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क्यों केंद्र को IAS की कमी हो रही है, क्या राज्यों से IAS दिल्ली जाने से बच रहे हैं?

Muslim Today by Muslim Today
जनवरी 22, 2022
in देश, स्तंभ
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क्यों केंद्र को IAS की कमी हो रही है, क्या राज्यों से IAS दिल्ली जाने से बच रहे हैं?
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हिन्दू अख़बार की इस ख़बर की सच्चाई को हर IAS जानता है। वह बोल नहीं सकता लेकिन उसे पता है कि दिल्ली में कितना कुछ बदल गया है। वहां उसकी ज़रूरत केवल झूठ बोलने और दस्तख़त करने की रह गई है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारण हो सकता है कि राज्यों से IAS केंद्र में नहीं जाना चाहते हैं?

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केंद्र के प्रति यह अविश्वास बता रहा है कि IAS में संवैधानिक चेतना बची हुई है। वे नहीं चाहते कि उनका इस्तमाल इस व्यवस्था को ध्वस्त करने में किया जाए। इसलिए वे दिल्ली नहीं जाना चाहते हैं। दिल्ली में IAS की कमी होने लगी है। हिन्दू की विजेयता सिंह की यह ख़बर आम जनता के बीच IAS की चुप्पी को पहुंचा रही है कि अब तो देख लो। यह तुम्हारा देश संविधान से चलने वाला देश कितना रह गया है।

आज ही हिन्दू अखबार में संपादकीय लेख छपा है। इस लेख को दो सेवानिवृत्त आई ए एस अफसरों ने लिखा है। तमिलनाडु के के अशोक वर्धन शेट्टी और महाराष्ट्र के वी रमानी ने अपने लेख में बताया है कि केंद्र सरकार को IAS काडर के नियमों में बदलाव से बचना चाहिए। मोदी सरकार का यह फैसला सरदार पटेल की बनाई हुई व्यवस्था की बुनियाद पर हमला करती है। अभी तक की व्यवस्था यह थी कि दिल्ली के लिए IAS की तैनाती के लिए राज्यों के अफसर अपनी इच्छा ज़ाहिर करते थे। इच्छा ज़ाहिर करने के बाद राज्य अपने अफसरों की सूची बनाता था और फिर उसमें से केंद्र के लिए IAS का चयन होता था।

लेकिन अब नियमों में बदलाव के बाद IAS की मर्ज़ी समाप्त हो जाएगी। राज्यों को अमुख संख्या की सूची देनी ही होगी। तैनाती को लेकर अंतिम फैसला केंद्र के पास होगा। अब इस लेख के सामने हिन्दू अखबार की इस खबर को देखिए कि डेप्युटेशन पर केंद्र में जाने वाले IAS अफसरों की संख्या में कमी आई है। 2014 में जहां राज्यों की तरफ से 603 अफसरों की सूची होती थी वो 2020 में बढ़कर 1130 हो गई।

इसके बाद भी केंद्र में डेप्युटेशन पर तैनात अफसरों की संख्या 309 से घटकर 223 हो गई है। ऐसा क्यों है? अफसर किस वजह से नहीं जा रहे हैं?

दिल्ली हर अफसर आना चाहता है। उसका कारण यह होता है कि वह अपने पेशेवर जीवन में नीतियों के निर्माण की प्रक्रिया में भूमिका निभाना चाहता है। ज़िला स्तर पर वह नीतियों को लागू करता है। उस स्तर पर नीतियों की जो समझ बनती है उसके अनुभव के आधार पर वह दिल्ली में बैठकर नीतियों को बनाना चाहता है।

राष्ट्रीय सेवा में भी योगदान करना चाहता है। लेकिन अगर IAS जाने से बच रहे हैं और उन्हें लाने के लिए सरकार को नियमों में बदलाव करना पड़ रहा है तब फिर साफ है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की बारी आ गई है। बल्कि इसकी बारी आ चुकी थी लेकिन पब्लिक में बात करने का ज़रिया नहीं मिल रहा था। केंद्र सरकार कार्मिक नियमों में बदलाव करने जा रही है जिसके तहत वह जिस अफसर को चाहे केंद्र में बुला सकती है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा की कुछ ख़ूबियां हैं। यह सेवा हाड़तोड़ मेहनत के बाद लाखों प्रतियोगियों के बीच स्पर्धा के बाद हासिल होती है। समाज में आई ए एस बनने वालों की सफलता को इस लिहाज़ से अलग से आंका जाता है। इसके अलावा एक और बात होती है। आई ए एस जनता के बीच संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्वायत्ता का प्रतिनिधि होता है। लोग उससे उम्मीद करते हैं कि यह किसी का ग़ुलाम नहीं है।

