जोशीमठ में प्राकृतिक त्रासदी को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के लिए हस्तक्षेप की मांग करते हुए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में डाली गई।
हालांकि अदालत ने इस पर तत्काल सुनवाई से इनकार करते हुए कहा कि हर जरूरी चीज सीधे न्यायालय के पास नहीं आनी चाहिए। पीठ ने स्पष्ट कहा कि इस पर गौर करने के लिए लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित संस्थाएं हैं। दरअसल, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि यह घटना बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के कारण हुई है
उन्होंने उत्तराखंड के लोगों के लिए तत्काल वित्तीय सहायता और मुआवजे की मांग की। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका और अदालत की टिप्पणी के आईने में देखें तो विधायिका और नौकरशाही बनाम लोकहित के कई मुद्दे उठ खड़े हुए हैं। इसमें दो राय नहीं कि लोकतंत्र की मूल भावना, परंपरा और मर्म को लोकतांत्रिक संस्थाएं ही जिंदा रखती हैं, दीर्घजीवी और लोकतंत्र की जड़ें गहरी बनाती हैं।
इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड में जोशीमठ में खड़े हो रहे व्यापक प्राकृतिक आपदा के मद्देनजर वहां के लोगों की मुश्किलों को समझा जा सकता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर जिस तरह का संकट पैदा हुआ है, उसमें प्राथमिक स्तर पर वहां की सरकार और संबंधित विभागों की जिम्मेदारी बनती है कि वे इसका तात्कालिक और दीर्घकालिक समाधान निकालें। दूसरी ओर, आम जनता का भी यह हक है कि वह सबसे पहले स्थानीय स्तर पर उन संस्थाओं से अपनी जिम्मेदारी निभाने की मांग करें, जिन्हें लोकतंत्र में इसी काम के लिए बनाया गया है।
दरअसल, जोशीमठ त्रासदी ने लोकतंत्र के इन स्तंभों को लेकर जो सवाल खड़े किए हैं, उन्हें कुछ तथ्यों के आईने में समझने की जरूरत है। वहां भूस्खलन और धंसाव की समस्या को लेकर पिछले सैंतालीस वर्षों में कई अध्ययन कराए गए, लेकिन उनकी रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। वैज्ञानिकों ने हर बार आगाह किया, लेकिन इसके बाद भौगोलिक-तकनीकी अध्ययन कराने की ओर से आंखें फेर ली गई।
उपचारात्मक कार्य नहीं हो पाए और आज स्थिति सबके सामने है। पुराने भूस्खलन क्षेत्र में बसे जोशीमठ में पूर्व में अलकनंदा नदी की बाढ़ से भूकटाव हुआ था। साथ ही घरों में दरारें भी पड़ी थीं। वर्ष 1976 से लेकर 2022 तक की अनेक अध्ययनों की संस्तुतियों में जोशीमठ क्षेत्र का भूगर्भीय सर्वेक्षण, भूमि की पकड़, धारण क्षमता, पानी के रिसाव के कारण समेत कई अध्ययन कराने की जरूरत बनाई गई।
वैज्ञानिकों के अनुसार जोशीमठ सिस्मिक जोन पांच में आता है और भूकंप व भूस्खलन की दृष्टि से काफी संवेदनशील स्थान है। इन तथ्यों को लेकर राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एनटीपीसी) की तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजना और हेलंग बाईपास का निर्माण कार्य को लेकर सवाल उठते रहे।
अब जबकि जोशीमठ में पानी सिर से ऊपर बहने लगा है और हाल में वैज्ञानिकों के दल ने दोबारा सर्वेक्षण कर अपनी रिपोर्ट शासन को सौंपी है, तब जाकर सरकार की नींद टूटी है। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में इस संकट को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग करते हुए कहा गया है कि ‘मानव जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र की कीमत पर कोई भी विकास नहीं होना चाहिए।
अगर किसी भी स्तर पर ऐसा होता है तो फिर राज्य और केंद्र सरकार को इसे तत्काल रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए।’ यह तर्क विधायिका और कार्यपालिका के रुख पर सवाल उठाता है। हालांकि जब विधायिका और कार्यपालिका अपना काम ठीक से न करें तो अदालत का आसरा होता है। लेकिन तथ्य यह भी है कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में एक व्यापक संस्थागत ढांचा बना हुआ है। इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं संस्थाओं की प्रासंगिकता की ओर ध्यान दिलाया है।