इराक के बाद अब अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी ने दूसरे मुल्कों में अमरिकी कार्रवाई की सफलता पर सवाल खड़ा किया है। विदेशों मे कई जगह अमेरिकी हस्तक्षेप का परिणाम यह हुआ कि आज अमेरिकी रक्षा बजट 700 अरब डालर सलाना पार कर गया है। अफगानिस्तान में 1 ट्रिलियन डालर खर्च करने के बाद भी शांति नहीं आयी, तालिबान की फिर वापसी हुई है। इराक में अरबों डालर खर्च करने के बाद भी आजतक शांति नहीं हुई है। लेकिन इन लड़ाइयों ने अमेरिकी डिफेंस इंडस्ट्री, कई प्राइवेट कांट्रेक्टर और अमेरिकी सेना के अधिकारियों को जरूर माला-माल किया है। आतंकी तालिबान भी अमेरिकी रक्षा उधोग की पैदाइश है, जिसके ज्यादातर लड़ाकों को किसी जमाने सोवियत सेना के खिलाफ सीआईए और आईएसआई ने मिलकर तैयार किया था। वो दिन भी लोगों को याद है कि जब ओसामा बिन लादेन पेशावर के पास सीआईए के साथ मिलकर मुजाहद्दीन तैयार कर रहा था।
अमेरिकी करदाताओं के पैसे को विश्व भर मे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के नाम पर अमेरिका ने खर्च किया। अमेरिकी शासकों ने मिलिट्री नेशनलिज्म के बहाने, अमेरिकी करदाताओं के पैसे को लूटा। विदेशी धरती पर अमेरिकी सैन्य कार्रवाई का लाभ न तो अमेरिकी जनता को मिला, न ही उस देश की जनता को, जहां सैन्य कार्रवाई की गई। हां अरबों डालर की कमाई अमेरिकी हथियार उधोग ने की । अरबों डालर की कमाई अमेरिकी सैन्य बेसों पर काम हासिल करने वाले प्राइवेट कंपनियों/ कांट्रेक्टरों ने की। इस कमाई का एक हिस्सा अमेरिकी सैन्य अधिकारियों को गया। एक हिस्सा रिपब्लिकन औऱ डेमोक्रेट पार्टी के सांसदों, नेताओं को गया, जो इनके लिए लॉबिंग करते रहे।
इराक में सद्दाम हुसैन, लीबिया में कर्नल गद्दाफी जैसे लोग अमेरिकी कुटनीति के शिकार हो गए। अलकायदा चीफ ओसामा बिन लादेन को मार अमेरिका ने खूब वाहवाही ली। लेकिन इससे अलग अमेरिका के इन तमाम युदों के पीछे छुपे मिलिट्री नेशनलिज्म को समझना जरूरी है। वार अगेंस्ट टेरर हो या दुनिया के कई मुल्कों मे सीधा अमेरिकी हस्तक्षेप, इसका सीधा लाभ अमेरिकी रक्षा उधोग, अमेरिकी सेना के साथ जुड़े हुए प्राइवेट कांट्रेक्टर और कंपनियों का हुआ है। इस लाभ का एक हिस्सा ये प्राइवेट कांट्रेक्टर और कंपनी अमेरिकी सेना के बड़े अधिकारियों और अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को देते रहे है।
