जिस दिन से ये झूठी खबर सामने आई कि दिल्ली के निजामुद्दीन में तबलीगी जमात में शामिल कुछ लोगों की कोरोना वायरस से मौ!त हो गई है, तब से तथ्यों की जांच करने वाली वेबसाइटों ने ऐसी ढेरों फर्जी खबरों का खुलासा किया है जिनमें इस महामारी के लिए मुसलमानों को निशाना बनाया गया है।
फेसबुक और व्हाट्सएप पर साझा हो रहीं वीडियो क्लिपों में मुसलमानों को भारत में कोरोना वायरस फैलाने का जिम्मेदार बताया जा रहा है। तथ्यों की जांच करने वाली वेबसाइटों ने बताया है कि जिस तेजी ये फर्जी खबरें फैल रही हैं, उस तेजी से इन खबरों का भंडाफोड़ करना कठिन हो गया है।
तथ्य की जांच करने वाली वेबसाइट “फैक्टली” के संस्थापक राकेश डुब्बुडू ने कहा, “जब से निजामुद्दीन की घटना पब्लिक डोमेन में आई मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने वाली फर्जी खबरों में बढ़ोतरी हो गयी है।”
मार्च के मध्य से भारतीय सोशल मीडिया में कोविड-19 के बारे में झूठे संदेशों में लगातार बढ़ोतरी हुई है। वायरस से संबंधित खबरों से घिरे व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर ज्यादातर संदेश इस बारे में झूठा इलाज या “एक्सपर्ट टिप्स” बता रहे हैं।
डुब्बुडू ने कहा कि अभी हाल तक कोविड-19 से संबंधित अधिकांश फर्जी खबरों का स्वर धार्मिक नहीं था। लेकिन 30 मार्च से सोशल मीडिया पर इस्लामो!फोबिक फर्जी खबरों में अचानक बढ़ोतरी हुई है।
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8 से 15 मार्च तक निजामुद्दीन में तबलीगी जमात द्वारा आयोजित एक सम्मेलन के लिए दो हजार से अधिक जमाती इकट्ठा हुए थे। दिल्ली सरकार द्वारा 200 से अधिक लोगों के जमघट पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद भी यह सम्मेलन दो दिनों तक जारी रहा।
रिपोर्टों से पता चलता है कि 13 मार्च का आदेश धार्मिक संगठनों के लिए नहीं था। इस कार्यक्रम के आयोजकों ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर बताया कि 21 मार्च को रेल सेवाओं को रद्द करने के कारण दक्षिण भारत और विदेशों से आए कई प्रतिनिधि दिल्ली में फंस गए थे।
19 मार्च को सम्मेलन में भाग लेने वाले दस इंडोनेशियाई नागरिकों ने तेलंगाना में कोविड-19 का परीक्षण कराया जो सकारात्मक निकला। इसके बाद देश के विभिन्न हिस्सों से दर्जनों जमातियों को कोरोना वायरस पॉजिटिव पाया गया। तब से इस सम्मेलन में शामिल रहे 15 लोगों की मौ!त हो चुकी है।
30 मार्च को दिल्ली पुलिस ने जमात के कार्यालय को सील कर दिया और उसके नेताओं पर आपराधिक षड्यंत्र और महामारी रोग अधिनियम के तहत अन्य दंड प्रावधानों सहित विभिन्न अपराधों के आरोप दर्ज किए।
30 मार्च को व्हाट्सएप और फेसबुक पर कई वीडियो दिखाई दिए जिसमें दावा किया गया कि मुसलमान दूसरे लोगों में वायरस फैलाने के लिए विभिन्न गतिविधियों में लगे हैं।
दक्षिण एशिया में सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम करने वाली संस्था कन्फेडरेशन ऑफ वॉलंटरी असोसिएशंस का व्हाट्सएप ग्रुप चैकइट फर्जी फॉर्वर्ड संदेशों को चिन्हित करने और उपयोगकर्ताओं को सूचित करने का प्रयास कर रहा है।
