सवाल पूछने का दिन अमित शाह से। उनके गृह मंत्री रहते दिल्ली में दंगे हुए। साफ़ दिख रहा था कि ये दंगे कराए गए थे। इससे राजनीतिक लाभ किसे हुए यह भी दिख रहा था। लेकिन राजधानी दिल्ली में हुए दंगों की जाँच का हाल यह है कि जिन छात्र-छात्राओं के ख़िलाफ़ UAPA की धाराएँ लगाई गईं, साबित करने के लिए ठोस सबूत तक नहीं मिले।
पहली सुनवाई से ही अदालत सवाल करती रही कि जो साक्ष्य पेश किए जा रहे हैं उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिनसे लगे कि हिंसा भड़का रहे हैं। राजधानी दिल्ली के लोग ख़ुद को सक्रिय और जागरुक समझते हैं। उनके सामने दंगा हुआ। साज़िश कर्ता का पता तक नहीं है। उनकी आँखों के सामने जिन लोगों पर आरोप लगाए पुलिस के पास UAPA की धाराएँ लगाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है।
यह सब इसलिए कि ज़मानत न मिले। किसी की ज़िंदगी से इस तरह खिलवाड़ की गई। एक आंदोलन से जब हार गए तब अपनी हार की हताशा में छात्रों को निशाना बनाया गया। आज तक हम नहीं जानते कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के साबरमती छात्रावास में हमला करने वाले कौन लोग थे। जामिया मिल्लिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में क्या हुआ था। हम कुछ नहीं जानते। बस जो गोदी मीडिया के डिबेट ने आग लहकाई वही जानते हैं। इस तरह से समाज पतन के गर्त में जा चुका है।
यह अपने लिए अपराध बोध जमा कर रहा है ताकि आने वाले वर्षों में नज़र झुका कर डरते हुए जीवन जी सके। एक फेल नेता का गुणगान करने का नैतिक साहस जुटाए रखे। जो आई टी सेल के कमेंटबाज़ों के दम पर वार करता है। कभी FIR तो कभी UAPA से वार करता है । क़ायदे से गृह मंत्री और दिल्ली पुलिस के आयुक्त से सवाल होना था। उन्हें ख़ुद सामने आना था।