तन बिरजू महाराजः
आप इस हाथ को इधर से उधर कर दो, जो शरीर अभी तक कृष्ण रहा, वो राधा हो गया. एक ही शरीर में बस भाव-भंगिमा बदल दो तो वही राधा, वही कृष्ण.- बिरजू महाराज
अपने ठीक बगल की कतार में पहली पंक्ति में बैठे बिरजू महाराज को मैं लगातार देखता रहा. उस शरीर को जिसे कि हम बचपन से दूरदर्शन पर देखते आए और बाद में यूट्यूब के जरिए निहारते रहे. पुरुष देह लेकर पैदा हुए एक विलक्षण कलाकार अपनी कला से कैसे जैविक स्तर के इस विभाजन को जिसे कि हमारी जमात ने भेदभाव के स्तर तक ले जाकर देखना शुरु किया,( मेरे ख़्याल से जेंड़र और सेक्स के विमर्श से आपने भी गहराई से पढ़ा ही होगा ) स्त्री-पुरुष देह के बीच जीवनभर अपनी भंगिमा और मुद्रा से आवाजाही करते रहे..और अपनी देह उस सम पर जाकर ले गए जहां हम उन्हें देखते-निहारते हुए अपनी ही जमात की ओर से पैदा इस जेंडर भेद को भूलने लग जाते हैं और महसूस करते हैं कि कोई पुरुष देह के भीतर भी स्त्री को जी सकता है.
मेरी एक दोस्त मेरी पीठ पर एक धौल जमाती है और मैं एकदम से अकड़ जाता हूं. वो एकदम से ख़ुश हो जाती है कि उसने एक पुरुष देह पर ऐसी चोट की है जो कि उसके सामने कराहने लग जा रहा है. उसे ऐसा करके अच्छा लगता है. पिछले पांच हजार से महान संस्कृति के भीतर दबी उसी क्षमता का अहं तुष्ट होता है. उसे वो जेंडर न्यूट्रलिटी कहती है और मैं सिर हिलाकर “ओके” कर देता हूं. बाक़ी पुरुष देह ख़ुद को ज़्यादा ताक़तवर, सक्षम और देह पर कब्जा जमा लेने के लिए क्या-क्या करता है, ये अलग से बताने की ज़रूरत नहीं. विरजू महाराज ऐसे पुरुष देह के प्रति अपनी कला के जरिए एक विलोम रचते हैं जिसके सामने वो देह ओझल हो जाय और मनुष्य और कला के बीच किसी तीसरी चीज़ की गुंजाईश न रह जाय.
अपने ठीक बगल की कतार की पहली पंक्ति में बैठे बिरजू महाराज की देह और उनकी हरकतों को देखने के लिए मैं पूरे समय मोबाईल के कैमरे पर आंखें गड़ाए रखता हूं. बगल में बैठे तरुण( Tarun Gupta ) को लगता है कि मैं उनकी इतनी सारी तस्वीरें क्यों खींच रहा हूं, वीडियो क्यों बना रहा हूं ? मैंने उनके बोलने के दौरान ज़रूर फेसबुक लाइव किए लेकिन जब तक वो चुपचाप बैठकर अपने ही उपर युवा लेखकों को बोलते हुए सुनते रहे, मैं बस कैमरे के जरिए उन्हें देखता रहा.
भारतीय दर्शन और आध्यात्म का एक बड़ा हिस्सा शरीर को गौण( सेकेण्डरी ) मानता आया है और आत्मा को प्राथमिक. शरीर आत्मा और मन का बंधन है और इससे मुक्ति की कई साधना पद्धति है. आत्मा जो कभी नष्ट नहीं होता और शरीर जिसे कि एक दिन मिट्टी में मिल जाना है. कबीर कहते भी हैं-
हाड जरै ज्यौं लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास.
सब जग जलता देख, भया कबीर उदास.
बिरजू महाराज मिट्टी में मिल जानेवाले इस शरीर को, अपनी इस देह को ही कभी न नष्ट होनेवाले तत्व के रूप में साधते रहे. आप रात के इस सन्नाटे में एक बार ख़ुद से बिरजू महाराज बोलकर देखिए. आप बिना अलग-अलग मुद्रा और स्त्री-पुरुष छवि की आवाजाही के बीच उनके नाम का उच्चारण कर ही नहीं पाएंगे. ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कबीर कहते हैं-
जल में कुंभ है, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी ।
टूटा कुंभ जल, जल ही समाना, यही तत्व है ज्ञानी ।।
आप बिरजू महाराज को उनके देह के जरिए उनके मन को जान पाते हैं. आपने उन्हें दर्जनों बार सामने से, टीवी स्क्रीन पर, मोबाईल पर देखा होगा, वो हर बार अपने शरीर और उसकी उन भंगिमा के साथ मौज़ूद होते हैं जहां स्त्री-पुरुष के विभाजन से इतर एक मनुष्य की उपस्थिति है. काव्यात्मक अंदाज़ में ऐसे वाक्य लिखना जितना आसान है, उसे जीने के स्तर पर ज़िंदगी में शामिल कर पाना कितना मुश्किल, इसका अंदाज़ा कम से कम मुझे तो नहीं है.