चैकइट के सदस्य गौतम उयल्ला ने मुझे बताया कि वे 2019 से इस तरह की खबरों की पहचान करने का काम कर रहे थे। उयल्ला ने कहा, “दक्षिणपंथियों की सांप्रदायिक प्रॉपगेंडा फैलाने की संगठित शाखा और उसके विवादास्पद नेता कोविड-19 के प्रकोप के बाद से निष्क्रिय हो गए थे। अब जब से तबलीगी जमात मंडली सुर्खियों में आई है वे सक्रिय हो गए हैं।”
1 अप्रैल को चैकइट के सदस्यों में से एक ने व्हाट्सएप पर एक वीडियो पाया जिसमें सफेद कपड़े और सर पर टोपी पहने पुरुषों का एक समूह दिखा रहा है जो बारीकी से प्लेटों और चम्मचों पर चिपका जूठा खाना चाट रहा था।
इसके साथ एक संदेश था जिसमें लिखा था, “सभी सावधान रहें, ये कुछ लोग हैं जो कोरोना वायरस फैलाने की तैयारी कर रहे हैं, कृपया लोगों से दूर रहें। ” उसी दिन फैक्टली पर एक लेख में बताया गया कि भोजन करने के बाद बर्तनों को चाटने की प्रथा मुसलमानों के बोहरा समुदाय के बीच एक परंपरा है।
“संपूर्ण बोहरा परिवार एक ही थाल में खाता है और उसकी ‘कुछ भी बर्बाद नहीं’ करने की परंपरा है। वे अपनी थाली में चावल का एक भी दाना नहीं छोड़ते।” वेबसाइट ने यह भी पहचाना की कि वीडियो कोविड-19 के प्रकोप से कम से कम दो साल पहले का था।
पोर्टल ने उसी वीडियो के साथ एक फेसबुक पोस्ट का स्क्रीनशॉट भी साझा किया, जिसमें दावा किया गया था कि मुस्लिम, “चम्मच, प्लेट और बर्तन पर लार लगा रहे हैं क्योंकि उनकी मंशा कोरोनावायरस बीमारी फैलाने की है।”
वीडियो पोस्ट करने वाले यूजर ने दावा किया कि पुलिस ने वायरस फैलाने के लिए तमिल नाडु के सलेम में एक मस्जिद से 11 इंडोनेशियाई “मुल्लों” को पकड़ा है। जब 1 अप्रैल को फैक्टली ने इस पोस्ट की पहचान की तब तक उसे 3000 से लोग देख चुके थे और 176 शेयर कर चुके थे।
20 मार्च को “बियॉन्ड ऑर्गेनिक” नामक एक व्हाट्सएप समूह में साझा किए गए एक अन्य वीडियो में एक रेस्तरां में एक कर्मचारी, जो टोपी पहने हुए है, भोजन पैक करने से पहले एक प्लास्टिक कैरी बैग में फूंक मारते हुए दिखाई देता है। इसके साथ संदेश लिखा था, “मुसलमान उस खाने में थूक रहे हैं जिसे हम खाने के लिए खरीदते हैं। कृपया मुस्लिम दुकानों से भोजन खरीदने से बचें।”
समूह के एक सदस्य जी आर साई ने बताया कि वीडियो में दिख रहा व्यक्ति बैग को खोलने की कोशिश कर रहा है। हो सकता है कि वह एक साफ तरीका न हो फिर भी हर धर्म के बहुत से लोग बेपरवाह होकर ऐसा करते हैं। तथ्य की जांच करने वाली वेबसाइट ऑल्ट न्यूज ने यह भी पाया कि वीडियो को अप्रैल 2019 में यूट्यूब पर अपलोड किया गया था और इसका कोविड-19 महामारी से कोई लेना-देना नहीं है।
डुब्बुडू ने बताया कि उन्हें डर है कि आने वाले दिनों में मुस्लिम समुदायों की और भी पुरानी वीडियो क्लिप और उनकी प्रथाओं को कोरोना के प्रकोप से जोड़ा जाएगा। अब तक वह कम से कम चार ऐसे वीडियो देख चुके हैं। फेसबुक पर उन्हें मिले एक वीडियो में एक मस्जिद में कुछ मुसलमानों को बैठा दिखाया गया है, जो अपना सिर हिला रहे हैं और सांस ले रहे हैं।
