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एक ही झटके में AMU के पाठ्यक्रम में बदलाव किसके कहने पर हुआ?

Muslim Today by Muslim Today
अगस्त 6, 2022
in स्तंभ
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एक ही झटके में AMU के पाठ्यक्रम में बदलाव किसके कहने पर हुआ?
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सवाल उठ रहे हैं कि ये लेखक दूसरे विश्वविद्यालयों में भी पढ़ाए जा रहे हैं और यदि हटाना ही था तो प्रक्रिया के तहत हटाया गया होता.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय यानी एएमयू में आजादी के एक साल बाद 1948 में इस्लामिक स्टडीज डिपार्टमेंट बनाया गया था. विभाग की स्थापना के साथ ही पाकिस्तान के लेखक अबुल अल मौदूदी और मिस्र के लेखक सैयद कुतुब की किताबें पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं. पिछले हफ्ते सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर और कुछ अन्य विद्वानों ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा जिनमें इन दोनों लेखकों की कई बातों पर आपत्ति जताई. इस आपत्ति के बाद एएमयू प्रशासन ने इन दोनों लेखकों की किताबों को पाठ्यक्रम से हटा दिया.

पीएम को लिखे पत्र में कहा गया था कि ये लेखक इस्लामिक कट्टरपंथ से जुड़े हुए हैं और सरकारी वित्त से पोषित केंद्रीय विश्वविद्यालयों में उन्हें और ऐसे अन्य विद्वानों को नहीं पढ़ाया जाना चाहिए. एएमयू के जनसंपर्क अधिकारी उमर पीरजादा ने मीडिया से बातचीत में इन लेखकों की पुस्तकों को पाठ्यक्रम से हटाने की पुष्टि की है.

सिर्फ एएमयू ने पाठ्यक्रम से हटाया

पीएम को लिखे पत्र में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय समेत जामिया मिलिया इस्लामिया और जामिया हमदर्द जैसे सरकारी वित्त पोषित संस्थानों में भी ऐसे पाठ्यक्रम की ओर ध्यान दिलाया गया था. पत्र में लिखा गया है, “हम आपके ध्यान में लाना चाहते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय जैसे सरकार द्वारा वित्त पोषित इस्लामी विश्वविद्यालयों के कुछ विभागों द्वारा बेशर्मी से जिहादी इस्लामी पाठ्यक्रम का पालन किया जा रहा है. यह गहरी चिंता का विषय है कि अबुल अल मौदूदी का लेखन तीन विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है.”

यानी आपत्ति तीन विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जा रहे इन लेखकों की कृतियों पर थी, पर इन्हें पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला सिर्फ एएमयू ने ही लिया है, बाकी विश्वविद्यालयों ने नहीं. यह भी कहा जा रहा है कि पाठ्यक्रम में किसी भी नए विषय को शामिल करना और हटाना एक प्रक्रिया के तहत होता है लेकिन अबुल मौदूदी और सैयद कुतुब को विश्वविद्यालय ने एक झटके में कुछ लोगों की आपत्ति की वजह से हटा दिया.

विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना प्रक्रिया के ही पाठ्यक्रम में बदलाव कर दिया

इस बारे में एएमयू के जनसंपर्क अधिकारी उमर पीरजादा कहते हैं, “इन दोनों इस्लामी विद्वानों की कृतियां विश्वविद्यालय के वैकल्पिक पाठ्यक्रमों का हिस्सा थीं, इस वजह से उन्हें हटाने से पहले एकेडमिक काउंसिल में इस पर विचार-विमर्श करने की प्रक्रिया अपनाने की कोई जरूरत नहीं थी. इन्हें पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है.”

इस सवाल पर एएमयू के अधिकारी कुछ भी जवाब देने से कतरा रहे हैं कि जब अन्य दो विश्वविद्यालयों ने इन लेखकों को पाठ्यक्रम से नहीं हटाया तो एएमयू ने ही इस पत्र पर ऐसी त्वरित प्रतिक्रिया क्यों दिया

विश्वविद्यालय के प्रवक्ता शाफे किदवई कहते हैं, “विश्वविद्यालय में किसी भी विवाद से बचने के लिए पाठ्यक्रम से कुछ हिस्सों को हटाने का निर्णय लिया गया. उन्होंने जो बातें कही हैं वो इस्लाम के बारे में कही हैं, जिनकी अलग-अलग तरीके से व्याख्या की जाती है. इतने सालों में परिस्थितियां बदल गई हैं. जो वर्षों पहले पढ़ाने लायक समझा जाता था, वह अब पढ़ाने लायक नहीं समझा जाता. अखबारों और मीडिया में इसे लेकर आपत्तियां जताई जा रही थीं तो विवाद से बचने के लिए यह फैसला लिया गया है.”

विश्वविद्यालय के अधिकारियों की मंशा पर सवाल

वहीं विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ प्रोफेसर इस फैसले के पीछे दबाव और कुछ लोगों की व्यक्तिगत लाभ की आकांक्षा को भी देखते हैं. एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, “पाठ्यक्रम से हटाने और नया विषय शामिल करने की एक प्रक्रिया होती है. पहले विभागीय अध्यापक तय करते हैं कि पाठ्यक्रम में क्या शामिल करना है और प्रासंगिक नहीं होने की वजह से क्या हटाना है. उसके बाद यह प्रस्ताव एकेडमिक काउंसिल में भेजा जाता है. इस बारे में फैसला लेने का अंतिम अधिकार एकेडमिक काउंसिल को ही है. लेकिन यहां इस तरह की कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई गई. ना तो विभाग और ना ही एकेडमिक काउंसिल को इसकी सूचना दी गई.”

