हज दरहकीकत खुदा के सामने उस सर जमीन में हाजिर होकर जहां नबियो, रसूलों, और नेक लोगों ने हाजिर होकर अपनेअल्लाह/ ईश, की, आज्ञा पालन का अतराफ किया अपने आज्ञा पालन का प्रण, और इन स्थानों में खड़े होकर और चलकर खुदा के सम्मुख अपने पापों से तौबा करना और अपने पालनकर्ता अल्लाह /प्रभु का मानना है ताकि वह हमारी ओर उन्मुख होने के लिए हर समय तैयार रहे। यह करुणा, दय, रहमत, का सागर है।
यही कारण है कि पैगंबर ए इस्लाम मोहम्मद सल्ल0 ने फरमाया कि हज और उमरा, गुनाहों से इस तरह साफ कर देता है जिस तरह भट्टी लोहे सोने चांदी के मैलखोर को साफ कर देती है। जो मोमिन इस दिन को (यानी अरफे के दिन) अहराम की हालत में गुजरता है।उसका सूरज डूबता है तो,उसके गुनाहों को लेकर डूबता है।
यह भी पढ़ें– दो सालों में 25 हजार से अधिक युवाओं ने की आत्महत्या, बेरोजगारी की समस्या भयावहः वरुण गांधी
हजरत आयशा रजी0 से रिवायत है कि मोहम्मद स0 ने यह सूचना दी है कि अरफे के दिन, अल्लाह अपने बंदों से करीब होकर जंबगार होता है , और अपने बंदों पर फरिश्तों के सामने आकर फख्र करता है। और कहता है कि उन्होंने मांगा हमने कुबूल किया, बहुत सी ऐसी हदीस है। जिनमे निष्ठा पूर्ण हज अदा करने वालों को रहमत, व मगफिरत (मोक्ष मुक्ति) की शुभ सूचना सुनाई गई है।
तमाम शुभ सूचनाओं से साबित होता है कि हज दरहकीकत तौबा और इनाबत( पश्चाताप, प्रायश्चित ) है। तवाफ में, सईद में, सफा पहाड़ पर, मुजदलफा में, अरफात में, मीना में, हर जगह जो दुआए मांगी जाती है। उनका बड़ा हिस्सा तौबा और इस्तगफार का होता है। यद्यपि तौबा से हर जगह गुनाह माफ हो जाते है। इसलिए मरवा और अरफात की कोई शर्त नहीं लेकिन हज के प्रत्येक स्थल और अनुष्ठान अपने विभिन्न प्रभावों के कारण जो यहां के सिवाय अन्य जगह उपलब्ध नहीं है सच्ची तोबा के लिए बेहतर अवसर प्रदान करते हैं।
जहां हजरत आदम अलैहिस्सलाम और हजरत अम्मा हव्वा अले0 ने अपने गुनाहों की माफी की दुआ की थी। हजरत इब्राहिम अले0 ने अपनी और अपनी औलाद के लिए दुआएं मांगी, जहां हजरत हुद अले0 हजरत सवालेह अले0 ने अपनी कौम की तबाही के बाद अपनी पनाह ढूंढी । जहां हजरत मोहम्मद स0 ने खड़े होकर अपनी और अपनी उम्मत के लिए दुआएं मांगी ।
कही स्थल, कही प्रतीक,और दुआओं के लिए वही अरकान, हम गुनाहगारों की दुआएं, ओर मगफिरत के कितने अनुकूल हैं । जहां नबियो पर बरकते और रहमते नाजिल हुई। वह माहौल , वह फिज़ा, व तमाम गुनाहगारो का एक जगह जमा होकर, दुआ, समर्पण,कदम बा कदम आध्यात्मिक अवलोकन, दुआऔर उसके असरात/प्रभाव, और इसके कुबूल होने का बेहतरीन अवसर है ।
