भारत के आम लोग कम खा रहे हैं। जो खा रहे हैं उसी में कटौती कर रहे हैं। खाने के लिए पैसे नहीं है तो जो बुढ़ापे के लिए बचाया था उसमें से निकाल कर खा रहे हैं।
इस पर बात नहीं होती है लेकिन जिस पर गुज़रती है वो ज़रूर बात करता होगा। प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक सफलता भले प्रचंड है लेकिन उनके कार्यकाल की आर्थिक उपलब्धियां बेहद साधारण हैं। बल्कि भारत ने जो लंबे समय से हासिल किया था वो बर्बाद हो चुका है।
आप चाहें तो इंडिया स्पेंड की साइट पर रोहित इनानी की रिपोर्ट पढ़ सकते हैं जो इसी 22 जनवरी को प्रकाशित हुई है।
मीडिया के ज़रिए आपको लगता होगा कि भारत में समृद्धि की बहार है। लेकिन इस चमक दमक की कहानी सिर्फ 10 करोड़ लोगों की है। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य रथिन रॉय का कहना है कि भारत में जो विकास की कहानी है वो सिर्फ 10 करोड़ लोगों के विकास की कहानी है।
यही दस करोड़ जो खाता ख़रीदता है उसी से विकास दर में तेज़ी आती है। एक अरब से अधिक की आबादी की तुलना में यह कितना कम है आप समझ सकते हैं। इसका मतलब यही हुआ कि 10 करोड़ के बाद आबादी का बाकी हिस्सा निम्न मध्यमवर्ग और गरीब ही है।
अक्तूबर 2020 में खाद्दान्न मुद्रा स्फीति 11 प्रतिशत हो गई थी। जो नवंबर 2020 में कम भी हुई तो 9.4 प्रतिशत रही। भारत सरकार की मुद्रा स्फीति का अधिकतम लक्ष्य 6 प्रतिशत था लेकिन वास्तविक महंगाई इससे अधिक ही रहने लगी है।
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दिखाई नहीं देती क्योंकि मीडिया और राजनीति में मुद्दा नौकरी और महंगाई नहीं है। धर्म है। धर्म की फर्ज़ी पहचान है। आप जानते हैं कि पेट्रोल और डीज़ल के दाम लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं लेकिन इसका आम जीवन पर क्या असर पड़ रहा है, इसकी चर्चा लगातार घटती जा रही है।
2012 में घरेलु बचत का हिस्सा जीडीपी का 24 प्रतिशत था जो 2018 में ही घट कर 17 प्रतिशत हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि लोगों की कमाई नहीं बढ़ी और वे बचत से खर्चा चलाने लगे। 1991 के स्तर पर घरेलु बचत आ गई है।
हिन्दी में इस तरह सोचिए कि जो हालत 1991 में लोगों की थी वही आज हो चुकी है। मोदी जी की जय। यह कितना भयावह है। एक अर्थशास्त्री का कहना है कि अगर लोग पिछले छह साल में एक ही तरह से ख़रीद खा रहे हैं, उसमें कोई बढ़त नहीं है
तो भी उन्हें अपनी बचत का हिस्सा निकालना पड़ा है। तालाबंदी के दौरान यह ट्रैंड और भयानक हो गया है। नौकरियां गई हैं। कमाई कम हुई है।
सिर्फ ट्रांसपोर्ट सेक्टर को लीजिए तो दिख जाएगा कि पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ने से इस सेक्टर से जुड़े लोगों की क्या हालत होती होगी। यह सेक्टर बहुत कम मार्जिन पर काम करता है। दाम बढ़ने से छोटे छोटे टैम्पो से माल की ढुलाई करने वालों की कमाई काफी कम हो जाती है।
अगस्त 2020 में ICRA की रिपोर्ट है कि ट्रांसपोर्ट सेक्टर 20 प्रतिशत तक सिकुड़ जाएगा। इसका यही मतलब हुआ कि लाखों लोग रोज़गार से बाहर हो जाएंगे और उनकी कमाई बेहद कम हो जाएगी। ऐसे लोगों की सरकार ने कोई मदद नहीं की। वह वित्तीय घाटे की दुहाई देती रही। सरकार ने तालाबंदी का नाम लेकर अपने खर्चे में 22 प्रतिशत की कटौती कर दी।
इस कारण भी लोगों को काम नहीं मिला। ग़रीबों को अनाज दिया गया लेकिन वो काफी नहीं था। आप सिर्फ चावल या सिर्फ रोटी नहीं खा सकते। सब्ज़ी के लिए पैसे नहीं हैं।
2018 के अक्तूबर में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी। उस समय भारत में पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें आसमान छूने लगीं। आज कच्चे तेल की कीमत 52-54 डॉलर प्रति बैरल है।
इसके बाद भी भारत के लोगों को अक्तूबर 2018 की तरह पेट्रोल और डीज़ल के दाम देने पड़ रहे हैं। 2020 के अप्रैल में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में कच्चे तेल की कीमत 19 डॉलर प्रति बैरल हो गई। तालाबंदी के कारण सरकारों का राजस्व बढ़ गया था।
