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भूली दास्तान फिर याद आ गई – कश्मीरी गेट में दफन भूली-बिसरी कहानियां

Muslim Today by Muslim Today
मार्च 8, 2022
in देश
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भूली दास्तान फिर याद आ गई – कश्मीरी गेट में दफन भूली-बिसरी कहानियां
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कश्मीरी गेट की हेरिटेज वॉक में 3 कब्रें जरूर दिखाई जाती हैं और दफन शख्सियतों की गाथाएं बयान की जाती हैं। दो अंग्रेज अफसर हैं और एक हिन्दुस्तानी बुद्धिजीवी।

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​कश्मीरी गेट के आसपास ही अंग्रेजों के कई कब्रिस्तान हैं। लोथियान रोड पर जीपीओ के साथ ही दिल्ली का सबसे पुराना ईसाई कब्रिस्तान 1806 से है। स्कीनर परिवार की कब्रें कश्मीरी गेट के बीचोंबीच स्थित सेंट जेम्स चर्च के परिसर में ही हैं।

नजदीक ही 1857 की जंग-ए-आजादी की पहली लड़ाई में मारे गए ब्रिटिश लोगों की कब्रों से भरा निकल्सन कब्रिस्तान है। कश्मीरी गेट की हर हेरिटेज वॉक में निकल्सन कब्रिस्तान से टेलीग्राफ मेमोरियल तक चलते-चलते 19वीं सदी के तीन अहम शख्सियतों की कब्रों और उनकी भूली-बिसरी कहानियों से जरूर रू-ब-रू करवाया जाता है।

निकल्सन पर भारी पड़े परवाने

​सबसे पहला शख्स है ब्रिटिश फौज का कप्तान ब्रिगेडियर जनरल जॉन निकल्सन। इनके नाम की कश्मीरी गेट में एक सड़क भी है। और आईएसबीटी से तीस हजारी को जाती बुलिवर्ड रोड पर दाईं तरफ है निकल्सन कब्रिस्तान। लाल रंगी पुराने-से गेट के भीतर प्रवेश करते ही, पहली दाईं कब्र 1857 के विद्रोह में दिल्ली की ब्रिटिश फौज के कप्तान जॉन निकल्सन की है। कब्र के चारों ओर जंगला लगा है और कब्र पर लगे पत्थर पर विवरण लिखा है। कब्रिस्तान भी उसी के नाम से है।

​निकल्सन कब्रिस्तान सन् 1857 में ही बना है और ज्यादातर कब्रें उसी साल मारे गए अंग्रेजों की हैं। जॉन निकल्सन पर हिन्दुस्तानी आन्दोलनकारियों ने लड़ते-लड़ते 14 सितम्बर 1857 को जानलेवा हमला किया था। वह आज की निकल्सन रोड पर कश्मीरी गेट की तरफ बुरी तरह लहूलुहान होकर गिर गया। प्राचीन मुगलिया दीवार की मेहराबों के दरम्यान लुकते-छुपते जैसे-तैसे भाग निकला। कुछ रोज बाद ही 23 सितम्बर 1857 को घायल जॉन निकल्सन की मौत हो गई।

​तब से वह निकल्सन कब्रिस्तान में सो रहा है। बताते हैं कि वह बेहद ताकतवर जनरल था। उसने अपनी दरियादिली और ताकत के दम पर, फौज के तीन रैंक एक ही झटके में लांघ लिए और केप्टन से ब्रिगेडियर बन गया। उसका जन्म 1822 में आयरलैंड में हुआ था और मौत दिल्ली में। इस ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के आर्मी अफसर की बेवक्त मौत के वक्त उम्र महज 34 साल थी और वह कुंवारा था।

मास्टर यशुदास रामचन्द्र का दर्द

​निकल्सन कब्रिस्तान में उस दौर का एक और कद्दावर बुद्धिजीवी दफन है। नाम है यशुदास रामचन्द्र। लोगबाग उन्हें मास्टर जी कह कर पुकारते थे। वह अजमेरी गेट स्थित तब के दिल्ली कॉलेज के गणित के प्रोफेसर थे। उनकी कब्र तक जाने के लिए, प्रवेश द्वार के ऐन सामने की पगदंडी से सीधे जाना होगा। ज़रा आगे पगदंडी के दाईं तरफ कब्र है। कब्र पर लगे पत्थर पर अंग्रेजी और उर्दू में नाम और विवरण दर्ज है।

​इतिहास बताता है कि मास्टर यशुदास रामचन्द्र 19वीं सदी के शुरूआती 5 दशकों के खास व्यक्ति थे। दिल्ली कॉलेज को केन्द्र में रख कर, उन्होंने शिक्षा को आगे बढ़ाने-फैलाने के मकसद से अंग्रेजों का साथ दिया। इस हद तक कि उन्होंने 1852 में ईसाई धर्म अपनाया और कश्मीरी गेट की सेंट जेम्स चर्च में पूजा-अर्चना करने जाने लगे। पीछे-पीछे दिल्ली के पहले-पहले एलोपैथी डॉक्टरों में से एक डॉ चमन लाल भी ईसाई बन गए।

