यह विचित्र दौर है। लोग अपनी दांतों का दर्द दबा कर बैठे हैं और मुस्कुराए जा रहे हैं। अख़बारों में बैंकों के बेच देने की दलीलें सुसज्जित हो चुकी हैं। सरकारी बैंकों के लोग अपने अरमानों से भावनाओं में लपेट कर सिसकियाँ पोंछेंगे। उनके क़ीमत चुकाने की बारी है।
नोटबंदी के समय के काले राज़ जिनकी आँतों में दफ़्न हैं वो बहुत दिनों तक देश के लिए कुछ करने का बहाना बनाते रहे। बैंकों को बेचना भी किसी के लिए देश के लिए कुछ करना है। अब तक तो बैंक की जगह बीमा बेचने की आदत लग ही गई होंगी। अनैतिकता एक दिन सब पर भारी पड़ती है। जो शामिल होते हैं और जो शामिल नहीं होते हैं।
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बैंकों के लोग अपने सहयोगियों के व्हाट्स एप ग्रुप के पुराने चैट जाकर पढ़ें। तब उन्हें पता चलेगा कि वे जब उन बातों पर सीना फुला रहे थे उनकी इमारतों के सौदे हो रहे थे। यह समय बेचने के फ़ैसले के साथ होने का है। जो लोग इसकी वकालत कर रहे हैं वो मुस्कुरा रहे हैं।
जो विरोध में होगा एक और गहरी हार की हताशा का दंश झेलेगा। उसकी हताशा को सिर्फ़ किसान समझ सकते हैं। बैंकों का बेचना अनिवार्य हो चुका है। सरकार ने सबके सामने कहा है और करने से कौन रोक पाएगा। बैंक कर्मचारियों का आंदोलन? क्या किसी को देशद्रोही कहे जाने का बिल्कुल डर नहीं है?
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दूसरे को देशद्रोही कहना कितना आसान होता है। क्या बैंकों के बेचने की बात का समर्थन बैंकों के भीतर नहीं होगा? जब महंगाई का विरोध नहीं है, बेरोज़गारी पर विरोध नहीं है तो कैसे मान लें कोई कि बैंकों के बेचने के फ़ैसलों का विरोध है?