उन्होंने यह भी कहा, “दरअसल, अल्पसंख्यक संस्थान होने की वजह से एक डर और दबाव तो है ही, कुछ लोग इसके जरिए केंद्र सरकार में बैठे लोगों को खुश भी करना चाहते हैं ताकि पता चले कि वो सारा काम उन्हीं के मुताबिक कर रहे हैं. जाहिर है, ऐसे लोगों को कुछ व्यक्तिगत लाभ की उम्मीद होगी.”

जिन विद्वानों की किताब हटाई गई है उन पर कई और देशों में भी प्रतिबंध है

किताब में आपत्तिजनक बातें

यह बात हमें जिन प्रोफेसर ने बताई, उनका कहना था कि अबुल मौदूदी और सैयद कुतुब की किताबों में निश्चित तौर पर ‘बेहद आपत्तिजनक’ बातें लिखी गई हैं, लेकिन सवाल यह है कि जब दशकों से इन्हें पढ़ाया जा रहा था और अब हटाने का फैसला करना था, तो प्रक्रिया के तहत किया गया होता, मनमाने ढंग से क्यों किया गया?

हालांकि एएमयू में इस्लामिक स्टडीज विभाग के कई मौजूदा और पूर्व प्राध्यापकों का कहना है कि इन लोगों की किताबों में ऐसी कोई बात नहीं है, जो आपत्तिजनक हो. इस्लामिक स्टडीज विभाग के चैयरमेन प्रोफेसर मोहम्मद इस्माइल भी मीडिया से बातचीत में कहते हैं कि किताबों में आपत्तिजनक जैसा कुछ नहीं था, सिर्फ विवाद से बचने के लिए यह कदम उठाया गया है.

वहीं, एएमयू में इस्लामिक स्टडीज विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसल ओबैदुल्लाह फहद कहते हैं कि मौलाना अबुल मौदूदी की किताबों पर ही सबसे ज्यादा विरोध हो रहा है क्योंकि उन्होंने उपनिवेशवाद का विरोध किया है और पश्चिमी देशों में उनकी आलोचना होती है. वो कहते हैं, “मैं पिछले पांच दशक से मौदूदी को पढ़ रहा हूं, पढ़ा भी रहा हूं, कई लोगों को पीएचडी करा चुका हूं, पर मुझे तो उनकी बातों में कहीं भी ऐसी कोई बात नहीं दिखती जिसमें आतंकवाद को बढ़ावा देना जैसा हो या फिर किसी अलोकतांत्रिक तरीके की बात कर रहे हों. वो हर जगह यही कहते हैं कि हमें वही करना है और उसी तरीके से करना है जैसा हमारे रसूल ने बताया है.”

कौन हैं ये इस्लामिक विद्वान

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1903 में हैदराबाद में जन्मे अबुल अल मौदूदी इस्लामी विषयों के विद्वान थे और विभाजन के तुरंत बाद पाकिस्तान चले गए थे. उन्होंने भारत और पाकिस्तान में एक मुस्लिम संगठन जमात-ए-इस्लामी की स्थापना की थी. हालांकि बाद में वो इस संगठन के राजनीतिक विंग जमीयत उलेमा ए हिन्द से अलग हो गए थे. 1926 में देवबंद मदरसा से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने वाले मदूदी ने 100 से ज्यादा किताबें लिखी हैं और उनकी किताबें दुनिया भर के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं.

हालांकि विभाजन के बाद वो पाकिस्तान चले गए थे लेकिन इस्लामी कानून लागू करने की वकालत करने के चलते उन्हें पाकिस्तान की सरकार ने कई बार गिरफ्तार करके जेल में डाला था. 1979 में अबुल मौदूदी का अमेरिका में देहांत हो गया.

मिस्र के लेखक सैयद कुतुब भी इसी दौर के थे. 1950 और 1960 के दशक में मुस्लिम ब्रदरहुड के एक प्रमुख सदस्य थे. पाश्चात्य सभ्यता के वो कट्टर आलोचक थे और इसी वजह से मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर के विरोधी भी बन गए. हालांकि पहले वो नासिर के समर्थक थे और उनके सहयोगी रहे लेकिन मिस्र में इस्लामिक कानून की वकालत के चलते नासिर से उनका विरोध हुआ, मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ मिलकर उन पर तख्तापलट करने के आरोप लगे और इन आरोपों के चलते उन्हें जेल में डाल दिया गया. नासिर धर्मनिरपेक्षता के समर्थक थे.

साल 2010 में बांग्लादेश की सरकार ने मौलाना मदूदी की किताबों और शिक्षाओं पर ‘आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने’ का आरोप लगाते हुए प्रतिबंधित कर दिया था. सऊदी अरब में भी इनकी किताबों पर प्रतिबंध है.

 

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