कुंदन लाल सहगल का एक ज़माना था. गायन की दुनिया के बेताज बादशाह थे. मगर चालीस के सालों के मध्य में उनकी सेहत गिरनी शुरू हो गयी. गायन और संगीत के क्षेत्र में फ़िक्र शुरू हो गयी, सहगल की जगह कौन लेगा? क्या दूसरा सहगल पैदा होगा? ऐसे ही फ़िक्रमंद माहौल में संगीतकार अनिल विश्वास एक हीरा तलाश लाये, मुकेश माथुर. ये बात बात 1945 की है. फ़िल्म थी – पहली नज़र. मुकेश जी ने पूरे विश्वास से और दिल की गहराईयों से गाया – दिल जलता है तो जलने दो…. लगा कि सहगल का विकल्प मिल गया है… और ये भी सही है कि उन दिनों मुकेश पर सहगल का प्रभाव भी थे. बताया जाता है जब सहगल को किसी ने ने ये गाना सुनाया तो उन्होंने पूछा, मैंने कब गाया इसे?
यानी मुकेश में रूप में दूसरा सहगल बनने की उनमें क़ाबलियत है, ये बात पक्की हो गयी. कुछ उत्साहित दीवानों ने बाक़ायदा मोहर भी लगा दी.
लेकिन मुकेश की नज़र में सहगल तो सहगल ही थे. वो नहीं चाहते थे कि दुनिया उनको सहगल की नक़ल या क्लोन के रूप में याद करे. उन्होंने रियाज पे रियाज किये. दिन रात एक कर दिया. ताकि सहगल से अलग एक मुक़ाम बना सकें. कई बरस बिता दिए इसी में. इस बीच सहगल साब परलोकवासी हो गए. मुकेश के लिए मैदान खाली था. मगर मुकेश ने कभी दावा नहीं किया कि सहगल के जाने से खाली हुए ‘बड़े शून्य’ को वो भर देंगे. सच तो यह है कि मुकेश ने बड़ी मेहनत से सहगल से अलग अपनी दुनिया बनाई. लेकिन फिर भी बरसों तक खास-ओ-आम मुकेश को सहगल की शैडो से बाहर देखना गवारा नहीं कर पाया. इसकी वज़ह भी थी कि सहगल जैसा दर्द सिर्फ़ मुकेश के स्वर में ही झलकता था.
हमने जब साठ के सालों में होश संभाला था तो सहगल नहीं थे. मुकेश जी बहुत पॉपुलर थे. ये तो आगे चल कर पता चला कि उनके सीने में जो दर्द है वो ही सहगल में था. तब हमने सहगल को सुना, बार बार सुना और महसूस किया कि दोनों का दर्द भले कॉमन हो मगर सहगल का अलग मुकाम है और मुकेश का अपना. जहाँ तक दिल के दर्द की बात है, मुकेश को सुनते हुए हमें सहगल की याद कल भी आती थी और आज भी.