भाजपा नेता तजिन्दरपाल सिंह की गिरफ्तारी और हरियाणा में उन्हें रोका जाना तथा दिल्ली पुलिस द्वारा छुड़ा लिया जाना देश में डबल इंजन वाली सरकार की जरूरत (या उससे हो सकने वाले खतरे) का जीता जागता उदाहरण है। मेरे पांच प्रमुख अंग्रेजी अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर तो है लेकिन शीर्षक में संपादकों का खेल या उनकी प्रतिभा का जो प्रदर्शन हुआ है वह समझने और रेखांकित करने लायक है। आप भी देखिए।
- इंडियन एक्सप्रेस में चार कॉलम लीड, फ्लैग शीर्षक के साथ दो लाइन का मुख्य शीर्षक है, हाईवे ड्रामा : हरियाणा ने पंजाब को रोका दिल्ली (के) भाजपा नेता को आजाद कराया। फ्लैग शीर्षक है, तीन राज्यों की पुलिस ने गिरफ्तारी को लेकर एक-दूसरे पर आरोप लगाए। (इसमें ड्रामा हाईवे पर हुआ या पुलिस ने किया या पुलिसियों से करवाया गया। शीर्षक क्या होना चाहिए था?)
- हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर खबरों के पहले पन्ने पर नहीं है। दो पन्नों पर जैकेट नुमा विज्ञापन के बाद पहले पन्ने से पहले वाले अधपन्ने पर यह खबर सबसे ऊपर है। तीन कॉलम की इस खबर का शीर्षक दो लाइन में है। सीधा-सरल – भाजपा नेता की गिरफ्तारी पर तीन राज्यों की पुलिस में टकराव।
- द हिन्दू में यह खबर चार कॉलम में लीड है। शीर्षक दो लाइन में है और एक उपशीर्षक भी है। यह बग्गा जी एक तस्वीर भी है जबकि इससे पहले के दो अखबारों ने पहले पन्ने पर उनकी तस्वीर नहीं छापी है। शीर्षक हिन्दी में होता तो कुछ इस प्रकार होता, पंजाब पुलिस द्वारा दिल्ली भाजपा नेता बग्गा की गिरफ्तारी से शुरू हुआ नाटक। हरियाणा पुलिस ने उन्हें रोका, दिल्ली वाले उन्हें वापस राजधानी ले आए। (केंद्र सरकार के परम प्रिय आईपीएस राकेश अस्थाना की पुलिस ने अपने आका के आका की पार्टी के बड़बोले प्रवक्ता की यह सेवा की – इसे इससे पहले के अखबारों ने प्रमुखता से नहीं बताया गया है।)
- टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर लीड नहीं है। लीड के साथ टॉप पर है। तीन कॉलम की इस खबर का शीर्षक तीन लाइन में है। पुलिस बनाम : पुलिस भाजपा के बग्गा को पंजाब पुलिस ने गिरफ्तार किया, हरियाणा में रोका गया दिल्ली वापस लाया गया। इसके साथ एक खबर में बताया गया है कि बग्गा के पिता ने अपहरण की शिकायत दर्ज करवाई थी तो पीछा करने की शुरुआत हुई। (इस खबर और इस कार्रवाई के मद्देनजर यह बताया जाना जरूरी है कि गए साल 6 मई को इलाहाबाद यानी प्रयागराज के टीबी सप्रू अस्पताल में दाखिल कराए गए 82 साल के राम लाल यादव आठ मई को ट्रॉमा सेंटर में दाखिल कराए जाने के बाद से लापता हैं। उस समय उनका ऑक्सीजन लेवल कम था। एक साल में पुलिस उन्हें नहीं ढूंढ़ पाई है और कल सुप्रीम कोर्ट में इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकारी को अच्छी फटकार लगी। खबर कहां छपी है और कैसे छपी है आप देखिए। आज तो बग्गा जी छाए हुए हैं। मैंने यह खबर द टेलीग्राफ में पढ़ी।)
- द टेलीग्राफ में भी बग्गा जी का यह मामला पहले पन्ने पर लीड है। चार कॉलम की इस खबर का शीर्षक दो लाइन में है, पुलिसिया ‘सैनिकों’ का खंडित भारत। इसके साथ एक बॉक्स है – पंजाब, केंद्र हरियाणा : क्या हुआ? (या जो हुआ) इसमें क्रम से बताया गया है कि क्या हुआ। कहने की जरूरत नहीं है कि इसे पढ़कर लगता है कि अगली दफा जरूरत हुई तो भारी बहुमत वाली ‘मजबूत’ केंद्र सरकार बंगलौर से किसी बच्ची को तो उठवा लेगी पर अपने समर्थक को दिल्ली से गिरफ्तार नहीं करने देगी। अपने किसी अन्य बग्गा की ‘रक्षा’ में सीआरपीएफ को भी उतार सकती है। देखते रहिए – बहुमत का ऐसा खेला भारत में कभी नहीं देखा गया था।
निश्चित रूप से यह सब संपादकीय विवेक का मामला है लेकिन पत्रकारिता को जब पक्षकारिता बना दिया गया है तो देखना पड़ेगा कि कौन क्या कर रहा है। इससे आप समझ सकेंगे कि यह सब अपने आप हो रहा है या किया-करवाया जा रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे कोविड में मरने वालों की संख्या को लेकर डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट दब गई। उसका कोई फॉलोअप नहीं है। भारत सरकार ने भले ही उसे टाल दिया है पर जब जरूरत थी तो कुछ ही समय पहले यह प्रचारित किया गया था कि डॉ. हर्षवर्धन भी उसमें हैं। मेरा वश चलता तो मैंने आज इसपर हर्षवर्धन और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री से बातचीत को लीड बनाया होता। नहीं बात करते तो यही बैनर हेडिंग होती। इसमें बताता कि उन्होंने दिन भर क्या किया। हालांकि, इसीलिए तो अपन संपादक नहीं हैं। पर वह अलग मुद्दा है।