रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने फ़रवरी 2007 के म्यूनिख़ सुरक्षा संमेलन में अमेरिका और नाटो पर तीख़ा प्रहार करते हुए कहा था कि पश्चिमी देशों ने पूर्वी यूरोप में नाटो का विस्तार न करने के अपने 1990 के वादे से मुकर कर रूस को धोखा दिया है।
अपने इस आरोप को वे कई बार दोहरा चुके हैं। इसी को उन्होंने यूक्रेन पर हमला करने का औचित्य भी बनाया है। यही शिकायत सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्रपति गोर्बाचोफ़ और रूस के पहले राष्ट्रपति येल्त्सिन की भी रही है। पर नाटो इसका खंडन करता है। वास्तविकता क्या है?
फ़रवरी 1990 में अमेरिका के पूर्व विदेशमंत्री जेम्स बेकर सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्रपति गोर्फ़ाचोफ़ के बीच मॉस्को में एक बैठक हुई थी। रूस का कहना है कि इस बैठक में जेम्स बेकर ने वादा किया था कि गोर्बाचोफ़ यदि जर्मनी के एकीकरण के लिए तैयार हो जाते हैं तो नाटो पूर्वी यूरोप के देशों में अपना विस्तार नहीं करेगा।
इस बैठक के अगले दिन पश्चिम जर्मनी के तत्कालीन चांसलर हेल्मुट कोल भी गोर्बाचोफ़ से मिले और उन्होंने कहा कि “ज़ाहिर सी बात है कि इस वक़्त पूर्वी जर्मनी में नाटो का विस्तार नहीं हो सकता।”
मई 1990 में नाटो महासचिव मानफ़्रेड वोर्नर ने अपने एक भाषण में आश्वासन दिया कि जब तक वॉर्सा गुट की सेनाएँ पूर्वी जर्मनी से वापस नहीं लौट जातीं तब तक नाटो सेनाएँ वहाँ नहीं भेजी जाएँगी। पर गोर्बाचोफ़ ने अपने संस्मरणों में लिखा कि बेकर और कोल के साथ हुई बैठकों और वोर्नर के भाषण से आश्वस्त होकर ही उन्होंने जर्मनी के एकीकरण के लिए हाँ की थी जिसके बाद सितंबर 1990 में एकीकरण का समझौता हुआ। पर समझौता नाटो सेना को पूर्वी जर्मनी में तैनात करने की अनुमति देने की बात ही करता है, नाटो के पूर्व की तरफ़ विस्तार को रोकने की नहीं।
रूसी धारणा का समर्थन करने वालों का मानना है कि गोर्बाचोफ़ को जर्मनी के एकीकरण के लिए तैयार करने के लिए नाटो का विस्तार न करने का वादा किया गया होगा। लेकिन कुछ वर्षों बाद रूस और अमेरिका द्वारा जारी किए गए एकीकरण वार्ताओं के दस्तावेज़ में कहीं भी इस तरह के वादे का ज़िक्र नहीं मिलता। इसकी वजह स्पष्ट है।
एकीकरण की वार्ताएँ नवंबर 1989 से सितंबर 1990 तक चली थीं। जबकि सोवियत संघ और वॉर्सा गुट के बिखराव की प्रक्रिया मार्च 1991 में जाकर शुरू हुई थी। सोवियत संघ और वॉर्सा गुट के मौजूद रहते हुए पूर्वी यूरोप में नाटो के विस्तार की बात होने का कोई मतलब ही नहीं था।
ऐसा लगता है कि या तो अमेरिका और नेटो के नेताओं ने वार्ताओं के दौरान अनौपचारिक रूप से इस बात के आश्वासन दिए कि नाटो का विस्तार नहीं किया जाएगा। या रूस के नेताओं को लगा कि सोवियत संघ और वॉर्सा गुट के न रहने के बाद नाटो का विस्तार नहीं होगा क्योंकि उसकी ज़रूरत ही नहीं रहेगी। पर ऐसा हुआ नहीं।
