चंडीगढ़ की सीमा पर हिंसक भीड़ द्वारा पुलिसकर्मियों पर जो घातक हमला किया। गया, वह दुर्भाग्यपूर्ण ही है। कुछ बंदियों की रिहाई के लिये मुख्यमंत्री आवास घेरने जा रहे लोगों को रोकने के बाद जो अराजक दृश्य देखे गये, वे कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिये बड़ी चुनौती पैदा करते हैं।
पुलिसकर्मियों पर तलवारों से हमला, कर्मियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटना और गाड़ियों को तोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण ही है। दुखद यह है कि महिला पुलिसकर्मियों को भी नहीं बख्शा गया। नौकरशाहों व शांत तथा प्रबुद्ध लोगों के शहर में इस तरह की घटना विचलित करने वाली है। अपनी समृद्ध विरासत और प्रगतिशील परंपरा के लिये पहचाने जाने वाले सिटी ब्यूटीफुल की पुलिस को कमोबेश सभ्य सहज व्यवहार करने के लिये जाना जाता है। विडंबना यह है कि यहां की पुलिस व प्रशासन को दो प्रदेशों की राजधानी होने की कीमत चुकानी होती है। इसे उन विवादों की आंच में झुलसना पड़ता है, जो मूल रूप से पंजाब व हरियाणा से जुड़े होते हैं। निस्संदेह, हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की आजादी है।
उसे हक है कि वह अपनी बात को रखे, लेकिन उसका आंदोलन मर्यादित होना भी जरूरी है ताकि अन्य लोगों की अभिव्यक्ति व जीने के अधिकार का अतिक्रमण न हो। उल्लेखनीय है कि चंडीगढ़ के पुलिस-प्रशासन ने शहर के नागरिकों को आये दिन होने वाले आंदोलन से अप्रभावित रखने तथा नियमों के सांचे में ढली यातायात व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये सेक्टर 25 में अलग आंदोलन स्थल की व्यवस्था की है, लेकिन कतिपय उग्र सोच के लोग सड़कों पर आंदोलन करने लग जाते हैं ताकि लोगों का ध्यान खींच कर सुर्खियों में बना रहा जाये।
कुछ ऐसा ही घटनाक्रम किसान आंदोलन के दौरान देखा गया था, जिसकी तपिश दिल्ली व लाल किले तक महसूस हुई थी। चंडीगढ़ में पुलिसकर्मियों के साथ जो दुव्यवहार व हिंसा हुई वह बताता है कि देश के अन्य भागों में पुलिस क्यों ऐसे मामलों में आक्रामक और प्रतिकारी बन जाती है।
दरअसल, पंजाब में राजनीतिक हिंसा व धर्म विशेष को लेकर होने वाले आंदोलनों के बारे में आम धारणा रही है कि पंजाब में जब भी धार्मिक संगठनों में पैठ रखने वाला एक राजनीतिक दल सत्ता से बाहर होता है, तब-तब ऐसे उग्र सोच के लोग पुलिस व प्रशासन को चुनौती देते नजर आते हैं। ऐसा विगत में भी खूब होता है।
विडंबना यह है कि समाज में बेरोजगार युवा इस अभियान के साथ जुड़ जाते हैं, जिनका इस्तेमाल आतिवादी घटनाओं को अंजाम देने में किया जाता है। इस तरह के घटनाक्रमों से चंडीगढ़ व पंजाब की शांति भंग होती है और कानून व्यवस्था का संकट पैदा होता है। कहीं न कहीं ये घटनाक्रम राजनीति व धर्म के घालमेल के खतरों की ओर भी इशारा करता है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1985 में चंडीगढ़ में ऐसे ही घटनाक्रम के दौरान विरोध करने वाले लोग हिंसक हो गये थे और पुलिस को मजबूरन गोली चलानी पड़ी थी।
पंजाब विधानसभा का घेराव करने जा रहे आंदोलनकारियों व पुलिस के बीच एमएलए होस्टल के निकट हिंसक संघर्ष हुआ था, जिसमें तीन लोगों की मृत्यु हो गई थी। बुधवार के घटनाक्रम में भी यही स्थितियां पैदा हो सकती थीं, यदि पुलिस संयम का परिचय नहीं देती। लेकिन इसका खमियाजा चंडीगढ़ पुलिस को अपने दो दर्जन कर्मियों के घायल होने के रूप में चुकाना पड़ा।
निस्संदेह, ये अप्रिय स्थितियां अस्वीकार्य हैं और चंडीगढ़ के पुलिस प्रशासन को भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिये कारगर रणनीति बनानी होगी। कई बार कुछ मामलों में प्रशासन व सरकार विशेष से जुड़े लोग वाजिब मुद्दों की अनदेखी करते हैं, जिससे आंदोलित वर्ग के लोगों में हताशा व आक्रोश जन्म लेता है।
यदि समय रहते इस प्रेशर को नियंत्रित कर लिया जाये तो हिंसा की घटनाओं को टाला जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे चरमपंथी आंदोलनों की पंजाब ने बड़ी कीमत चुकाई है। यदि देश व विदेश में बैठे चंद भ्रमित लोग निहित स्वार्थों के लिये हिंसक घटनाक्रम के लिये उकसाते हैं तो पंजाब को कालांतर में फिर इस त्रासदी का सामना करना पड़ेगा।