पत्थर से पत्थर दिल भी इन हालात और इन अवलोकनो के बीच मोम बनने के लिए तैयार हो जाते हैं। और इंसान जब इस अब्रे करम/ करुणा वर्षा,की छींटो से स्येराब हो जाता है, जो अल्लाह के नेक बंदो पर अर्शे इलाही से बरसता है। मानव मनोविज्ञान यह है और दैनिक अनुभव इसका साक्षी है, कि इंसान अपनी जिंदगी में किसी व्यापक एवं महत्वपूर्ण परिवर्तन के लिए हमेशा जिंदगी के किसी मोड़ पर और सीमा रेखा की तलाश करता है जहां पहुंचकर उसकी पिछली और आइंदा जिंदगी के दो विशिष्ट हिस्से पैदा हो जाए।
इसलिए लोग अपने परिवर्तन के लिए जाड़ा/ सर्दी,गर्मी या बरसात का इंतजार करते हैं ।बहुत से लोग शादी के बाद या संतान प्राप्ति के बाद या शिक्षा ग्रहण के बाद , किसी सर्विस या किसी बड़ी कामयाबी या किसी खास मकसद, किसी यात्रा के बाद या किसी के मुरीद /शिष्य हो जाने के बाद बदल /परिवर्तित हो जाते हैं । या अपने को बदल लेने पर समर्थ हो जाते हैं ।
क्योंकि यह उनकी जिंदगी की महत्वपूर्ण घटनाएं उनकी अगली और पिछली जिंदगी में विभेद रेखा डाल देती है। जहां से इधर या उधर मुड़ जाना संभव हो जाता है। हज दरहकीकत इसी तरह इंसानी जिंदगी की पिछली और आगामी जिंदगी के बीच एक सीमा रेखा का काम करती है।
सुधार एवं परिवर्तन की ओर अपनी जिंदगी के बदल देने का अवसर प्रदान करती है ।जीवन का बीता अध्याय खत्म होकर उसका नवीन अध्याय खुल जाता है । बल्कि यूं कहना चाहिए इसके बाद अपने नए आमाल/ कर्मों के लिए नए सिरे से पैदा होता है।
इसलिए पैगंबर मोहम्मद साहब ने फरमाया जिसने खुदा के लिए हज किया और उसमें वासना पूर्ति नहीं की और ना कोई गुनाह किया तो वह ऐसा होकर लौटता है जैसे उस दिन था, जिस दिन उसकी मां ने उसे जन्म दिया। अर्थात एक नया जीवन शुरु करता है। जिसमें दीन व दुनिया दोनों जहां की भलाइयां और दोनों की कामयाबिया शामिल होगी ।
इब्राहिमी मिल्लत की असल बुनियाद कुर्बानी थी, और यही कुर्बानी हजरत इब्राहिम अलेहि0 की पैगंबराना और रूहानी जिंदगी की विशिष्टता थी । और इसी परीक्षा में उतरने के कारण वे और उनकी औलाद हर किस्म की नेमतो से मालामाल की गई। लेकिन यह कुर्बानी क्या थी। यह महज़ खून और गोश्त की कुर्बानी न थी, बल्कि रूह और दिल की कुर्बानी , यह अपने प्रियतम को/अल्लाह को समर्पित कर देना था ।
यह भी पढ़ें ऑस्ट्रेलिया में तेजी से बढ़ रही हिंदुओं की आबादी, 50% से भी कम हुए ईसाई; जानें मुस्लिमों के भी हाल
यह अल्लाह की इताअत, आज्ञा पालन, भक्ति, समर्पण, कामिल बंदगी का बेमिसाल मंजर था, यह समर्पण, शुक्र और सब्र,की वह परीक्षा थी, जिसे पूरा किए बगैर दुनिया की पेशवाई, और आखिरत की नेकी नहीं मिल सकती।
यह बाप का अपने इकलौते बेटे के खून से जमीन को रंगीन कर देना न था, बल्कि खुदा के सामने अपनी तमाम भावनाओं, इच्छाओं, अभिलाषाओं, को कुर्बान/ बलिदान करना था, और खुदा के सामने अपने हर किस्म के इरादे और मर्जी को खत्म कर देना था । वास्तव में यही है कि हज एवम ईद उल अजहा, तथा खुदा की इताअत, आज्ञा पालन , समर्पण, कामिल बंदगी का बेमिसाल मंजर, आलम ए इंसान के लिए ता कयामत तक एक अहम सबक है।
