अपनी बात कहूँ, उसके पहले मन में बसे एक पुराने किस्से को सुनाता हूँ, किस्सा सन 2006 के नवम्बर-दिसंबर महीने का है और गोरखपुर का है, तब गोरखपुर में मै शहर से बाहर शास्त्रीनगर मोहल्ले में रहता था, यह मेरे जीवन के वे अँधेरे दिन थे, जिनका जिक्र मै प्रायः नहीं करता |
एक रात अपनी मोटरसाईकिल पर, जबकि रात के एक बज रहे थे, हल्की धुंध सड़क पर पसरी थी और अपने सारे काम निपटा मै घर लौट रहा था | मुझे घर लौटने की कोई जल्दी नहीं थी, शहर में रुकने की कोई वजह नहीं होती थी, और घर लौटने का कोई आकर्षण नहीं होता था, पर काम तो ख़तम करना ही होता था और सोने के लिए एक ठिकाना होना ही था तो काम के लिए शहर और सिर्फ सोने के लिए घर से मतलब बचा हुआ था |
मेरी मोटरसाइकिल मुश्किल से किसी साइकिल की गति से चल रही थी और शहर से घर लौटते सूनी सड़क पर मेरे बावले मन नें गाना शुरू कर दिया “ना कोई इस पार हमारा, ना कोई उसपार | सजनवा बैरी हो गए हमार, करमवा बैरी हो गए हमार |” सड़क उतनी ही सूनी थी जितना सूना उस वक़्त मेरा मन था और मौसम सड़क मन और मेरी आँखे सब की सब गीली थी, अपने अकेलेपन में, अकेलेपन के लम्बे बरसो के विस्तार में यह अकेला गाना था जो अक्सर बरबस मेरे होठों पर आ जाता था और सूनी लम्बी सड़क उतनी ही सूनी उतनी ही गीली थी जितना सूना जितना गीला मेरा मन था और मैं धीमी-धीमी गति से मोटरसाइकिल चलाते अपने में खोया गाये जा रहा था “सूनी सेज, गोंद मेरी सूनी, मरम न जाने कोय |ना कोई इसपार हमारा ना कोई उसपार |”
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अकेलेपन के गहन अहसास से मेरे सुर ऊँचे हो गए, रात के सूनेपन में मेरी आवाज दूर दूर तक जा रही थी | दूर काफी दूर एक पानवाला अपनी दुकान बंद करने जा रहा था और उसके आखिरी चार-पाँच ग्राहक सबने हवाओं में बहते मेरे गीत को सुना और सब के सब सड़क पर आ गए, वो दूर से क्रमशः करीब आते मेरे सुर को सुनते उत्सुकता से उस वावले का इंतज़ार करने लगे जो आज के दौर में भी, इतने ऊँचे सुर में, इतने पुराने और ठेठ भदेस गाने को गा रहा हो और जैसे ही मैं करीब पहुंचा सब के सब बेसाख्ता ही बोल उठे … “वाह!”