क्योंकि जो देश बरसों की सोवियत गुलामी से आज़ाद हुए उनके पास न अपनी सुरक्षा के लिए मज़बूत सेना थी, न पर्याप्त हथियार थे और न ही आर्थिक शक्ति। लेकिन जिस सोवियत रूस की की सत्तर वर्षों की गुलामी से उन्होंने आज़ादी पाई थी वह अब रूसी महाशक्ति के रूप में मौजूद था जिसके पास दुनिया में सबसे ज़्यादा परमाणु हथियार थे, यूरोप की सबसे शक्तिशाली सेना थी।
इसलिए हंगरी, चैकोस्लोवाकिया और पोलैंड ने 1991 से ही नाटो के सुरक्षा कवच में शामिल होने के प्रयास शुरू कर दिए थे। सोवियत संघ और वॉर्सा गुट के भंग हो जाने के बाद यूरोप में दो तरह की बातें हो रही थीं। कुछ लोग नाटो की ज़रूरत पर सवाल उठाने और उसे भंग करने की बातें कर रहे थे तो दूसरी तरफ़ रूसी नेता रूस को भी नाटो में शामिल करने की बातें कर रहे थे।
सामरिक दृष्टि से देखें तो वॉर्सा गुट भंग होने के बाद नाटो के बिना यूरोप की हालत सर्कस के ऐसे रिंग जैसी हो सकती थी जिसमें बिल्ली के आकार के यूरोपीय देशों के सामने रूस जैसा दैत्याकार शेर खड़ा हो। पश्चिमी यूरोप के ब्रिटन, फ़्रांस और जर्मनी जैसे देशों और सोवियत गुलामी से मुक्त हुए पूर्वी यूरोप के देशों को यह मंज़ूर नहीं था।
इसलिए न तो नाटो को भंग किया गया और न ही रूस को नाटो में शामिल किया गया। एक तरफ़ तो रूसी राष्ट्रपति येल्त्सिन ने पोलैंड के तत्कालीन नेता लेक बावेंसा के साथ हुई वार्ताओं में स्वीकार किया कि पोलैंड को अपनी सुरक्षा के लिए नाटो का सदस्य बनने का अधिकार है।
पर साथ ही साथ ही उन्हें नाटो के विस्तार की चिंता भी सताती रही। इसलिए सितंबर 1993 में अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन के नाम लिखे अपने पत्र में येल्तिसन ने लिखा, “पूर्वी की ओर नाटो का विस्तार 1990 की संधि की भावना के विरुद्ध है। विस्तार करते समय रूस के लोगों की आमराय को भी ध्यान में रखना ज़रूरी है।”
रूस की इस चिंता को दूर करने और रूस और नाटो देशों के बीच आपसी विश्वास और सुरक्षा का माहौल बनाने के लिए मई 1997 में एक नाटो-रूस आधारशिला समझौता हुआ। इसके दो साल बाद नाटो ने सालों चली माथापच्ची के बाद मार्च 1999 में चैक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड को सदस्य बना लिया।
इस घटना पर गोर्बाचोफ़ ने जर्मन अख़बार ‘बिल्ट’ को दिए इंटरव्यू में रे में कहा, “पश्चिम के वे लोग इसे जीत मान कर ख़ुश हो रहे हैं जिन्होंने हमसे वादा किया था कि पूर्व की ओर एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेंगे।” पर कुछ ही वर्षों बाद, अक्तूबर 2014 में ‘कमिरसांत’ अख़बार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने यह भी माना कि, “नाटो के विस्तार का विषय 1989 और 1990 की वार्ताओं में कभी उठाया ही नहीं गया, 1991 में वॉर्सा गुट के भंग हो जाने के बाद भी नहीं।”