वीडियो के साथ लिखा था, “कोई शब्द नहीं, लगता है कि वे मिशन पर हैं।” वीडियो के नीचे आई कई टिप्पणियों में मुसलमानों पर सक्रिय रूप से महामारी फैलाने आरोप लगाया गया। एक यूजर ने लिखा, “जिस तरह से वे ग्रेनेड और पत्थर फेंकते हैं ठीक उसी तरह लंबी दूरी तक कोरोना फैलाने की निंजा तकनीक।”
एक अन्य ने लिखा, “छींक, मानव का जैविक हथियार।” एक यूजर ने बताया कि वीडियो में एक सामान्य सूफी परंपरा को दर्शाया गया है। यूजर ने तुर्की के एक गीत का वीडियो भी साझा किया जिसमें इसी तरह अनुष्ठानिक रूप से सांस लेते हुए दिखाया गया है।
फैक्टली की टीम वर्तमान में अपने सत्यापन उपकरणों का उपयोग करके वीडियो के पहले पहल आने की पहचान करने पर काम कर रही है। डुब्बुडू को लगता है कि एक सूफी प्रथा को बिल्कुल अलग संदर्भ में प्रसारित किया जा रहा है।
“जो लोग इसे बनाते हैं उनका एक एजेंडा होता है और जो लोग इसे साझा करते हैं वे अक्सर ऐसा आंख मूंद कर करते हैं जबकि उनके मौजूदा पूर्वाग्रह उन्हें प्रभावित करते हैं,” उन्होंने कहा। “ऐसे लोग हैं जो इससे लाभ उठाने को तैयार हैं।”
ऑल्ट न्यूज ने पहचान की है कि वीडियो निजामुद्दीन का नहीं है और इसे पाकिस्तान से किसी यूजर ने सूफी संप्रदाय पर पागलपन का आरोप लगाते हुए साझा किया था।
30 मार्च को रिपब्लिक टीवी ने दस मिनट की ऑडियो रिकॉर्डिंग के साथ एक वीडियो प्रसारित किया जिसमें उसने दावा किया कि वह तबलीगी जमात मंडली के एक मुस्लिम धर्मगुरु से संबंधित है।
इस क्लिप को तेलुगु में एक गलत अनुवाद के साथ व्यापक रूप से साझा किया गया था जिसमें लिखा था, “लॉकडाउन को हराएं और बाहर आएं। यदि हम इस बीमारी को 70000 लोगों तक फैलाते हैं तो भारत नष्ट हो जाएगा। यह हमारे नियंत्रण में आ जाएगा।”।
कोवा के संस्थापक मजहर हुसैन ने व्हाट्सएप पर एक और पुराना वीडियो पाया,जिसमें बड़ी संख्या में नमाज से पहले मुसलमानों को पानी की टंकी के पास खुद को साफ करते हुए दिखाया गया है। नदीम नाम के एक यूजर ने तर्क दिया कि इस वीडियो की 2018 में रायविंड इज्तेमा-पाकिस्तान में आयोजित एक धार्मिक सभा के होने की सबसे अधिक संभावना है।
उन्होंने अपने दावे को साबित करने के लिए मैसेज टीवी नामक एक स्थानीय टीवी चैनल का स्क्रीनशॉट साझा किया। यह वीडियो स्पष्ट रूप से इस गलत सूचना को फैलाने की कोशिश करते हैं कि मुसलमान लॉकडाउन को ठेंगा दिखा रहे हैं।
इस तरह की गलत सूचना न केवल सोशल-मीडिया यूजरों द्वारा प्रसारित की गई, बल्कि कुछ टेलीविजन चैनलों द्वारा भी प्रसारित की गई है। कन्नड़ चैनल पब्लिक टीवी में 14 मार्च को प्रसारित एक सेगमेंट में गलत दावा किया गया कि कर्नाटक के भटकल के चार मुस्लिम युवाओं ने दुबई से लौटने पर “धार्मिक कारणों” से मेडिकल स्क्रीनिंग कराने से इनकार कर दिया।
ऑल्ट न्यूज ने जिला अधिकारियों के साथ चैनल के इस दावे को क्रॉस-चेक किया और पता चला कि ऐसी कोई घटना नहीं हुई है। चैनल ने अपना प्रसारण पूरी तरह से एक स्थानीय व्यक्ति के बयान पर आधारित किया था। पब्लिक टीवी के प्रसारण पर अपनी रिपोर्ट में, ऑल्ट न्यूज ने कहा कि “धार्मिक” रंग देने में एंकर का हाथ था।