उनकी वाह से मै अपनी दुनियाँ में लौट आया था |
दुनियां भर के गीतों में, एक अकेला यह गीत मेरे मन के इतना करीब क्यों है ? यह गीत हीरामन, जो एक बैलगाड़ी वाला है एक नौटंकी वाली हीराबाई को सुनाता है, और फिल्म है तीसरी कसम | महुआ की कहानी सुनाते सुनाते हीरामान महुआ के प्रेम के साथ साथ अपने प्रेम की आंच में सीझ रहा होता है, यह गीत क्लोज़ शॉट और लॉन्ग शॉट के अदभुद मिश्रण में है, क्लोज शॉट में राजकपूर और वहीदा का अदभुद अभिनय और लॉन्ग शॉट में बोलता सा परिदृश्य |
फिल्म जगत में, मेरी समझ में, हीरामन को यथार्थ में बदलने के लिए, पृथ्वीराज कपूर के साथ उनकी नाटक मंडली के साथ साथ भटकते यायावर राजकपूर के जो जीवन अनुभव थे वे बेहद महत्वपूर्ण थे, यह बचपन के वे अनुभव ही थे, जो शहरी बम्बइया राजकपूर को भदेस भी बनाते थे, अपने जीवन के इस घुमंतूपन और भदेसपन को राजकपूर ने हीरामन में ढाल दिया, हीरामन राजकपूर के मन में पलता एक अनगढ़ पात्र था, जिसने तीसरी कसम में आकार लिया | हीरामन का द्वंद अजीब है, वह गलती करता है और सीखता है, अपनी सीख को पक्का करने के लिए उसे एक कसम में बदल देता है और आगे बढ़ जाता है |
हीरामन का यह चरित्र मेरा जीवन चरित्र रहा है, मैंने कदम कदम पर गलतियां की, उनसे सीख ली, और उस सीख के साथ उसे हमेशा ही पक्का करने के लिए, अपने लिए हमेशा ही मैंने एक यम तय किया, पर उस गलती को दुहराना या वहाँ से बंध कर कभी नहीं रहा, अपने अतीत के सियाह पन्नो से मैं हमेशा आगे निकल लिया, उन्हें न दुहराने के संकल्प के साथ और हीरामान के तरह मैंने हमेशा एक नई शुरुआत की, मैनें हमेशा जीवन से प्यार किया, जीवन को परमात्मा की दिया अनमोल तोहफा मान मैनें हमेशा उसकी कद्र की और मै जीवन से टूट कर प्यार करता हूँ,
यह भाव हीरामन में भी दीखता है, हिरामन स्वाभिमानी है, लिहाजा उसकी पीड़ा खुद मुखर हो के बाहिर नहीं आती, अपने में खोए, महुआ की पीर बताता हीरामन जब गा रहा होता है “चिठिया हो तो हर कोई बांचे भाग न बांचे कोई | करमवा बैरी हो गए हमार |” तो यह उसकी भी पीड़ा है, पर हीरामन का गवई स्वाभिमान अपनी पीड़ा, महुआ की पीड़ा के जरिये निकाल रहा होता है, हीरामन प्रेम करना जानता है, यह प्रेम अपनी बैलगाड़ी बैलों, साथ के गाड़ीवानो, अपनी भौजी भतीजो के साथ साथ नौटंकी की पतुरिया तक विस्तारित है, पर सहज है, संतुलित है,
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मर्यादित है अपनी सीमाओं में है, दूसरा भले मर्यादा के बाहर हो पर हीरामन अपनी मर्यादा जानता है, तो हीरामन जब महुआ की पीर बाटते गा रहा होता है “जाई बसे परदेस सजनवा, सौतन के भरमाये | ना संदेस ना कोई खबरिया, रुत आये रूत जाए | डूब गए हम बीच भंवर में, कर के सोलह पार | सजनवा बैरी हो गए हमार |” तो यह सिर्फ महुआ की मर्यादित पीर नहीं हीरामन की भी पीड़ा है और यही पीड़ा इस गीत को मुझसे जोड़ती है |
यह गीत एक तरफ यायावर का कथन है तो दूसरी तरफ दुनियावी चहल पहल के बीच एक आदमी का एकान्तिक रुदन भी है, एक ऐसे आदमी जो शहर की भीड़भाड़ के बीच अपनी बैलगाड़ी से चलता चला जा रहा है, उसका होना उसका यथार्थ है और उसका यथार्थ आज के परिवेश की चमक-दमक के पैरों को चुभता रोड़ा है | दोनों हैं, दोनों को रहना है, दोनों एक दूसरे के सहारे है और एक दूसरे के विरोधी है |
इस चमक-दमक भरे शहरी जीवन में, अपनी कार ड्राइव करते बरबस ही जो गीत मेरे होठों पर आ जाता है, बार बार आता है, शायद इतनी वजह भी, इस गीत को मेरा सबसे पसंदीदा गीत बताने के लिए अपर्याप्त है |
कश्यप किशोर मिश्र