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पीओके में चुनाव और भारत की चुप्पी

मुस्लिम टुडे by मुस्लिम टुडे
जुलाई 26, 2021
in देश, भारतीय, राजनीति
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इमरान खान की पार्टी के नेता और पूर्व विधायक ने भारत से मांगी राजनीतिक शरण
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रविवार को पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर (पीओके) में वोटिंग है। उससे पहले पाकिस्तान की संसद ने 10 जून 2021 को एक बिल पास करवाया था, जिसमें देश से बाहर रह रहे पाकिस्तानियों को ईवीएम के माध्यम से वोट देने का अधिकार दिया गया है। अब सवाल यह है कि इस विधेयक की परिधि में क्या वो प्रवासी कश्मीरी भी हैं, जिनका पीओके से नाता रहा है? पाकिस्तान के मुख्य चुनाव आयुक्त सिकंदर सुल्तान राजा इस सवाल पर चुप हैं कि ऐसे मतदाताओं का क्या होगा?

एलेक्शन कमीशन ऑफ पाकिस्तान (इसीपी) ने एक बैठक बुलाई और विरोध प्रकट किया कि चुनावी सुधार पर बिल है, और चुनाव आयोग की कोई राय नहीं ली गई। आयोग के अध्यक्ष ने इलेक्शन आइन-2017 के हवाले से कहा कि जो कुछ उस क़ानून में है, उसे ताक पर रखते हुए इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन, जिसकी विश्वसनीयता संदेह के घेरे में है, उसे सरकार पूरे देश में ज़बरदस्ती लागू करवाना चाहती है। ‘इसीपी’ ने इमरान सरकार को अपना लिखित प्रतिरोध भेज दिया है कि पहले पायलट प्रोजेक्ट पर बहस करा लेते कि ईवीएम में कितना गड़बड़झाला है, फिर इसे लागू करने पर सोचते।

रविवार 25 जुलाई 2021 को पीओके में वोट और उसके प्रकारांतर मतगणना के बाद यह स्पष्ट हो जाएगा कि इमरान ख़ान की सरकार ने वहां क्या खेल किये, ईवीएम के ज़रिये मतदान कराया या नहीं। पीओके में अलग से चुनाव आयोग है, जिसमें एलेक्शन कमीशन ऑफ पाकिस्तान का कोई दखल नहीं है। यह आयोग पीओके के अंतरिम संविधान 1974 के आधार पर काम कर रहा है। दो सदस्यीय पीओके चुनाव आयोग के प्रमुख हैं, राजा मोहम्मद फारूख़ नियाज़, और उनके दूसरे सहयोगी हैं फरहत अली मीर, दोनों लाहौर में पढ़े और पंजाब के बताये जाते हैं। राजा मोहम्मद फारूख़ नियाज़ 5 अप्रैल 2021 को पीओके चुनाव आयोग के मुख्य आयुक्त बनाये गये। शक होना लाज़िमी है कि नये चुनाव आयुक्त इमरान ख़ान के इशारे पर काम न करें।

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इमरान ख़ान प्रचार के अंतिम चरण में 19 जुलाई को पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर की राजधानी मुजफ़्फराबाद में थे। इस जलसे के जो विजुअल आये, उसे देखने पर साफ पता चल रहा था कि भीड़ में न तो किसी ने मास्क पहन रखा था, न मंच पर। पीओके विधानसभा में 53 सीटें हैं। उसमें से 33 सदस्य 10 ज़िलों से प्रत्यक्ष चुनाव के आधार पर चुने जाते हैं। पाकिस्तान के चार प्रांतों में बसे कश्मीरी शरणार्थियों के वास्ते 12 सीटें रिजर्व हैं, एक सीट विदेश में बसे कश्मीरी के वास्ते है, पांच सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, और एक सीट टेक्नोक्रैट व एक सीट उलेमा-ए-दीन के लिए रिजर्व है। सूबे में सीएम की जो कुर्सी होती है, उसे ‘प्रधानमंत्री’ बोला जाता है। पीओके के विदेश मंत्री ढूंढेगें, नहीं मिलेंगे।