वैसे तो अमेरिकी सैन्य बेसों का कामकाज, रखरखाव औऱ निर्माण का काम पहले अमेरिकी सैनिक खुद करते थे। लेकिन वियतनाम युद में पहली बार सैन्य बेसों के निर्माण, रखरखाव में प्राइवेट कंपनी की एंट्री हो गई। ब्राउन एंड रूट कंपनी को दक्षिण वियनताम में आर्मी स्टैबलिशमेंट निर्माण का काम दिया गया। इसके बाद विदेशों में हुए तमाम अमेरिकी सैन्य कार्रवाई में कांट्रेक्टरों की चांदी रही। अकेले अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी सैन्य बेसों पर लिए गए ठेकों में अरबों डालर का खेल प्राइवेट कंपनियों/कांट्रेक्टरों ने किया। दुनिया भर में मौजूद 2000 (फिलहाल 800) अमेरिकी सैन्य बेसों के निर्माण, रखरखाव और आपूर्ति का ठेका पेंटागन ने प्राइवेट कांट्रेक्टरों को दिए। प्राइवेट कांट्रेक्टरों के पास ही इन सैन्य बेसों पर सप्लाई का ठेका था। सैन्य बेसों की सुरक्षा की जिम्मेवारी भी इनके पास थी। वहीं हथियारों की खरीद का काम भी इन्हें ही दिया गया। इस्लामिक देशों की कंपनियों को भी अमेरिकी सैन्य बेसों पर कांट्रेक्ट मिला और उन्होंने अच्छे पैसे कमाए।
एक अध्धयन के मुताबिक 2002 से 2013 तक अमेरिका ने अपने मध्य-पूर्व के सैन्य बेसों पर कुल 385 अरब डालर खर्च किए। इसमें निर्माण,रखरखाव, आपूर्ति, प्रशिक्षण मे होने वाला खर्च शामिल है। इसमें इराक के सैन्य बेसों पर 89 अरब डालर, अफगानिस्तान के सैन्य बेसों पर 90 अरब डालर अमेरिका ने खर्च किया। वहीं कुवैत में स्थित अमेरिकी सैन्य बेसों पर 37 अरब डालर, यूएई में 10 अरब डालर का खर्च अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने किया।
इन खर्चों में घपले के आरोप भी लगे। क्योंकि प्राइवेट कांट्रेक्टरों ने कई जगह फर्जी पेमेंट भी लिया। इस खेल में अमेरिकी सैन्य अधिकारी, अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य भी शामिल थे। अमेरिकी करदाताओं के पैसे के मिस्यूज को लेकर तमाम सवाल उठे। अमेरिकी कांग्रेस ने इन आरोपों की जांच के लिए “कमिशन फॉर वार टाइम कांट्रेक्टिंग” बनाकर मामले की जांच करवायी। कमिशन ने अपनी जांच में लगभग 60 अरब डालर का फ्रॉड स्वीकार किया। दरअसल विदेशों में अमेरिकी सैन्य बेसों पर प्राइवेट कंपनियों को कांट्रेक्ट आवंटन मे कोई प्रतियोगी व्यवस्था नहीं थी। पेंटागन ने अपने चहेती कंपनियों को सैन्य बेसों पर काम आवंटित किया, मनमर्जी से अमेरिकी करदाताओं के पैसे को खर्च किया।
मध्यपूर्व में 2002 से 2013 तक अमेरिकी सैन्य बेसों पर जिन प्राइवेट कंपनियों को सबसे ज्यादा कांट्रेक्ट मिला, या जो कंपनियां सबसे ज्यादा मालामाल हुई, उसमें मिसलेनियस फॉरेन कांट्रेक्टर, केबीआऱ इन्क, सुप्रीम ग्रुप, अगिलिटी लॉजिस्टिक, डाइन कार्प इंटरनेशनल, फ्लोर इंटरकांटिनेन्टल, आईटीटी, बीपी, बहरीन पेट्रोलियम कंपनी और आबू धाबी पेट्रोलियम कंपनी शामिल है। इसमें सबसे ज्यादा मिसलिनियस फॉरन कांट्रेक्टर को 47 अरब डालर का कांट्रेक्ट मिला। जबकि केबीआर को 44 अरब डालर का कांट्रेक्ट मिला था। मुस्लिम देशों की दो बड़ी तेल कंपनियों को भी पेंटागन ने अच्छा कारोबार दिया। बहरीन पेट्रोलियम को 5 अरब डालर और आबू धाबी पेट्रोलियम को 4.5 अरब डालर कांट्रेक्ट मिला।
संजीव पांडेय