इन बातों से लगता है कि नाटो ने किसी संधि या वार्ता में औपचारिक रूप से यह वादा नहीं किया कि वह अपनी खुले द्वार की नीति को छोड़ देगा और पूर्वी यूरोप के देशों को सदस्यता नहीं देगा। लेकिन रूसी नेताओं की जर्मनी के एकीकरण के बाद से ही यह धारणा रही है कि उन्हें ऐसा आभास दिलाया गया था।
राष्ट्रपति बनने के बाद पूतिन ने इसी शिकायत को रुस की सुरक्षा का प्रश्न बना लिया। पर यदि यूरोप के सामरिक संतुलन पर नज़र डालें तो रूस नाटो देशों की तुलना में कहीं से उन्नीस नहीं बैठता। रूस के पास नाटो देशों से ज़्यादा परमाणु हथियार हैं। अमेरिका को छोड़ दें तो रूस के पास नाटो के यूरोपीय देशों से कई गुणा विमान, सैनिक और रक्षा सामग्री है।
सुरक्षा और अस्तित्व का असल ख़तरा तो नाटो के यूरोपीय सदस्यों को है जिनमें हंगरी और चैकोस्लोवाकिया जैसे देश अतीत में सोवियत रूस के हमले झेल चुके हैं। रूस ने मॉलदोवा के ट्रांसनिस्ट्रिया पर 1992 से क़ब्ज़ा कर रखा है। 2008 में जॉर्जिया पर हमला करके उसके दो प्रांतों में कठपुतली सरकारें बना रखी हैं।
इसी तरह 2014 से यूक्रेन के दक्षिणी प्रायद्वीप क्रीमिया पर क़ब्ज़ा कर रखा है और पूर्वी प्रांत डॉनबास में दो कठपुतली राज्य बना रखे हैं। 1994 के परमाणु निरस्त्रीकरण समझौते में दी सुरक्षा की गारंटी के बदले यूक्रेन से उसके सारे परमाणु हथियार लेकर अब वह यूक्रेन के सैनिक, राजनीतिक और बुनियादी ढाँचे को ध्वस्त कर रहा है।
रूस के इन कारनामों, सामरिक शक्ति और परमाणु धमकियों को देखते हुए डर तो उल्टा यूरोप के नाटो देशों को लगना चाहिए। नाटो का कहना है कि वह देशों की सुरक्षा का संगठन है, ठीक उसी तरह, जैसे व्यापार में अमेरिका का मुकाबला करने के लिए यूरोप के देशों ने मिलकर व्यापार संघ बनाया है।
यूरोपीय संघ को अपनी व्यापारिक सुरक्षा का प्रश्न बना कर अमेरिका ने तो उस पर हमला नहीं किया! ठीक इसी तरह यूरोप के छोटे-छोटे देशों को सुरक्षा कवच देने के लिए नाटो बनाया गया था। नाटो ने यूरोप के किसी स्वतंत्र देश पर अकारण हमला करके उसकी भौगोलिक अखंडता को नहीं तोड़ा। जबकि सोवियत रूस यह काम चार-पाँच बार कर चुका है। तो फिर समस्या की जड़ क्या है?
साम्यवादी अर्थव्यवस्था के पतन के साथ रूस आर्थिक लड़ाई तो हार चुका है। रूस में भी अब नाटो देशों की तरह ही पूँजीवादी बाज़ार व्यवस्था है। केवल राजनीतिक व्यवस्था और पारदर्शिता का फ़र्क बचा है। यूरोपीय संघ और नाटो की सदस्यता उन्हीं देशों को दी जाती है जहाँ लोकशाही हो और पारदर्शिता हो। पूर्वी यूरोप के देश रूस से सुरक्षित रहने के लिए नाटो की सदस्यता चाहते हैं जिसके लिए उन्हें लोकतंत्र अपनाना पड़ता है।
पूतिन को लोकशाही में अराजकता और अपनी सत्ता के लिए चुनौती नज़र आती है। यही हाल शी जिनपिंग का है। इसीलिए वे अमेरिका और नाटो को हर क़ीमत पर परे रखना चाहते हैं। यह लड़ाई सामरिक सुरक्षा की नहीं है। सामरिक शक्ति में रूस यूरोप के देशों से बहुत आगे है। यह लड़ाई लोकशाही और तानाशाही की है।