मैं साल 2001 में ईरान के प्रांत बुशहर से लगभग 400 किलोमीटर दूर फारस की खाड़ी के तट पर एक गैस प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था। उस प्रोजेक्ट में इंस्ट्रूमेंट कमीशनिंग का चीफ इंजीनियर लगभग मेरी उम्र का एक कश्मीरी था। उसका नाम था अली मोहम्मद शाह। इंग्लिश और अरबी लैंग्वेज में कमांड था। फ़ारसी भी कुछ ठीक-ठाक बोल लेता था।
मुझ से उसकी पहली मुलाकात कंपनी के कैंटीन में हुई जहां नदीम इक़बाल और मैं डिनर एक साथ किया करते थे। मैं नदीम इक़बाल के साथ कैंटीन में खड़ा था और अली मोहम्मद शाह वहां पर खाना खा रहा था। अचानक दोनों की नजरें मिलीं साथ ही एक मुस्कराहट दोनों के लबों पर आई। मैंने उनके पास जाकर पूछा कि आप कहां से हो। उन्होंने कहा, “मैं जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग से हूँ और आप कहां से हैं?”
मैंने कहा, “बिहार के एक छोटे से जिले जमुई का हूँ।”
फिर मैंने उनसे पूछा, “आप इस प्रोजैक्ट पर कब आये? उनका जवाब था, “चार महीने पहले।” मैंने बताया, “मैं तो पिछले हफ्ते ही आया हूँ।” उन्होंने कहा, “पिछले एक हफ्ते से आपको कैंटीन में देखा नहीं।”
मैंने नदीम इक़बाल की तरफ इशारा करते हुए कहा, “रिश्ते में यह मेरा छोटा भाई है, मेरा खाना यह पैक करवा लेता है और हम दोनों इसी के रूम में बैठ कर लेट नाइट खाते हैं। मैं सुबह नाश्ता नहीं करता हूँ, इसलिए दोपहर में प्रोजेक्ट साइट पर ही कुछ खा लेता हूँ। मेरा प्रोजेक्ट मैनेजर कोरियाई है और मेरे लिए खाना लेकर आता है।”
उस दिन से दोनों की दोस्ती बहुत गहरी हो गई। प्रोजेक्ट पर शायद इतनी गहरी दोस्ती किसी और से नहीं हुई।
हम जिस वक़्त ईरान गए थे उस समय अफगानिस्तान में अमेरिका बमबारी कर रहा था। देश और दुनिया के हालात मुसलमानों के प्रति सबसे नफरत वाले दौर से गुजर रहे थे। मेरे साथ मेरा रूम पार्टनर एक गुजराती था। परमार टाइटल वाले उस गुजराती से भी मेरी खूब जमती थी। वह भी मेरा हमउम्र ही था लेकिन संघ का बड़ा समर्थक था।
मैंने संघ की किताबों को पढ़ा था लेकिन परमार ने न तो संघ की किताबों को पढ़ा था और न ही संघ को किताबों में पढ़ा था। उसने संघ को शिविरों में देखा था। उसके भीतर भारतीय मुसलमानों के प्रति नफरत बहुत भरी थी। तालिबान के बहाने इस्लाम और भारतीय मुसलमानों पर हमेशा हमले करता रहता था। मैं जब उससे डिबेट करता तो बोलता, “भाई हम तो जो देख रहे हैं, वही बोल रहे हैं।”
प्रोजेक्ट पर लगभग चालीस-पचास गुजराती थे और शाह भाई उन तमाम गुजरातियों की नजरों में बहुत खटकते थे।
कुछ महीनों बाद गुजरात में दंगे शुरू हो गये। इन गुजरातियों में एक ख़ुशी की लहर पैदा हो गई। उन्हें गुजरात के दंगे अच्छे लगने लगे। कांग्रेस नेता एहसान जाफरी की हत्या के बाद वे सब जश्न जैसे मूड में थे।
एक दिन ड्यूटी से वापस आने के बाद मैं और शाह भाई बाथरूम में नहा रहे थे। तभी अचानक हंगामा हो गया। हमारे रूम मेट परमार साहब ने बौखलाते हुए वाशरूम में आकर बौखलाहट में पूछा कि सिद्दीकी साहब आपका कश्मीरी दोस्त कहा है? मैंने जवाब में पूछा, “आप इतना परेशान क्यों हो परमार साहब?”
