स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद से विधानसभा के सातवें चरण के लिए हुए मतदान के बाद 8 मार्च, 2022 को काशी के केदारघाट स्थित उनके आश्रम में मेरी मुलाकात हुई थी. मतदान के बाद के समीकरण व राजनीतिक हलचल को वह अपने शिष्यों से जानने-समझने की कोशिश कर रहे थे. उनके एक शिष्य बनारस शहर दक्षिणी सीट को लेकर अपने तरीके से दावे कर रहे थे. अपने प्रयास का भी वे खुलकर जिक्र कर रहे थे. स्वामी जी चुपचाप उनकी बातें सुनते रहे.
बाद में उन्होंने मुझसे भी वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के संबंध में पूछा. मैंने कहा लड़ाई कांटे की है. फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता है कि ऊंट किस करवट बैठेगा. 10 मार्च तक इंतजार करना पड़ेगा. स्वामी जी ने कहा, बिल्कुल..! लेकिन जनता का फैसला यह साबित कर देगा कि वह अपनी संस्कृति, धरोहर, पहचान के पक्ष में खड़ी है या फिर “विकास” की चकाचौंध के साथ है.
उल्लेखनीय है कि गंगाघाटी का पक्काप्पा संस्कृति को बचाने के लिए साल 2018 में शुरू हुए “धरोहर बचाओ आंदोलन” के बिखरने पर उसके रणनीतिकारों के निमंत्रण पर स्वामी जी भी आंदोलन से जुड़े थे. तब सबसे पहले पक्कामहाल की गलियों में उन्होंने पदयात्रा की. हालात को जानने-समझने की कोशिश किए और उन मंदिरों को भी देखे जो मलबे में दब गए थे. बाद में उन्होंने मंदिर बचाओ आंदोलन शुरू किया और मौनब्रत भी किए.
स्वामी जी कहना था कि यदि जनता अपनी संस्कृति और धरोहर के पक्ष में नहीं खड़ी होती है तो फिर कुछ बोलने का कोई मतलब नहीं है. जनता का फैसला ही यह साबित करेगा कि आखिर वह क्या चाहती है ? आज 11 मार्च है और विधानसभा चुनाव का परिणाम आ चुका है. बनारस की सभी आठ विधानसभा सीटों पर भाजपा ने पुन: अपना कब्जा बरकरार रखा है.
बनारस की जनता “विकास” की चकाचौंध के साथ खड़ी है. उसे इससे कोई मतलब नहीं है कि मीरघाट, ललिता, जलासेन और मणिकर्णिका श्मशान के सामने गंगा की धारा में कितना बालू और मलबा डाला गया था. साढ़े पांच किलोमीटर लम्बी बनी “रेत की नहर” कैसे गंगा की जलधारा में विलीन हो गई. कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन न मिलने की व्यथा भी लोग भूल गए हैं.
मई-जून, 2021 में काई / शैवाल लगने से गंगाजल हरे रंग का हो गया था, यह भी कोई मुद्दा नहीं बन सका. महत्वपूर्ण चीज यह है कि गंगाघाटों को बिजली की झालरों से सजाया गया है. लाइटिंग की भव्य व दिव्य व्यवस्था है, जिसकी चकाचौंध में जनता फिलहाल मस्त है. काशी की संस्कृति और धरोहर पर बुलडोजर की विकासवादी राजनीति भारी पड़ी है. अब सवाल यह है कि राजनीतिक समीक्षक इस पूरे घटनाक्रम को किस नज़रिए से देखते हैं, यह महत्वपूर्ण है.