ऑल्ट न्यूज के संस्थापक प्रतीक सिन्हा ने बताया, “इसका कारण यह है कि गलत सूचना को बहुत आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है क्योंकि समाज में बहुत अधिक ध्रुवीकरण है।” सिन्हा इस बात पर सहमत थे कि निजामुद्दीन घटना को मुख्यधारा के मीडिया द्वारा कवर किए जाने से पहले कोविड-19 के बारे में फैली गलत सूचनाओं का स्वर धार्मिक नहीं था।
उन्होंने कहा कि जब लोगों को ध्रुवीकरण करने का अवसर दिया जाता है, तो इसका उपयोग उन लोगों द्वारा आसानी से किया जाता है। सिन्हा ने कहा कि फर्जी सूचनाओं की पहचान करने में सक्षम होना अक्सर इस बात से संबंधित होता है कि आप इससे कैसे प्रभावित होते हैं।
“जिन लोगों को निशाना बनाया गया है, वे अधिक आलोचनात्क होंगे,” उन्होंने कहा कि फर्जी जानकारी से फायदा उठाने वाले अक्सर इसे प्रोत्साहित करते हैं या निष्क्रिय बने रहते हैं ताकी इससे जो नुकसान हो सकता है वह हो जाएँ।
कई सारे ऐसे वीडियो भी सामने आए हैं जो फर्जी नहीं हो सकते हैं लेकिन लॉकडाउन को एक सांप्र!दायिक एंगल देने का प्रयास करते हैं। हुसैन को 24 मार्च का एक वीडियो मिला जिसमें मुसलमानों को दो अलग-अलग मस्जिदों में नमाज अदा करते हुए दिखाया गया है।
जबकि सड़कें सुनसान हैं। वीडियो पर चल रही टिप्पणी में, इसे शूट करने वाले व्यक्ति ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की आलोचना करते हुए कहा कि “धारा 144 लागू होने पर भी मुसलमानों पर नरमी बरती जा रही है।” उस व्यक्ति ने कहा कि अगर यह लोग मंदिरों में प्रार्थना करने वाले हिंदू होते तो सरकार उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करती।
28 मार्च को मेघालय के राज्यपाल तथागत रॉय ने एक भीड़भाड़ वाली सड़क की तस्वीरों रीट्वीट करते हुए फोटो के साथ लिखा, “आज कोलकाता के मेटियाब्रुज में लॉकडाउन देखें।” तस्वीर के साथ उन्होंने ट्वीट किया, “सरकारी राहत केवल उन लोगों को दी जानी चाहिए जो लॉकडाउन के नियमों का पालन करते हैं।
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जो लोग नहीं करते हैं उन्हें सरकार से लाभ, राहत और (चिकित्सा) उपचार नहीं मिलेगा।” ऑल्ट न्यूज ने बाद में यह साबित कर दिया कि एक तस्वीर पाकिस्तान के रावलपिंडी की थी।
ऑल्ट न्यूज की रिपोर्ट में कहा गया है कि तस्वीरों का उपयोग इस झूठे दावे को प्रसारित करने के लिए किया जा रहा था कि लोग, खासकर मुसलमान लॉकडाउन का उल्लंघन कर रहे हैं। रॉय ने बाद में अपना ट्वीट हटा लिया।
इस तरह के झूठे वीडियो द्वारा बनाई गई इस्ला!मोफोबिक हिस्टीरिया #CoronaJihad जैसे ट्विटर हैशटैग में भी स्पष्ट है जो 1 अप्रैल को ट्रेंड हुआ था। उयल्ला ने मुझे बताया कि वह मुसलमानों और कोरोना वायरस के बारे में पोस्ट की गई फर्जी सूचनाओं की समस्या झेल रहे हैं।
उन्होंने कहा कि बहुत कुछ अनौपचारिक समूहों में पोस्ट किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि मुसलमानों को निशाना बनाने वाली फर्जी खबरें वायरस से भी ज्यादा तेजी से फैल रही हैं,जो समाज और देश के लिए खतरनाक साबित हो सकती हैं।