गांधी उन चंद लोगों में से हैं जिनकी प्रतिमा उनके जीते जी तैयार की गयी। बापू की पहली प्रतिमा गांधी की सलाह और मंजूरी के बाद ही सामने आयी। निश्चित रूप से यह एक बडी चुनौती थी कि उनके किस रूप को प्रतिमा में ढाला जाये। दरभंगा के महाराजा का सख्त निर्देश था बिना गांधी को दिखाये प्रतिमा को अंतिम रूप न दिया जाये। दरभंगा महाराज के स्वामित्व में छपनेवाला अखबार मिथिला मिहिर ने ही सबसे पहले गांधी के आगे महात्मा लिखा था।
बुद्ध को अगर गया में ज्ञान प्राप्त हुआ तो गांधी को चंपारण में एक नया नजरिया मिला। गांधी अपनी पहली प्रतिमा में बुद्ध की तरह ध्यानमग्न हैं। एक संत, एक महात्मा की छवि को स्थापित करने के पीछे चर्चिल की भतीजी और दरभंगा महाराज की क्या सोच रहा होगा।
इसका अंदाजा तो नहीं लगाया जा सकता लेकिन इस प्रतिमा ने गांधी की इतनी गहरी छवि प्रस्तुत की कि गांधी की हत्या के बाद वायसराय माउंटबेटन ने गांधी को बुद्ध और ईशा के समतुल्य बताया। माउंटबटन ने लिखा है कि यदि इतिहास आपका निष्पक्ष मूल्यांकन कर सका तो वो आपको ईसा और बुद्ध की कोटि में रखेगा।
कब कैसे किसने वायसराय हाउस में रखी इस प्रतिमा को बोरे में बंद कर के दिल्ली से बॉम्बे पहुंचा दिया पता नहीं, लेकिन गांधी केवल अपने भाषण, लेखन या जीवन शैली से ही नहीं अपनी प्रतिमा से भी लोगों को अपना संदेश देने का काम किया।
आज विश्व में गांधी की सर्वाधिक मूर्ति है, लेकिन उनके जाने के बाद बहुत कम ऐसी प्रतिमाओं का निर्माण हुआ जिसकी मुद्रा गांधी के संदेश को आप तक पहुंचाने का काम करती हो। इस मामले में भी गांधी अपना काम खुद कर गये।