वर्ष 1990 से 2020 तक का कालखण्ड मनुष्यता के इतिहास का एक विचित्र दौर रहा है। यह एक लम्बा शांतिकाल रहा, जिसने सुख, अधिकार-बोध और उपभोग की बेमाप लिप्साओं और भुलावों को जन्म दिया। चूँकि यह हमारा निकट-इतिहास है, इसलिए इसने हमसे यह परिप्रेक्ष्य छीन लिया कि अतीत में पृथ्वी पर मनुष्यों का जीवन कैसा था! जो इसी कालखण्ड में जन्मे और पले-बढ़े, उनका तो इतिहास से सम्पर्क कट ही गया। जबकि वास्तविकता यह है कि पृथ्वी पर मनुष्यता का सुदीर्घ इतिहास एक अनवरत मृत्युबोध से भरा हुआ है।
पृथ्वी पर पाँच बार महाप्रलय हो चुकी है, उसकी संचित-स्मृति मनुष्यों के भीतर कहीं ना कहीं दबी होगी। आदिम मानव पशुवत था और ख़ून की क़ीमत पानी से कम थी। यह नस्ली और क़बीलाई हिंसा और रक्तपातों का लम्बा सिलसिला है। जब साम्राज्य बने तो हमने क्रूर और उदासीन नृपेन्द्रों की स्वेच्छाचारिताओं को झेला। मध्ययुग में तो जीवित रहना ही दु:साध्य था। महामारियों का बोलबाला था और प्लेग फैलने पर रोगी के परिजन ही उसे ठेले पर लादकर नगर से दूर मरने को छोड़ आते।
ऐसा नहीं कि उन्हें अपने प्रियजनों से प्रेम नहीं था, किंतु त्रासदियाँ इतनी विराट, अवश्यम्भावी और सर्वव्यापी थीं कि मनुष्यों ने इसे स्वीकार कर लिया था। चिकित्सा-विज्ञान अपने शैशव में था और बड़े-बड़े सम्राट तलवार के एक मामूली-से घाव से गैंग्रीन के कारण मर जाते। समुद्री-यात्री स्कर्वी से खेत रहते। शहरातियों को सिफ़लिस होती ही रहती। हैजा-चेचक फूटते रहते। अकाल में लोग कंकाल होकर मरते। प्राकृतिक आपदाएँ सर्वत्र थीं। एक रात अचानक विसुवियस ज्वालामुखी फटता और पोम्पेई की रंगशाला राख का ढेर बन जाती।
हम आज इक्कीसवीं सदी की पहली चौथाई में हैं और हम पहले ही भुला चुके हैं कि बीसवीं सदी में मनुष्य का मृत्युबोध और सार्वभौमिक-नैराश्य अपने चरम पर पहुँच गया था। यह युद्धों, विप्लवों, सर्वनाश और नरसंहारों की सदी थी। इसमें दो विश्वयुद्ध हुए, भीषण होलोकॉस्टों को अंजाम दिया गया, स्कूल जा रहे बच्चों के सिर पर एटम बम गिराए गए। शीतयुद्ध शुरू हुआ तो पूरी दुनिया दो महाशक्तियों के श्रेष्ठताबोध की बंधक बन गई।
एटमी लड़ाई अब हुई, तब हुई का आलम था। जिस दिन क्यूबा ने अपनी एटमी मिसाइल का रुख़ फ़्लोरिडा की ओर किया, उस दिन सबों ने मान लिया कि यह अंतिम दिन है। उस ज़माने में बनाई जाने वाली फ़िल्में और लिखी गई कविताएं-उपन्यास एक आसन्न सर्वनाश के अंदेशे से भरी हुई हैं और यह ज़्यादा नहीं महज़ साठ-सत्तर साल पुरानी बात है। अंद्रेई तारकोव्स्की की फ़िल्म सैक्रिफ़ाइस याद कीजिये, शायद मनुष्यता कल का दिन देखने को जीवित नहीं रहे, इसी आदिम भय ने उस फ़िल्म को अपनी गिरफ़्त में लिया हुआ है। युद्धोत्तर यूरोप का समूचा भावबोध एब्सर्डिटी और अवसाद से भरा है।
और तब, 1990 का नियति द्वारा चुना गया साल आया। सोवियत-विघटन ने शीतयुद्ध के अंत की उद्घोषणा की। पूँजीवाद और उपभोक्तावाद ने विजय-पताका फहराई। भूमण्डलीकरण ने पाँव पसारे। पहले सैटेलाइट टीवी और फिर इंटरनेट ने एक आभासी-यथार्थ रचा और मनुष्य का वास्तविकता से सम्पर्क ही कट गया। मनोरंजन सबसे बुनियादी ज़रूरत मान ली गई! दुनिया एक अजीब तरह का जलसाघर बन गई- चौबीसों घंटे हंसी-ठिठोली, मसखरी, नंगई और नाच-गाने से भरी हुई। एक महामारी ने अब जाकर उसे झकझोरा है। क्या वह होश में आएगा?
