसील के रहने वाले थे। यहां सन् 1800 में कथक कलाकारों के 989 परिवार रहते थे। आज भी वहां कथकों का तालाब और सती चौरा है।बिरजू महाराज को तबला, पखावज, नाल, सितार आदि कई वाद्य यंत्रों पर महारत हासिल थी।उनके भीतर प्रतिभा का महासागर था। वो बहुत अच्छे गायक, कवि व चित्रकार भी थे।

मैने उनके पुरखों का जिक्र किस्से कहानियों में सुना था। बिरजू महराज के पूर्वजों से ही उस बैरगिया नाले की कहानी जुड़ी है जिसमें कहा गया था, ‘जब तबला बाजे धीन धीन तो एक एक पर तीन तीन।’ इस बैरागिया नाले की कहानी बेहद रोचक है।

यह बात उस समय की है जब यात्रा बहुत कठिन हुआ करती थी। लोग़ अक्सर पैदल या बैल गाड़ी से यात्रा करते थे। तब बैलगाड़ी भी वैभव का हिस्सा होती थी। आम लोग़ खाने पीने का सामान लेकर पैदल ही यात्रा करते थे। इलाहाबाद और बनारस दो ऐसी जगहें थीं, जहाँ तीर्थ यात्री बहुत संख्या में आते थे। बैरगिया नाला इलाहाबाद से कोई 35 किमी दूर वाराणसी की तरफ रामनाथपुर और सैदाबाद के बीच आज भी जी. टी. रोड पर मौजूद है।

इस नाले को पार किये बिना तब इलाहाबाद के लोग़ बनारस नहीं जा सकते थे और न ही बनारस के लोग़ इलाहाबाद आ सकते थे।यहीं पिण्डारी गिरोह सक्रिय थे जो आने जाने वालों को लूटते थे।आज की तरह तब भी लूटने वाले ज्यादातर वैरागियो के भेष में रहते थे।इसलिए इस नाले का नाम बैरगिया पड़ा।

यहीं से ये कहानी बिरजू महाराज के पुरखों से जुड़ जाती है। कथक सम्राट बिरजू महाराज के पूर्वज ईश्वरी प्रसाद यहीं हंडिया तहसील के किसकिला गांव के रहने वाले थे। उन्होने कत्थक पर नटवरी पुस्तक भी लिखी थी। उन्हें लखनऊ घराने के नर्तकों को पैदा करने का गौरव प्राप्त है। यही इलाक़ा कत्थक का केन्द्र था।

इसलिए कत्थक की डॉंस पार्टी यहॉं से आया ज़ाया करती थी। एक बार रात में कत्थक डांस पॉर्टी के 9 सदस्य यहॉं से गुजर रहे थे। पिण्डारी गिरोह ने उन्हें लूट के इरादे से पकड़ लिया और बंधक बनाकर नृत्य का मज़ा लेते रहे। अब मरता क्या न करता। सो उन्होंने बेमन से नाचना गाना जारी रखा, किन्तु लुटेरों के चंगुल से मुक्त कैसे हों, मन ही मन में इस बात की छटपटाहट और मंथन भी जारी रहा।

नाचते नाचते नर्तकों को आत्मग्लानि हुई। उन् के मन में विचार आया कि नव पथिक नचावे, तीन चोर? तब उनमें से एक ने संगीतात्मक  संकेत दिया कि ‘जब तबला बाजे धीन धीन, तब एक एक पर तीन तीन।’ फिर क्या था, सभी नौ नर्तकों ने मिलकर उन तीनों लुटेरों की पिटाई शुरू कर दी। जल्द ही वे लुटेरे क़ाबू में आ गए और सभी नर्तक मुक्त हुए।

बिरजू महाराज के पूर्वजों की ये अनोखी जीत साहित्य के संसार में भी गूंजती रही। साल 1911 में जब जार्ज पंचम भारत आए तो उनकी प्रशस्ति में लिखी गई कविता में भी इसी बैरगिया इतिहास की गूंज सुनाई दी। इस कविता को पढ़ते हुए आपकी आँखों के सामने उस समय घटी इस ऐतिहासिक घटना का पूरा का पूरा चित्र खिंच जाएगा।

बैरगिया नाला जुलुम जोर।

तहं साधु भेष में रहत चोर।

वैरगिया से कछु दूर जाय।

एक ठग बैठा धुनी रमाय।

कछु रहत दुष्ट नाले के पास।

कछु किए रहत नाले में वास।

सो साधु रूप हरिनाम लेत।

निज साथिन को संकेत देत।

जब जानत एहिकै पास दाम।

तब दामोदर को लेत नाम।

जब बोलत एक ठग वासुदेव।

तेहिं बांस मार सब छीन लेव।

लगि जात पथिक नाले की राह।

पहिलो ठग बैठेहिं डगर माह।

सबु देहु बटोरी धन थमाए।

नहिं तो होई बुरा हाल।

हम मालिक तुमसे कहे सांच।

है काम हमारो गान नाच।

नाचै गावै का कार बार।

तबला तम्बूरा धन हमार।

ठग बोले नाचौ गावौ गान।

हम खुशी होवै तब देहि जान।

चट नाच गान तहं होन लाग।

ठग भए मस्त सुन मधुर राग।

एक चतुर पथिक के मन भए सोच।

हम नवजन हैं ये तीन चोर।

वैरगिया नाला जुल्म जोर

नव पथिक नचावत तीन चोर।

अस सोचत मन उपजी गलानी।

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तब लागे गावै समय जानी।

जब तबला बाजे धीन धीन।

तब एक एक पर तीन-तीन।

दीनी सबकी ठगही भुलाई।

सुख सोवै अपने गांव जाई।

आज जार्ज पंचम सुराज

नहि ठग चोरन को रह्यो राज।

छंटि गए दुष्ट हटि गए चोर।

पटगा बैरगिया अजब शोर।

समय बदला और बदलते समय के साथ ही कथक का केन्द्र लखनऊ बना। अवध के आख़िरी नवाब वाज़िद अली शाह ने बिरजू महराज के पुरखों को  लखनऊ में बसा कर संगीत के मुस्तकबिल को आने वाली पीढ़ियों के लिए महफ़ूज़ किया। अब लखनऊ में पं ईश्वरी प्रसाद का घर अपने आप में संगीत का घराना बन चुका था।ईश्वरी प्रसाद के तीन बेटे थे।अड़गू, तड़गू और खडगू। अडगू के तीन बेटे प्रकाश, दयाल और हरिलाल हुए।