उन्होंने घबराहट में कहा, “हम गुजरातियों को बचा लीजिये। हम लोगों पर ईरानियों ने हमला कर दिया है। हमारे गाँव के कुछ लोग ईरानियों के कब्जे में हैं। अब हमें मार दिया जायेगा।”
परमार साहब की बातें दिल दहला देने वाली थीं। बड़ा आश्चर्य हो रहा था। मैं बदन पर साबुन लगाए हुए नहा रहा था। वाशरूम का दरवाजा बंद था। परमार साहब की आवाज हिचकिचाहट और डर से लड़खड़ा रही थी। शाह भाई ने नहाते हुए मुझे आवाज देकर कहा, “मुस्तकीम भाई, पानी डालिये और बाहर निकलिये। देखते हैं परमार साहब को क्या हुआ। चलिए , बाद में ठीक से नहा लेंगे।”
फिर 2-3 मिनट में हम दोनों वाशरूम से बाहर आ गए। कैंप की खाली जगहों पर भारी भीड़ थी। कैंप के बाहर ईरानी पुलिस और सैनिक भारी संख्या में तैनात थे। शायद इतनी पुलिस और सैनिक मैंने अपनी आँखों से पहली बार देखे थे।
कैंप के हजारों लोग कैंप के अंदर खड़े घबराहट में परेशान नजर आ रहे थे। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है? किसी को भी कैंप से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी।
शाह भाई ने मुझे कहा कि आप यहीं रुकिए। हालात संगीन लग रहे हैं।
मैंने कहा, “हम चंद लोग अपने गाँव और इलाके के हैं, आपके साथ चलते हैं, जो भी है देखते हैं, जो होगा बेहतर उपाय किया जाएगा।”
हम लोग शाह भाई के साथ कैंप के गेट के पास पहुंचे। वहां सिक्योरिटी वालों से मालूम किया कि मामला क्या है। पता चला कि गुजरात दंगे पर खुश होकर कुछ गुजरातियों ने ईरानियों को यह कह दिया कि देखो सुन्नी मुसलमानों को हम लोग गुजरात में कैसे काट रहे हैं। आप लोग खुश हैं न?
उनकी ऐसी बात सुनते ही ईरानियों ने अपने लोगो में यह संदेश फैला दिया कि गुजराती मुसलमानों के मारे जाने पर यहां ख़ुशी मनाई जा रही है।
उस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे लगभग 20 से 25 हजार ईरानियों में यह संदेश इतनी बुरी तरह फैला कि सारे ईरानियों में गुजरात दंगे का बदला लेने का जूनून सवार हो गया। वे गुजरातियों को ढूंढने लगे और देखते ही देखते मंजर भयावह हो गया।
इसी वजह से ईरानियों ने कैंप पर हमला बोल दिया। कई किलोमीटर तक बसों पर भरकर ईरानी प्रोजेक्ट कैंप में घुसने के प्रयास करते रहे। ईरानी पुलिस और सैनिक उन्हें रोकने की कोशिश करते लेकिन आक्रोशित ईरानी रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। बल्कि कई जगह ईरानियों और पुलिस में झड़प भी हो रही थी। माहौल पूरा दंगे जैसा बन गया था।
शाह भाई ने कैंप सिक्योरिटी अफसर से कहा कि ईरानियों के नेतृत्वकर्ताओं से मुझे मिलाओ, मैं उनसे बात करना चाहता हूँ। उन्होंने मना किया तो शाह भाई ने उन्हें जोर देकर कहा कि मेरे बात करने से मामला खत्म हो सकता है। मुझे यकीन है कि मैं बात कर उन लोगों को समझाने में कामयाब हो जाऊंगा। वरना हम लोगो के रहते किसी की जान चली जाए तो यह इंसानियत पर एक बड़ा जुल्म होगा।
कैंप के सिक्योरिटी वालों ने सैनिक अधिकारी को बुलाया। इसके बाद कुछ देर में ईरानियों के करीब पचास लोग आये।