यूनिवर्स के पर्सपेक्टिव से सोचें तो पृथ्वी पर जीवन का उदय एक ऐसा अचम्भा है, जिसकी कोई दूसरी मिसाल अभी तक ज्ञात-ब्रह्मांड में नहीं मिली है। एक यूनिसेलर-माइक्रोऑर्गेनिज़्म तक के अवशेष की तलाश में मनुष्य सौरमण्डल के ग्रहों-उपग्रहों की ख़ाक़ छानता रहता है- मून, वीनस, मार्स, यूरोपा, टाइटन पर अपने अंतरिक्षयान भेजता है, लेकिन मजाल है जो एक सुराग़ मिल जाए। फिर पृथ्वी पर तो मल्टीसेलर कॉम्प्लेक्स ऑर्गेनिज़्म का विस्फोट हुआ है।
रिचर्ड डॉकिन्स ने इसी बायोडायवर्सिटी को द ग्रेटेस्ट शो ऑन अर्थ कहा है। जीवन ने असंख्य रूपों में यहाँ स्वयं को व्यक्त किया है। उसमें भी प्राणियों में और सबसे बढ़कर मनुष्य में चेतना और प्रज्ञान का विकास एक ऐसी गुत्थी है, जिसे एवॅल्यूशन भी सुलझा नहीं पाई है। किंतु जो चीज़ इतनी असम्भव और दुर्लभ हो, वह कितनी निष्कवच होगी, इसकी कल्पना भी सहज ही की जा सकती है।
मनुष्य ने अपने सुख, सुविधा, अनवरत-वर्तमान और लगभग अमरत्व को पहले कभी ऐसे टेकन-फ़ॉर-ग्रांटेड नहीं लिया था, जैसे 1990-2020 के इन तीस सालों में लिया। शांतिकाल ने आपदा को झेलने के स्नायुतंत्रों को शिथिल कर दिया। ये साल मनुष्यता के इतिहास का एक विचित्र अपवाद हैं। एक महामारी ने डिफ़ॉल्ट-सेटिंग्स को फिर से बहाल करने की छोटी-सी कोशिश की है। अपनी नश्वरता की समूची चेतना भी मनुष्य की जीवेषणा को लेशमात्र भी कम नहीं कर सकती, किंतु वह इतना तो कर ही सकती है कि उसे भ्रमों, परिकल्पनाओं, व्यामोहों और भुलावों के प्रति सजग रखे।
अब क्या इसकी भी व्याख्या करने की ज़रूरत है कि ये भ्रम, परिकल्पनाएँ, व्यामोह और भुलावे कौन-से हैं? ये हमारे आसपास सर्वत्र व्याप्त हैं, बस आँख खोलकर देखने की ज़रूरत है। पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन सदैव से ही आदिम, क्रूर, असम्भव और कष्टप्रद रहा है, ब्रह्मांड इसको लेकर पूरी तरह से तटस्थ और उदासीन है और मनुष्य के द्वारा रचे गए सबसे बड़े झूठ ईश्वर का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। तूफ़ानों से भरे इस महासमुद्र में मनुष्य के पास केवल एक ही पतवार है- उसकी सहज बुद्धि, उसकी समुदाय-भावना और उसकी जिजीविषा। एक हज़ार साल पहले भी उसके पास यही एक पतवार थी, एक लाख साल पहले भी, और आज भी उसके पास बस यही एक आशा है।
सुशोभित