गाड़ियां बंद थी लेकिन जो पेट्रोल और डीज़ल ख़रीदने जाता था उसे ज़्यादा दाम देने पड़ रहे थे।
2000-01 में भारत पेट्रोलियम उत्पादों की खपत का 75 प्रतिशत आयात करता था। 2016-19 में 95 प्रतिशत हो गया। इस वक्त अपनी खपत का 84 फीसदी आयात करता है। कांग्रेस नेता अजय माकन ने कुछ दिनों पहले ट्विट किया था कि कांग्रेस के शासन के दौरान मई 2014 में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में कच्चे तेल की कीमत 108 प्रति बैरल हो गई थी तब भी भारत में पेट्रोल 71.51 रुपये और डीज़ल 57.28 रुपये प्रति लीटर बिक रहा था।
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आज कई जगहों पर पेट्रोल 80 से 90 रुपये लीटर तक पहुंच गया है। इस साल अप्रैल में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में कच्चे तेल की कीमत 19 डॉलर प्रति बैरल हो गई तब भी यहां दाम कम नहीं हुए। तालाबंदी के समय में भी जब लोगों के काम धंदे बंद थे महंगे दाम पर तेल खरीद रहे थे। उसका कारण है पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले करों का ढांचा।
आप जब पेट्रोल भराते हैं तब उस पर केंद्र और राज्य को 62 प्रतिशत टैक्स देते हैं। एक साल के भीतर केंद्र सरकार ने पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 9.98 रुपये से बढ़ा कर 32.98 रुपये कर दिया है।
इसी तरह डीज़ल पर उत्पाद शुल्क 15.83 रुपये से बढ़ा कर 31.83 रुपये कर दिया गया है।2014 में केंद्र पेट्रोल और डीज़ल से जो राजस्व वसूलता है वो करीब करीब दुगना हो गया है। भारत पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात भी करता है।
दुनिया का दसवां बड़ा निर्यातक है। लेकिन जब आप कुल निर्यात में भारत का हिस्सा देखेंगे तो 3.9 प्रतिशत है।
गैस सिलेंडर का भी वही हाल है। जिनकी आमदनी 10 लाख रुपये है उन्हें गैस की सब्सिडी नहीं मिलती है। मीडिया में ख़बरें छपती रहती हैं कि सरकार विचार कर रही है कि जिनकी आमदनी 5 लाख या उससे ऊपर है उन्हें भी सब्सिडी से बाहर कर दिया जाए।
बहरहाल जो लोग ग़रीब हैं और जो एक साल में 10 लाख रुपये से कम कमाते हैं उन्हें सरकार गैस के सिलेंडर पर सब्सिडी देती है। इस कैटगरी के उपभोक्ता को एक साल में 12 सिलेंडर ही मिलते हैं और एक सिलेंडर के 530 से लेकर 550 रुपये देने पड़ते हैं।
अब 100 रुपये तक सिलेंडर महंगा हो चुका है क्योंकि सरकार ने सब्सिडी घटा दी है। हर महीने सिलेंडर का दाम भी चुपके से बढ़ा दिया जा रहा है। जब आप सिलेंडर लेते हैं तो 5 प्रतिशत जीएसटी देनी पड़ती है।यही नहीं गैस सिलेंडर ख़रीदने पर दो साल के अनिवार्य इंस्पेक्शन का ख़र्चा भी बढ़ा दिया गया है। इस तरह से उपभोक्ता की जेब से कुछ और पैसा झड़प लिया गया है। गैस सिलेंडर के दाम धीरे धीरे बढ़ते ही रहते हैं। जब रुपया कमज़ोर होता है तब भी महंगा हो जाता है।
सरकार मुद्रा स्फीति का लक्ष्य निर्धारित करती है। 2016 में एक अधिसूचना जारी हुई थी कि मार्च 2021 तक उपोभक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) 4 प्रतिशत तक रहेगा। बहुत से बहुत 6 प्रतिशत तक होना चाहिए। कम से कम 2 प्रतिशत तक।
कानूनन सरकार को हर पांच साल के लिए इस तरह के लक्ष्य निर्धारित करने पड़ते हैं। अब कहा जा रहा है कि सरकार अगले पांच साल के लिए इस लक्ष्य को 5 प्रतिशत करना चाहती है। पिछले साल अक्तूबर में मुद्रा स्फीति 7.61 प्रतिशत तक चली गई थी। अधिकतम सीमा से भी अधिक।
तालाबंदी के समय भारत की अर्थव्यवस्था की बुरी हालत हुई। बिना सोच समझ के लिए गए फैसले ने देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया। अर्थशास्त्री सव्यसाची कर कहते हैं कि तालाबंदी से पहले के स्तर पर ही पहुंचने में भारत को 13 साल लग जाएंगे।
आप जानते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था तालाबंदी से पहले ही ख़राब होने लगी थी। चिन्ता इस बात की है कि अगर लोगों को नौकरी नहीं मिलेगी, सैलरी कम होगी, मज़दूरी नहीं बढ़ेगी तो उनके खरीदने की ताकत और घटेगी। इससे भारत में उपभोग का स्तर और घटेगा और उसका असर विकास दर पर पड़ेगा।