प्रकाश के बेटे दुर्गा प्रसाद, ठाकुर प्रसाद और मान जी हुए। दुर्गा प्रसाद के तीन बेटे बिंदादीन, कालका प्रसाद और भैरो प्रसाद हुए और फिर यहीं से शुरू हुई बिंदादीन कालका की गुईन रोड की ड्योढ़ी जो कथक का ब्रह्म केन्द्र बन गई।

कालका के बेटे थे अच्छन महराज, लच्छू महराज और शंभू महराज। अच्छन महराज के वारिस थे पं ब्रज मोहन मिश्र उर्फ ‘ बिरजू महराज’ जो नृत्य जगत में कथक के पर्याय बन गए। वह अपनी प्रतिभा के दम पर नृत्य संगीत के आसमान में ऐसे सूरज बनकर दमके जिससे अनगिनत सितारे रोशन होते रहे ।

बिरजू महाराज की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि उन्होंने कथक केन्द्र के ज़रिए कथक की एक नई पीढ़ी तैयार की।इस लिहाज़ से कथक के विघापीठ थे। कथक उत्‍तर भारत का प्रमुख नृत्‍य है जो कथा पर आधारित था।

संस्कृत में कथा कहने वाले को “कत्थक” कहा जाता है । कथन को ज्‍यादा प्रभावशाली बनाने के लिए इसमें स्‍वांग और मुद्राएं बाद में जोड़ी गईं। इस प्रकार वर्णनात्‍मक नृत्‍य के एक सरल रूप का विकास हुआ।

भक्ति आंदोलन ने इसे और भी समृद्ध किया। इस आंदोलन ने इस नृत्य के लयात्‍मक और संगीतात्‍मक रूपों के नव प्रसार में  सहयोग दिया। राधा-कृष्‍ण पर आधारित मीराबाई, सूरदास, नंददास और कृष्‍णदास के पदों से यह नृत्य की यह शैली बहुत प्रसिद्ध हुई। मुगलों के आने के साथ ही इस नृत्‍य को एक नया विस्तार मिला।

मंदिर के आंगन से लेकर महल के दरबार तक इसने अपनी जगह बनाई।हिन्‍दू और मुस्लिम, दोनों दरबारों में कथक उच्‍च शैली में उभरा और मनोरंजन के एक मिश्रित रूप में विकसित हुआ।

बिरजू महाराज ने इस कथक को लोक से जोड़ा।गीत गोविंद,मालती माधव,कुमार सम्भव जैसी उनकी अलौकिक नृत्य नाटिकाएँ कला और साहित्य को गहरे अर्थों में व्यक्त करती थी। कथक के इतिहास में कई अहम पड़ाव आए।

वह कथाकारों की आख्‍यायिका कला अथवा कथा वाचकों से सीधे तौर पर जुड़ा। ये कथा वाचक आम लोगों को रामायण,महाभारत और पौराणिक कथाएँ  सुनाया करते थे। भाव-भंगिमाओं और अभिव्‍यक्तिपरक शब्‍दों का विस्‍तार और परिष्‍कार करते हुए यह कला संभवत : मध्‍यकाल में दरबारी परिदेश के रूप में रूपान्‍तरित हो गई। मुगल शासनकाल के दौरान यह अपने परवान तक पहुँची।

उन्‍नीसवीं सदी में लखनऊ, जयपुर रायगढ़ के राज दरबार  कथक नृत्‍य के मुख्‍य केन्‍द्रों के रूप में उभरे। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के संरक्षण में  कथक का स्‍वर्णिम युग देखने को मिलता है । लखनऊ घराने को अभिव्‍यक्ति तथा भाव के प्रभावशाली अंकन के लिए जाना जाता था। जयपुर घराना अपनी लयकारी या लयात्‍मक प्रवीणता के लिए जाना गया और बनारस घराना कथक नृत्‍य का

गुरूकुल माना गया। बनारस का कबीर चौरा इसका केन्द्र बना। 

कथक के इस गौरवशाली इतिहास को बिरजू महाराज ने एक नई पहचान दी। धार दी। लखनऊ के कथक घराने में पैदा हुए बिरजू महाराज के पिता अच्छन महाराज और चाचा शम्भू महाराज का नाम देश के प्रसिद्ध कलाकारों में शुमार है।

बिरजू महाराज ने इस महान विरासत को नई ऊंचाईंयां दीं। उन्होंने कथक को राष्ट्रीय गौरव की अनन्य उपलब्धि से सुशोभित किया। विश्व पटल पर कथक कीर्ति की स्वर्णिम रोशनी बिखेरी । बिरजू महाराज अब नही हैं किंतु उनकी रोशनी में पनपने वाले नृत्य के साधकों की आज भी एक अंतहीन क़तार है। ये क़तार सदियों तक उनके नाम को शाश्वत रखेगी।

हेमन्त शर्मा

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