लेनिन ने लोकतंत्र को “पूँजीपति वर्ग का वकील” कहा था लेनिन का कथन भारत के पूँजीवादी लोकतंत्र पर अक्षरशः फिट बैठता है। कौन प्रधानमंत्री बनेगा? कौन मुख्यमंत्री बनेगा? कौन किस सीट से चुनाव लड़ेगा? सब कुछ पूँजीपति वर्ग ही तय करता है। कौन व्यक्ति चुनाव लड़ने लायक है तथा कौन नालायक है यह पूँजी से ही तय होता है। जनता सिर्फ “पिसान पोत कर भण्डारी बनी रहती है। अर्थात जनता की भूमिका सिर्फ दिखावटी होती है।
पूँजीपति वर्ग कालेधन की ताकत से भ्रष्ट मीडिया तथा अन्य प्रचार माध्यमों से जनता को गुमराह करके उसे अपने चुनाव प्रक्रिया में शामिल कर लेता है और अनेक जघन्य तरीकों से कल-बल-छल से चुनाव जीतता और हारता है। अपनी सरकार बनाकर अपनी पुरानी व्यवस्था को यथावत चलाता है तब जनता सवाल पूछती है कि वही शोषण, वही उत्पीड़न, वही डण्डा, वही हथकण्डा, वही अत्याचार, वही दमन आखिर चुनाव के बाद भी कुछ बदला क्यों नहीं? बल्कि शोषण, दमन, अन्याय, अत्याचार, महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है। आंखिर क्यों? तब पूँजीवादी लोकतंत्र का समर्थक बुद्धिजीवी कहता है कि “सारी गलती तुम्हारी (जनता की) ही है। तुमने गलत व्यक्ति का चुनाव कर दिया है।”
जिस तरह वकील अपने मुवक्किल के पक्ष में जज के सामने बहस करता है कि “माई लार्ड! मेरा मुवक्किल पाक-साफ और, निर्दोष और, सारी गलती विपछीगण की और।” उसी तरह लोकतंत्र के द्वारा सारी गलती जनता के ऊपर थोप दी जाती है।
लोग कहते सुने जाते हैं कि “सारी गलती जनता की है, यह जनता जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा-नस्ल आदि के नाम पर वोट देती है। जनता विकास करने या गरीबी हटाने के नाम पर लोगों को चुनती है। अतः सारी गलती जनता की ही है। इस ब्यवस्था यानी पूँजीवादी व्यवस्था में कोई गलती नहीं है।” जब कि सच्चाई यह है कि जनता के सामने सही विकल्प रखे ही नहीं जाते हैँ।
दो व्यवस्थाओं में से किसी एक व्यवस्था को चुनने की आजादी लोकतंत्र में नहीं :- दुनिया में मुख्यतः दो तरह से उत्पादन हो रहा और:-
1- उत्पादन का पूंजीवादी तरीका (पूँजीवादी व्यवस्था)
2- उत्पादन का समाजवादी तरीका (समाजवादी व्यवस्था)
बाजार में उपरोक्त दोनों व्यवस्थाओं के बीच भीषण संघर्ष चल रहा है। चीन की समाजवादी उत्पादन अवस्था अपने सस्ते उत्पादों के बल पर पूंजीवादी उत्पादों को दुनिया भर के बाजार से खदेड़ती जा रही है। परिणाम स्वरूप अमेरिका सहित तमाम पूंजीवादी देश भयानक आर्थिक मंदी के दलदल में फैसते जा रहे है।
उत्पादन का पूँजीवादी तरीका अपने ही अन्तर्विरोधों के कारण फेल हो रहा है। पूँजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति वर्ग मुनाफे के लिये उत्पादन करता है। वह कम से कम समय तथा कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा चाहता है। मुनाफ के लिये आपस में होड़ करता है। एक पूँजीपति दूसरे पूँजीपति से आगे निकल जाने के चक्कर में बड़ी से बड़ी मशीनें लगाता है। पूँजीपति वर्ग द्वारा बड़ी से बड़ी मशीनें लगाने से दो परस्पर विरोधी क्रिया होती है
पहली- यह कि उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती जाती है।
दूसरी- यह कि साथ-साथ मजदूरों की छँटनी की जाती है।
मजदूरों की छँटनी से ग्राहकों की संख्या घटती जाती है। उत्पादित माल के मुकाबले ग्राहकों की संख्या बहुत कम होती जाती है। परिणामस्वरूप हर छठवें सातवें साल तक बाजार में माल ठसाठस भर जाता है और गोदाम भी ठसाठस भर जाता है। जब तक बाज़ार में पड़ा माल बिक न जाय तथा गोदाम खाली न हो जाय, तब तक कारखानों को बन्द करना पड़ता है। इसे आर्थिक मंदी कहते हैं। इस आर्थिक मंदी से मजदूर वर्ग के साथ-साथ अधिकांश छोटे-छोटे कारखाने तक तबाह हो जाते हैं।
आर्थिक मंदी से होने वाले घाटे की भरपाई करने के लिए पूंजीपति वर्ग महँगाई बढाता है। इससे भी भरपाई नहीं हो पाती तो भ्रष्टाचार बढ़ाता है। कर्ज लेता है और कमजोर देशों को लूटने या लुटवाने के लिए युद्ध करता है या युद्ध की तैयारी करता है। जिसका सारा बोझ मेहनतकश जनता के ऊपर पड़ता है।
इसी पूँजीवादी व्यवस्था में हम लोग जी रहे हैं। दो विश्वयुद्धों में करोड़ों हत्यायें लूट बलात्कार के साथ-साथ महँगाई, बेरोजगारी आदि झेल चुके है। आये दिन किसी न किसी देश पर हमला हो रहा है। यह सब पूँजीवादी तरीके से उत्पादन करने के कारण हो रहा है।
अतः पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में उत्पादन का मतलब गलाकाट प्रतिस्पर्धा में चन्द लोगों का विकास। जिसमें आर्थिक मंदी महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कर्ज और युद्ध आदि समस्यायें अनिवार्य रूप से घटित होती रहती है।
पूँजीवादी तरीके से जितना ही बड़े पैमाने का उत्पादन होगा, उतनी ही भयानक आर्थिक मंदी आयेगी और उतनी ही भयानक तबाही मचायेगी। उतना ही भयानक महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कर्ज, युद्ध एवं दिवालियापन का संकट बढ़ायेंगी। इस तरह की पूंजीवादी व्यवस्था का नेतृत्व अमेरिका कर रहा है जो 2007 से भयानक आर्थिक मंदी की चपेट में फैसा है, उसकी जी०डी०पी० से बड़ा उसके ऊपर कर्ज हो चुका है।