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पिछला चुनाव 21 जुलाई 2016 को हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप पीएमएल (नवाज़) को 31 सीटें मिली थीं। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को तीन, मुस्लिम कांफ्रेंस को तीन और इमरान ख़ान की पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ (पीटीआई) को कुल दो सीटें मिली थीं। प्रधानमंत्री बनने के बाद इमरान ख़ान लगातार मुजफ़्फराबाद, मीरपुर आते रहे, और जलसे करते रहे। कश्मीर इश्यू संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ ले लेकर इस्लामाबाद तक इमरान ख़ान की ज़ुबान पर सोते-जागते सवार रहा है। इमरान भारत से दोस्ती की कसमें खाते, कश्मीर ज़रूर ले आते। इमरान ख़ान के अस्तित्व का सवाल है कि पीओके में उनकी पार्टी की सरकार बने। ऐसा नहीं हुआ, तो मानकर चलिये कि इमरान ख़ान की कश्मीर नीति फुस्स हो गई।

एक सवाल यह भी है कि सीमा पार चुनाव को भारत की राष्ट्रवादी सरकार मूकदर्शक होकर देखती रहे, या उसपर कुछ बोले भी? कम से कम बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चाहिए कि इसपर स्पष्टीकरण दे कि ‘गु़लाम कश्मीर’ का चुनाव वैध है, या अवैध? बड़ा अजीबोग़रीब लगता है कि भारत जब भी जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराता है, 24 सीटें उन महानुभावों के वास्ते रिज़र्व रखता है, जो सीमा पार ‘ग़ुलाम कश्मीर’ के वासी हैं। क्या कभी किसी ने देखा कि वो 24 विधायक कौन हैं, पीओके में कहां रहते हैं? यह सीटें एक अज़ीबोग़रीब संवैधानिक मज़ाक बनकर रह गई हैं। इसे या तो 1988 में बने जम्मू-कश्मीर कांस्टीट्यूशन एक्ट को संशोधन कर विराम दीजिए, या फिर 24 सीटें भरिये। दूसरी बात यह भी है कि इस्लामाबाद में बैठा कोई शख्स भारतीय निर्वाचन आयोग की देखरेख में जम्मू-कश्मीर  में हुए चुनाव पर सवाल करता है, तो भारत के राष्ट्रवादी नेताओं को चाहिए कि पीओके में अभी हो रहे चुनाव के हवाले से उसका स्कोर सेटल करें।

प्रश्न यह है कि पिछले तीन दशकों से पाकिस्तान जिस तरह जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उछालता रहा, यहां हुए चुनावों पर सवाल करता रहा, उसे काउंटर करने के वास्ते हमने क्या किया? हम हमेशा बचाव की मुद्रा में क्यों रहे? लंदन से बर्लिन तक अनेकों भारतीय कूटनीतिक मूकदर्शक होकर कश्मीर पर पाकिस्तान की बेशर्मी देखते रहे हैं। अब्दुल बासित नई दिल्ली में हाई कमिश्नर नियुक्त होने से पहले बर्लिन में पाक राजदूत थे। बासित ने कूटनीतिक तहज़ीब को ताक पर रखकर बर्लिन में हर साल ‘कश्मीर दिवस’ का आयोजन किया था। अफसोस कि भारत की ओर से इसे काउंटर करने का प्रयास उतनी शिद्दत से नहीं किया गया।