मैंने जिस देह को इससे पहले एक लय, एक स्वर और सन्नाटे के बीच घुंघरु की आवाज़ का ग़ुलाम हो जाते देखते आए, वो देह मेरे सामने एक कुर्सी पर बैठा रहा. शुरु के दस मिनट लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि उनमें सांसों की आवाज़ाही के अलावा कोई हरकत न हो. मैंने ग़ौर करना शुरु किया और तब हाथ, आंखें और पैर उसी देह की परिभाषा के भीतर सक्रिय जान पड़े जिसके कारण वो पूरी दुनिया में बिरजू महाराज के नाम से जाने जाते रहे.
जोशना( Joshnaa Banerjee Adwanii ) अपने पर्चे में जिस सम्मान के साथ बिरजू महाराज के गुरु और पुरखे का जिक़्र कर रहीं थीं, वो उनसे एकदम से जुड़ते चले जाते. नाम आते ही अपने हाथ कान तक ले जाते, छूते और वापस पैरों पर रख देते. एक बार भी ऐसा न हुआ हो कि जोशना ने कोई नाम लिया वो चूक गए हों. उन नामों के साथ उनकी पलकें झुक जातीं और प्रार्थना की मुद्रा में होतीं. वो जब आगे बोल रही होंती, उस दौरान एक हाथ की उंगलियां दूसरे हाथ की ढीली मुठ्ठी पर फिरती रहतीं. यदि मैं संगीत का ज्ञाता होता तो अंदाज़ा लगा पाता कि इस दौरान वो किस ताल पर उंगलियां फिराते रहे. बीच-बीच में पैर एक मुद्रा ख़ास मुद्रा की तरफ लौटती और फिर एकदम से वापस आ जाती. डेढ़ घंटे तक मैंने एक ऐसे शरीर को देखा जिसके भीतर एक और शरीर है जो कि एकदम सक्रिय है और जिसमें विस्मृति, थकान या शिथिलता के कोई निशान नहीं. अब उनके जाने पर दुनिया उन्हें जिस कला के रूप में जानती रहेगी, वो दरअसल वो दूसरा शरीर होगा जिसे कि हम और आप ज़िंदा तो छोड़िए पनपने तक नहीं देते. अपनी एक देह पर ही हमें इतना ग़ुरुर होता है कि उसके आगे हम ख़ुद को कहां महसूस कर पाते हैं.
हमारी तरह बिरजू महाराज भी एक पुरुष देह लेकर पैदा हुए. जिस कला को साधा उसके लिए एक शरीर पर्याप्त नहीं पड़ा और इसका उन्होंने विस्तार किया. वो विस्तार इस अर्थ में कि यदि आप उन्हें बारह-चौदह साल की किशोरियों और बीस-बाईस साल की युवतियों के बीच देख पाते ग़लती से भी इस दिशा में नहीं सोच पाते कि बहुत सारी स्त्री देह के बीच एक पुरुष शरीर है. उनकी कला यानी उनकी दूसरी देह उनके बीच ऐसी घुलती कि आप बस यह देख पाते कि एक मनुष्य है जो बिना किसी शोर-शराबे और दावे के बीच कुदरत को सीधे-सीधे चुनौती दे रहा है. चुनौती का स्वर इतना मद्धिम, सहज और संगीतमय होता है, ये आप उन्हें कई स्त्री देह के बीच बहुत ही इत्मिनान से देख पाते.
जिस पांच हजार की महान संस्कृति की दुहाई देते हुए देश की आवोहवा बदलने की कोशिश की जा रही है, बिरजू महाराज के बहाने महज दस-बारह साल पीछे जाकर वापस साल 2022 में आ जाइए. आपको सचमुच इस देश से दोहरे स्तर का प्रेम हो जाएगा. मानवीय समाज में रहते हुए हमें महज भूगोल से नहीं, वहां हाड-मांस लिए धड़कते हुए लोगों से प्रेम और लगाव होते हुए ही देश प्रेम हो पाता है. बिरजू महाराज ऐसे ही विरले रहे जिन्हें देखते-सुनते हुए आपके भीतर “दावेवाले प्रेम” के बजाय सहज-स्वाभाविक ढंग से प्रेम हो जाता..लेकिन एक सच ये भी है कि ऐसा प्रेम करते हुए , खोजते हुए आप-हम महज दस-बारह पीछे जाने में ही हांफने लग जाएं, पांच हजार साल तो बहुत दूर की बात है. बिरजू महाराज की देह( अब तस्वीरों में ) को एक बार ग़ौर से देखिए. ये देह बिना दावे के धीरे-धीरे पांच हजार पुरानी संस्कृति के उस सत्व को छूने की कोशिश करता है जिसका मूल स्वर है- मानुष प्रेम भयो बैकुंठी.