मुझे अच्छी तरह याद है, शाह भाई ने उस दिन अंग्रेजी में एक अच्छी स्पीच की शक्ल में वार्ता की। शाह भाई ने अपनी बात इस तरह शुरू की—”मै कश्मीर से हूँ, एक मुसलमान हूँ, यूनिवर्सिटी टॉपर हूँ, इंजीनियर हूँ। मै दावे के साथ कहता हूँ कि इस प्रोजेक्ट पर सारे इंजीनियर मेरे संस्कार के सामने खड़े नहीं हो सकते। दुनिया का मुसलमान कश्मीरियों से मोहब्बत करता है। मैं कश्मीर के उस जिले से हूँ जहां पर बहुत जुल्म हुए हैं। मैंने अपना कम उम्र सगा छोटा भाई भारतीय फ़ौज के हाथों अपने घर से खोया है। उसे तड़पते हुए शहीद होते देखा है। फिर भी हमने हथियार नहीं उठाये। कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, गलत हो रहा है। जिसकी तरफ से भी हो रहा है, बहुत ही गलत हो रहा है। गलत को गलत से ठीक नहीं किया जा सकता। आप लोग गुजरात में सुन्नियों के क़त्ल-ए-आम की चर्चा को बर्दाश्त नहीं कर उसका बदला लेना चाहते हैं? आप इस्लाम के नाम पर इस्लाम को बदनाम करना चाहते हैं? अगर आपने एक दो दस बीस लोगों को या सभी गुजरातियों को जान से मार दिया तो आपको क्या मिलेगा? लेकिन दुनिया भर में ईरान की रुसवाई होगी। ईरान बदनाम होगा। ईरान सरकार बदनाम होगी। हम इंसानियत को मरते हुए देखना पसंद नहीं करते। जिस तरह हमने अपने छोटे भाई को मरते देखना पसंद नहीं किया था, उसी तरह हम एक भी गुजराती पर जुल्म होते देखना बर्दाश्त नहीं करना चाहते। आपके पास ताकत है, आप मार सकते हो, जैसे गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार है और वह मुसलमानों को मार रहा है। आप कम से कम अपने मुल्क में उन लोगों को मत मारिये जो निहत्था है। यह लोग बड़े बेवकूफ हैं जो गुजरात में होते जुल्म की खुशियां ईरान में मना रहे हैं और शिया-सुन्नी में मतभेद की बात कर खुद को खतरे में डाल लिया है।”
उनकी वार्ता वाली स्पीच लंबी थी लेकिन दिलों पर बहुत असर कर रही थी। गुजरातियों का डर से हालत खराब होती जा रही था लेकिन कश्मीर के एक नौजवान इंजीनियर की स्पीच में कहीं से भी नफरत नहीं थी। वह गुजरातियों को बचाने की हर कोशिश उस वक्त कर रहा था, जब गुजराती उसके मज़हब के मानने वाले लोगों के कत्ल का जश्न मना रहे थे। यहां तक कि उसने कश्मीरी होने, मुसलमान होने, इस्लाम का पैरोकार होने और इंसानियत का हमदर्द होने की दुहाई देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
आखिरकार उनकी स्पीच ने गुजरातियों को बचाने में मदद की और वे लोग शाह भाई की बात मानकर वापस चले गए और फिर सबकुछ नार्मल हो गया।
पूरे प्रोजेक्ट पर वह एक अकेला कश्मीरी था लेकिन वहां मौजूद तीस-पैंतीस हजार लोगों के दिलों पर राज करने लगा था। हर जगह उसकी ही चर्चा थी। अगले महीने मेरा ट्रांसफर ईरान से क़तर कर दिया गया। ईरान से कतर जाते वक़्त शाह भाई के आंसू और मेरी हिचकी रुक नहीं रही थी। मैं क़तर आ गया। शाह भाई से दुबारा मुलाकात नहीं हुई लेकिन एक अपनेपन का-सा ऐहसास आज भी याद आता है। मैं भी शाह भाई को धीरे-धीरे भूल गया था लेकिन ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने सच लिखने के लिए सब कुछ याद दिला दिया।