ये चार सबसे बड़े नायाब हीरे हैं, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के। नेहरू को गांधी के खिलाफ खड़ा किया जाना सम्भव नही।।इसलिए सुभाष और भगतसिंह का नाम लेकर गांधी को मलिन करने की कोशिश होती है। इसके साथ शादीलाल और शोभा सिंह को भी गालियां दी जाती है। कुछ तथ्य ठीक से समझने की जरूरत है।
पहली बात, भगतसिंह को सजा सेंट्रल असेम्बली में बम फोड़ने के लिए नही हुई थी। याद कीजिये, भगत के साथ बम फोड़ने में बटुकेश्वर दत्त साथ थे। बटुकेश्वर को एक्सप्लोजिव एक्ट में आजीवन कारावास हुआ। कालापानी गए, मगर तपेदिक की वजह से प्रिमेच्योर छोड़ दिये गए। दत्त ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। याने आरोप सिर्फ बमबाजी का होता तो भगत भी इसी तरह की सजा पाते।
मगर बम कांड में गिरफ्तार होते वक्त भगत के पास एक पिस्तौल भी थी। जाँच में सामने आया कि इसी पिस्तौल से निकली गोली ने पंजाब के एक पुलिस अफसर सांडर्स की जान ली है। भगत ने आरोप स्वीकार किया। भरी कोर्ट को बताया कि उन्होंने लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिए सांडर्स की हत्या की थी। मामला एक्सप्लोजीव एक्ट का नही, मर्डर का था। अभियुक्त की स्वीकारोक्ति के बाद, सजा वही तय हुई जो होनी थी – हैंग टिल डेथ।
जो लोग सर शादीलाल या शोभा सिंह को गद्दार घोषित करते हैं। वे भी कन्फ्यूज हैं। दोनों बन्दे बमकांड के वक्त असेम्बली में मौजूद थे। वे गिरफ्तारी के गवाह थे। शिनाख्त की थी बम कांड में, सांडर्स मर्डर में नही। तो फांसी का आधार उनकी गवाही नही, बल्कि हंसराज वोहरा की थी।
भक्त सवाल करते हैं कि बड़े गांधी नेहरू बड़े वकील बने फिरते थे, तो भगत का केस क्यों न लड़ा????
उस दौर में पढ़ने का मतलब वकालत था, जैसे आजकल हर निकट्टू पढ़ाई के नाम पर इंजीनियरिंग कर लेता है, मगर करता कुछ और है ।चेतन भगत ने आईआईटी से बी टेक किया, लेकिन वो किताबें लिखते है। ठीक वैसे ही, गांधी और जवाहर डिग्री जरूर लिए थे एलएलबी की, मगर क्रिमिनल ला के प्रेक्टिशनर नही थे। मोतीलाल नेहरू सिविल मामलों याने जमीन जायदाद के वकील थे। वकील वल्लभभाई पटेल भी थे, वह भी सिविल मामले के स्पेशलिस्ट थे।
कांग्रेस में उस वक्त फौजदारी के बड़े वकील थे- आसफ अली। उन्हें लगाया गया था इस काम पर। यहां तक कि जिन्ना ने भी मामले में पैरवी की, पर वो राजद्रोह के मसले पर कर रहे थे। राजगुरु और सुखदेव ने आसफ अली को वकील स्वीकार किया।
भगत ने वकील लेने से इनकार कर दिया था। भगत अपनी पैरवी खुद करते, कोर्ट में जबरजस्त स्पीच देते। प्रेस कवरेज होती, और वही आग्नेय भाषण.. भगत का वो लीजेंड बना गए जो आप आज जानते हैं।
तो सजा हो गयी। सविनय अवज्ञा आंदोलन का दौर था। गाँधी वो लिजेंड्री गांधी न थे। एक आंदोलन किया था, जो वापस ले लिया था। मगर अंग्रेजो के पर्याप्त सरदर्द थे। कांग्रेस ने सजा माफी के लिए दबाव बनाया। गांधी ने चिट्ठियां लिखी। मगर गवर्नर पोलिटिकल दबाव में सजा माफ नही करते।
अगर सजा कम्यूट भी करनी हो, उंसके लिए कम से कम आवेदन चाहिए होता है। भगत ने आवेदन देने से साफ मना कर दिया। भगत के घरवालों ने आवेदन देने से इनकार कर दिया। उल्टे भगतसिंह ने फांसी की जगह गोली से उड़ाए जाने की मांग करती हुई चिट्ठी लिखी। सुविधाओं के लिए जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। सरकार की किरकिरी होने लगी।
ये भी पढ़ें: सिद्धार्थ शुक्ला के निधन पर फिल्म इंडस्ट्री में शोक की लहर…
उधर पंजाब में सिविल सर्वेंट ने भगत की सजा रोकने या बदलने के खिलाफ सामूहिक इस्तीफे की धमकी दे दी। 24 मार्च 1931 से कांग्रेस का कराची अधिवेशन था। निकलने से पहले गांधी ने इर्विन को फिर चिट्ठी लिखी। उन्हें नही पता था, पिछली रात भगत सिंह को फांसी दी जा चुकी है।
गांधी न प्रधानमंत्री थे, न राष्ट्रपति, न सांसद, न नेता विपक्ष। जितना उनके बस में था, किया। जो मर्डर स्वीकार रहा हो, वकील न ले रहा हो, खुलकर अपनी करनी को जस्टिफाई कर रहा हो, शहीद होने का जिसे जुनून हो। उसे कोई आन्दोलनरत पार्टी या नेता बचाने की ऐसी क्या तरकीब लगाए..
.. जो तरकीब लगाए, वह तरकीब हिन्दू महासभा, आरएसएस और सावरकर को भी अपनानी चाहिए थी। तब कहाँ थे मितरों !!!
मनीष सिंह