इसकी प्रतिज्ञा संविधान के प्रति है। भले ही कई अफसर अपनी मर्ज़ी से नेताओं की जूती साफ करते हैं और उनका पीकदान उठाने में गर्व महसू करते हैं लेकिन ज़्यादातर अफसर अपने करियर को इससे बचा कर रखना चाहते हैं। वे व्यवस्था का अंग बने रहते हुए अपनी स्वायत्ता को बचाना चाहते हैं जिससे वे संविधान के प्रति अपनी प्रतिज्ञा निभा सकें। अब लगता है कि उस स्वायत्त संभावना को इस सेवा से ख़त्म कर दिया जा रहा है।

पिछले साल मोदी सरकार ने कार्मिक नियमों में एक बदलाव किया। इसके ज़रिए खुफिया या रक्षा विभागों से रिटायर हुए अफसर अब अपने संगठन की इजाज़त के बिना नहीं लिख सकेंगे। विभाग के अनुभवों को लेकर जो लिखेंगे उसके छपने से पहले विभाग की मंज़रूी ज़रूरी होगी अन्यथा उनकी पेंशन रोक ली जाएगी। किसी की पेंशन पर रोक लगाना ही नैतिक रुप से अलग है। मगर सरकार ने शर्त रख दी है।

खुफिया संस्थानों और रक्षा संस्थानों से रिटायर हुए अफसर अपने अनुभवों को लेकर काफी कुछ लिखते हैं। जिससे आम पब्लिक से लेकर इन विषयों पर जानकारी रखने वालों को देखने का नज़रिए मिलता है कि ऐसे विभागों में काम कैसे होता है या फिर किसी खास घटना को लेकर अंदरुनी ख़बरें क्या थीं। मोदी सरकार ने रोक लगा दी है। इससे किसे फायदा हुआ?

रक्षा के नाम पर कुछ भी कदम उठाने के लिए आतुर सरकार से पूछना चाहिए कि क्या वह अपने किसी फैसले को पब्लिक में आने की हर संभावना को रोकने में लगी है? पहले ऐसी कई किताबें आई हैं, खूब चर्चा हुई है, उससे क्या देश की सुरक्षा ध्वस्त हो गई है? नहीं हुई है। साफ है कि सरकार सेवा में अफसरों का अपने हिसाब से इस्तमाल करना चाहती है। वह नहीं चाहती कि जनता कभी यह जान पाए कि अमुक सरकार के दौर में क्या हुआ था।

आप एक और बदलाव ग़ौर कर सकते हैं। आम तौर पर चुनाव आयोग से सेवानिवृत्त होने वाले मुख्य आयुक्त और आयुक्त चुनावों के समय मीडिया में काफी लिखते बोलते हैं। मौजूदा आयोग के फैसलों की समीक्षा के लिए सेवानिवृत्त आयुक्त उपलब्ध रहते हैं और उनके विचारों में अंतर से फैसले के सही ग़लत के दोनों छोर को देखने और समझने में मदद मिलती है। लेकिन क्या मोदी सरकार के आने के बाद इस पद से रिटायर हुए आयुक्तों को आप पब्लिक में लिखते बोलते देखते हैं?

मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि कोई ऐसा नहीं करता है। अगर कोई ऐसा नहीं करता है तब तो यह बात सामान्य नहीं है। सिर्फ इतनी नहीं कि सेवानिवृत्त होने के बाद आयुक्त सार्वजनिक जीवन से दूर रहना चाहते हैं। क्या ऐसा सभी के साथ हो रहा है? यह सवाल इसलिए भी उठाया कि चुनावी विषयों में केवल एस वाई कुरैशी ही लिखते बोलते नज़र आते हैं। मुमकिन है उन्हें ज़्यादा प्रमुखता मिलती हो लेकिन ऐसा तो नहीं है कि बाकियों को नहीं मिलेगी। खैर इस सवाल पर तथ्यात्मक निगाह ज़रूरी है। क्या चुनाव आयुक्त के पद से रिटायर होने के बाद ये अधिकारी नेपथ्य में भेजे जा रहे हैं? क्या इस वजह से कि पत्रकारों के बीच पूर्व चुनाव आयुक्त के तौर पर मौजूद रहने से इनके पिछले फैसलों पर भी सवाल हो जाएगा?

नौकरशाही की व्यवस्था काफी कुछ बदल गई है। इसके लिए नौकरशाही ही ज़िम्मेदार है लेकिन इतना कहकर आप अपने दायित्वों से छुटकारा नहीं पा सकते हैं। मेरे लिखने में कुछ कमी हो सकती है, लेकिन बुनियादी तौर पर मैं इन दोनों खबरों को इसी तौर पर देख रहा हूं कि सत्ता के गलियारे में सेवक को ग़ुलाम बनाने का खेल चल रहा है। ऐसा ग़ुलाम जो सेवा और सेवा के बाद ज़ुबान न खोले। अगर आपको लगता है कि इस व्यवस्था से आपको फायदा है तो आप अपनी मूर्खता पर दो किलो जलेबी खा सकते हैं।

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