बुद्धिजीवी वर्ग में ईसाई बनने का सिलसिला ही शुरू हो गया। इसी दौरान, मौलवी इमादुद्दीन भी ईसाई बन कर पादरी इमादुद्दीन कहलाने लगे। दिल्ली कॉलेज में रह कर मास्टर यशुदास रामचन्द्र को उर्दू में मौलिक रचना करने और पश्चिम की किताबों का अनुवाद करने का श्रेय जाता है। उन्होंने 3 पाक्षिक अखबारों का उर्दू में सम्पादन भी किया, जिनमें से एक मार्च 1845 में चालू ’फावेद-उल-नाजरीन’ विज्ञान पर आधारित थी।

​मास्टर यशुदास रामचन्द्र पटियाला के महाराजा के शिक्षक भी थे। सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान वह बेहद नाखुश इंसान थे। उन्होंने ईसाई धर्म अपनाया, इसलिए हिन्दुस्तानी होकर भी, स्वतन्त्रता सैनानियों के निशाने पर थे। सो, वह बचते-बचाते दिल्ली से भाग कर, नजदीकी मतौला गांव में जा छुपे।

जब दिल्ली में आजादी की चिंगारियां थमीं और ब्रिटिश राज पुनः सामान्य हुआ, तो वह लौट आए। इस बार उन पर अंग्रेजी फौज ने वार किया। उन्होंने एतराज किया और ईसाई होने की दुहाई तक दी। लेकिन अंग्रेजी फौजियों की दलील थी कि ईसाई हैं, तो क्या हुआ? हैं तो ’काले’। इसलिए उनकी गिनती विद्रोही हिन्दुस्तानियों में ही है। उनका जन्म 1821 में हुआ था और मृत्यु 1880 मेें।

विलियम फ्रेजर की आशिकी और…

​सेंट जेम्स चर्च के फ्रंट बगीचे के बीचोंबीच अंग्रेज रेजीडेंट कमिश्नर विलियम फ्रेजर की कब्र है। वह ब्रिटिश इंडिया का नामी सिविल सरवेंट था। वह आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की बादशाही के दिनों में, गर्वनर जनरल और दिल्ली का कमिश्नर था। उसका जन्म ब्रिटेन में 1784 में हुआ और मुत्यु 22 मार्च 1835 को दिल्ली में। वह कुछ वक्त कश्मीरी गेट की चर्च रोड पर बंगले में रहा और कुछ अर्सा नॉर्थ रिज के हिन्दू राव हवेली में, जो आज अस्पताल है।

​विलियम फ्रेजर का भी कत्ल हुआ था। लेकिन आजादी के परवानों के हाथों नहीं, बल्कि प्रेम त्रिकोण के चलते मारा गया। सन् 1835 की रात फिरोजपुर के नवाब शम्सुद्दीन अहमद खान ने विलियम फ्रेजर को अपनी दरियागंज की हवेली पर रात्रि भोज पर आमन्त्रित किया था। देर रात को लौटते वक्त विलियम फ्रेजर की गोली मार कर हत्या कर दी गई।

हत्या उसकी हिन्दूराव हवेली के बाहर ही हुई बताते हैं। तहकीकात से जाहिर हुआ कि नवाब शम्सुद्दीन अहमद खान के हुक्म पर करीम खा ने ने 22 मार्च 1835 को विलियम फ्रेजर का कत्ल किया था। नवाब शम्सुद्दीन अहमद खान जाने-माने मुगल शायर दाग देहलवी के पिता थे। प्रेम त्रिकोण से उपजी गहरी साजिश का भंडाफोड़ हुआ और 10 अक्तूबर 1835 को कातिल नवाब को कश्मीरी गेट के बाहर सरेआम फांसी पर लटका दिया गया। इसका ब्यौरा सर थॉमस मेटकॉफ की 1844 में छपी किताब ’दिल्ली बुक’ में बाकायदा दर्ज है।

​विलियम फ्रेजर को सेंट जेम्स चर्च के प्रांगण में कर्नल जेम्स स्कीनर ने 1836 में दफनाया था। इससे पहले वह यहीं कहीं अन्य कब्रिस्तान में दफनाया गया, लेकिन चर्च बनने के बाद उसे बेहतर स्थान पर शिफ्ट किया गया। असल में, फ्रेजर और स्कीनर दोनों गहरे दोस्त थे।

फ्रेजर सबसे खासा मिला-जुला रहता था। हिन्दुस्तानी महिलाओं से भी उसकी आशिक मिजाजी के खासे चर्चे थे। दिल्ली तबादले से पहले वह आज के हरियाणा के हांसी शहर में तैनात था। वहां उसके कई औरतों से ताल्लुकात थे, जिनसे उस जैसी नीली आंखों वाले कई बच्चे वहां पैदा हुए।

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