लोकतंत्र की परिभाषा देते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था-Democracy Government of the people for the people. By the people अर्थात जनता की सरकार, जनता के लिए, जनता के द्वारा।
लोकतंत्र की यह परिभाषा पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुई। कार्ल मार्क्स इस परिभाषा से इतना सन्तुष्ट हुए कि उन्होंने पत्र लिखकर लिंकन को धन्यवाद ज्ञापित किया। लोकतंत्र की उक्त परिभाषा 100% सही है परन्तु यह भी 100% सही है कि वर्ग विभाजित समाज में इस परिभाषा के अनुरूप कोई लोकतंत्र नहीं होता। जहाँ मुट्ठी भर लोग उत्पादन के प्रमुख संसाधनों के मालिक बन बैठे हो और शेष जनता गरीबी- तंगहाली-भुखमरी के कगार पर खड़ी हो, जहाँ थोड़े से लोग ही आधुनिक शिक्षा से लैश हो सकते हो और शेष जनता अनपढ़-गँवार होने के लिये मजबूर हो अथवा अवैज्ञानिक, अतार्किक शिक्षा प्राप्त करके गुलाम बन चुकी हो ऐसे समाज में लोकतंत्र होने की कल्पना करना मूर्खता है।
जहाँ 90प्रतिशत जनता गरीबी- तंगहाली भुखमरी, अंधविश्वास, भय-लालच, आतंक एवं अराजकता के कारण तर्क अथवा बहस न कर सकती हो ऐसे समाज को स्वतंत्र मानना तथा ऐसे समाज मे लोकतंत्र होने एवं उसके सुरक्षित रहने का दावा करना सरासर बेईमानी है। क्योंकि समता स्वतंत्रता और लोकतंत्र एक दूसरे के पूरक होते हैं, किसी एक के बगैर शेष दोनों का अस्तित्व असंभव है। वर्तमान वर्ग विभाजित समाज में या तो पूंजीपति वर्ग की तानाशाही चलेगी या मजदूर वर्ग की तानाशाही चलेगी। जैसे हमारे देश भारत में लोकतंत्र के नाम पर पूँजीपति वर्ग की तानाशाही चल रही है।
इस लोकतंत्र में लोक का कोई महत्व ही नहीं है, सिर्फ पूंजी का महत्व है। पूंजीपति वर्ग लोक को अधी भेड़ समझता है। वह अपनी तानाशाही को अपनी शातिर मीडिया के बल पर लोकतंत्र कहकर प्रचारित करवाता रहता है। यह झूठा प्रचार इतना अधिक करवाया जाता है कि लोग इसे सही समझने लगते हैं।
पूंजीवादी लोकतंत्र के मध्यम से आम जनता का कोई भी नुमाइन्दा राजसत्ता के करीब तक फाटक नहीं सकता। मगर राजनीतिक अंधविश्वास से भ्रमित बहुसंख्यक जनता राजसत्ता की चाभी पाने के लिए पूँजीवादी लोकतंत्र में शामिल होती रही है। जनता इस पूंजीवादी लोकतंत्र के माध्यम से आजादी से लेकर अभी तक पिछले 73 सालों में कभी भी अपनी राजसत्ता कायम नहीं कर पायी। कोई भी चुना गया हो मगर राजसात चन्द पूंजीपतियों के हाथों में ही रही।
बहुसंख्यक जनता सड़कों पर नारे लगाती रही है कि “वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा! नहीं चलेगा!” परन्तु पूरी दुनिया के पूंजीवादी लोकतंत्र के इतिहास में मुठ्ठी भर वोट वाले ही राजसता पर काबिज रहे हैं। सरकार बदली, पार्टियां बदली, पदो पर बैठे व्यक्ति बदले मगर राजसता की चाभी मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हाथ में ही रही। शासक वर्ग पैसा पानी की तरह बहा कर प्रचार करता रहा है कि लोकतंत्र आ गया है, अब राजा रानी के पेट से नहीं, बल्कि जनता के वोट द्वारा मतपेटी से पैदा होगा। मगर मतपेटी से कभी भी मेहनतकशों के हाथ में राजसत्ता नहीं आ सकी।
पूँजीवादी लोकतंत्र के हर चुनाव में जनता हारती रही:-
हर चुनाव बाद जनता ने यही कहा है कि इससे बढ़िया तो पहले वाला ही था। यहाँ तक कि नेहरू की सरकार थी तो लोगों ने कहा कि इससे बेहतर अंग्रेज की सरकार थी। अंग्रेजों के जमाने में भी लोग कहते थे कि इससे बेहतर तो इसके पहले वाले वायसराय का शासन था। इससे यह सिद्ध होता है कि मेहनतकशों के श्रम की लूट लगातार बढ़ती गयी है। सत्ता की कुर्सी पर चाहे कोई भी किसी भी जाति धर्म का व्यक्ति बैठा हो, श्रम की लूट में कोई कमी नहीं आयी। अतः हर चुनाव में जनता हारती रही और शोषक वर्ग जीतता रहा है।
पूँजीवादी लोकतंत्र (फूट डालने का हथियार) :-
जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद के झगड़ों से कभी भी मेहनतकश जनता के हाथ में सत्ता नहीं आयी है और न ही कोई अधिकार मिला है बल्कि इस तरह के झगड़े लगाकर हमेशा गरीबों के अधिकार छीने जाते हैं तथा श्रम के शोषण को जायज ठहराया जाता रहा है।
श्रम की लूट ही समस्या की असली जड़ रही है मगर लोगों को बताया गया कि बड़ी जाति के नेताओं ने सत्ता में बैठकर दलितों पिछड़ों के साथ की है। परन्तु दलित एवं पिछड़े नेताओं को भी दिल्ली की कुर्सी पर बैठाकर देखा गया लेकिन समस्यायें बढ़ती ही रहीं। कुछ लोगों ने सोचा कि हमारी जाति का प्रधानमंत्री होता तो हमारी जाति की दशा सुधर जाती परन्तु जिन जातियों के मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री हो गये तो क्या उन जातियों की समस्यायें हल हो गयी?
रजनीश भारती