गांधीजी के संदर्भित पत्र को उद्धृत करने के पूर्व, भूमिका में, मधु लिमये लिखते हैं कि जब 1908 में लोकमान्य तिलक को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो ब्रिटिश हुकूमत का इरादा साफ था।ये विदेशी हुकूमत उग्र राष्ट्रवाद को जड़मूल से उखाड़कर फेंक देना चाहती थी।स्वराज्य की हठपूर्वक मांग करने वाले हिंदुस्तानियों को आतंकित करने के लिए तिलक को6साल के कारावास की सजा दी गई और सजा काटने के लिए उन्हें मंडाले (बर्मा) भेज दिया गया।
तिलक के मुकदमे और सजा का उनके समकालीन लोगों पर गहरा असर पड़ा। बंबई के कपड़ा मजदूर इस बर्बर सजा के विरोध में अपने आप हड़ताल पर चले गए।लेनिन को भी इस हड़ताल का हवाला देते हुए यह कहना पड़ा कि यह हड़ताल हिंदुस्तान में राष्ट्रीय जागरण का संकेत है।
तिलक की जी भरके प्रशंसा करते हुए भी गांधीजी ने उनकी कार्यशैली से विनम्रतापूर्वक अपनी असहमति व्यक्त की।उनका दावा था कि तिलक के अवरोधात्मक (agitational) तरीके की बजाय उनका सत्याग्रह का हथियार जादा शक्तिशाली है लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि उनका रास्ता गोखले और फिरोजशाह मेहता जैसे उदारवादियों जैसा था।
मद्रास के एक देशभक्त राजनीतिज्ञ और प्रकाशक जी. ए. नाटेसन को लिखे अपने एक पत्र में गांधीजी ने, उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले उदारवादियों की नीतियों की कमजोरियों पर भी वजनदार शब्दों में प्रकाश डाला था।
हेगीलियन शब्दों में, गांधीजी नरमपंथियों (विचार-thesis) और गरमपंथियों (प्रति विचार-antithesis) के नजरिये के नये समन्वय के ऊंचे धरातल को टटोल रहे थे।नए युग के मसीहा के रूप में महात्मा गांधी के उभरते ही, हिंदुस्तान के राजनीतिक मंच पर दस साल बाद जो गुणात्मक परिवर्तन आया, उसका पूर्वाभास इस पत्र में होता है.
लोकमान्य तिलक की सजा!
“महान देशभक्त मिस्टर तिलक को दी गई सजा को दी गई सजा बड़ी भयंकर है।ट्रांसवाल के हिंदुस्तानियों को दी गई कुछ दिनों के कारावास की सजा तो6साल के कारावास की तुलना में कुछ भी नहीं है।
“ये सजा जितनी भयानक है उतनी आश्चर्यजनक नहीं है।साथ ही साथ इसमें अफसोस करने की भी कोई बात नहीं है।
“जिस सरकार का हम तिरस्कार करना चाहते हैं वह अगर हमारे खिलाफ दमनकारी हथकंडे अपनाती है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
मिस्टर तिलक इतने विद्वान और महान आदमी हैं कि इस देश में, उनके कामों के बारे में लिखना, एक तरह से धृष्टता ही होगी। अपने कार्यो से इस देश की जो सेवा उन्होंने की है, उसके लिए वे अभिनंदनीय हैं। उनकी सादगी असाधारण है; लेकिन उनकी विद्वत्ता का प्रकाश यूरोप तक पहुंच गया है।
“फिर भी, जिन्हें हम महान मानते हैं, उनकी नीतियों का हमें अंधानुकरण नहीं करना चाहिए। “मिस्टर तिलक की सजा से भयभीत होने या घबराने की बजाय अगर लोग खुशी मनाते हैं और अपना साहस बनाए रखते हैं तो अंत में ये सजा वरदान ही सिद्ध होगी।
हमें तो यह सोचना है कि क्या हिंदुस्तानियों को मिस्टर तिलक और उनकी पार्टी के विचारों को कबूल करना चाहिए? काफी सोचविचार के बाद हमारा कहना है कि मिस्टर तिलक की राय को हमें नामंजूर कर देना चाहिए।
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“हमारा ये विश्वास है कि ब्रिटिश राज से अपनी बात मनवाने के सरलतम तरीका, सत्याग्रह के रास्ते को अपनाना ही है। अगर ब्रिटिश हुकूमत अत्याचारी बन जाती है तो सत्याग्रह का मुकाबला करने की कोशिश करते ही ब्रिटिश सरकार समाप्त हो जायेगी। मिस्टर तिलक की सजा के विरोध में जो मजदूर हड़ताल पर चले गए थे, वे अगर सत्याग्रही बन जाते तो किसी भी समुचित मांग को सरकार से मनवाने में वे कामयाब हो जाते।
“इस प्रसंग में हमारा कर्तव्य क्या है?
हालांकि श्री तिलक और उनके जैसे अन्य महान हिंदुस्तानी हमसे जुदा राय रखते हों, फिरभी हमें उनके प्रति असीम आदर प्रकट करते रहना चाहिए।कष्ट सहन करने की उनकी क्षमता की हमें बराबरी करना चाहिए।
चूंकि वे देशभक्त हैं, इसलिये उनका सम्मान करने में हमें कोई कमी नहीं करनी चाहिए और उनकी जैसी ही देशभक्ति की भावना से काम करना चाहिए। उनका और हमारा मकसद एक ही है कि मातृभूमि की सेवा करना और इसकी संपन्नता के लिए कार्य करना।
इस मकसद को हासिल करने के लिए वे लोग जो कुछ कर रहे हैं, उसकी तुलना में हमने जो रास्ता अख्तियार किया है, वह कोई कम कठिन नहीं है। लेकिन हमें विश्वास है कि हमारी कोशिशों का नतीजा हजार गुना बेहतर निकलेगा।”