दिक्कत यह है, एफबीआई द्वारा दबाव के बावज़ूद, जम्मू-कश्मीर पर दुष्प्रचार की हरकतें रूकी नहीं हैं। इन्होंने ‘कश्मीर वाच डॉट कॉम’ जैसे दर्जनों वेब पेज निकाले, सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म का इस्तेमाल आरंभ किया। 30 अप्रैल 2018 को बैरिस्टर मज़ीद ट्रांबो ने ब्रसेल्स प्रेस क्लब में कश्मीर के सवाल पर कुछ एमईपी, शिक्षाविद और पत्रकार बुलाये। इसी मौके़ पर ‘ब्रूज्ड कश्मीर’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री दिखाकर यह बताने की चेष्टा की गई कि पीएम मोदी की सरकार कश्मीरियों को कितना चोट पहुंचा रही है। 370 को निरस्त करने के बाद और आग लगाई गई। अमेरिकी खुफिया एफबीआई ने इनकी नापाक हरकतों को समय-समय पर जिस तरह एक्सपोज़ किया, कश्मीर की आज़ादी के नाम पर फंड के फर्जीवाड़ा करने वालों की गिरफ्तारियां कराईं, अफसोस भारत के रणनीतिकारों ने उसका फायदा नहीं उठाया।

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2016 में जो चुनाव पीओके में हुआ, उसके परिणाम के बाद पीएमएल (नवाज़) के नेता राजा फारूक़ हैदर ‘प्रधानमंत्री’ बने और ‘राष्ट्रपति’ बनाये गये पाकिस्तान के पूर्व कूटनीतिक मसूद ख़ान। राजा फारूक़ हैदर का भी लाहौर कनेक्शन रहा है। पीओके में ज़्यादातर ‘प्रधानमंत्री’ पंजाब कनेक्शन वाले ही बने हैं। इन्होंने ‘एकेजी कौंसिल’ बना रखी है, उसका सचिवालय इस्लामाबाद में है। यह सुप्रीम बॉडी है, जिसका काम पीओके प्रशासन का संचालन करना होता है। इसके 14 सदस्यों में से 8 पीओके से और 6 सदस्य पाकिस्तान सरकार की ओर से तैनात होते हैं।

दिखाने के वास्ते इस कौंसिल के चेयरमैन पीओके के ‘पीएम’ बनाये जाते हैं, मगर सच यह है कि सारे आदेश पाकिस्तान का प्रधानमंत्री जारी करता है। पीओके के वास्ते जज से लेकर, चुनाव आयोग के अध्यक्ष की कुर्सी पर किस कठपुतली को बैठाना है, वह ‘एकेजी कौंसिल’ नहीं, दरअसल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तय करते हैं। पीओके के वास्ते वर्ल्ड बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय इदारे से फंड चाहिए, तो वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दिखाना पाकिस्तानी निज़ाम की मज़बूरी होती है।

जेनेवा स्थित यूएन हाईकमिश्नर फॉर ह्यूमन राइट्स कार्यालय ने जून 2016 से अप्रैल 2018 तक दोनों तरफ के कश्मीर में किस तरह से मानवाधिकारों का हनन हुआ, उसकी 49 पन्नों की एक रिपोर्ट जारी की। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं कहां डंडी मारती हैं, उसकी नज़ीर है यह रिपोर्ट। भारतीय हिस्से वाले कश्मीर में क्या कुछ हुआ, उसपर 41 पन्ने में ब्योरा दिया, और आठ पन्नों में पीओके, गिल्गिट-बाल्टिस्तान में होने वाले कि़स्सा-ए-सितम को समेट दिया। यों, उन आठ पन्नों में इस्लामाबाद द्वारा रिमोट से सत्ता चलाने और पीओके में दमनचक्र की दास्तां ज़रूर लिखी गई। नहीं लिखते, तो धरे जाते।

पाकिस्तान ने अपने अवैध कब्ज़े वाले कश्मीर को दो प्रशासनिक हिस्सों में बांट रखा है। एक है, ‘पीओके’, और दूसरा है गिलगिट-बाल्टिस्तान। ‘पीओके’ के कई नाम हैं। पाकिस्तान वाले पीओके को ‘आज़ाद कश्मीर’ बोलते हैं, भारत में कुछ लोग इसे ‘पाकिस्तान के कब्ज़े वाला कश्मीर’, तो कुछ ‘ग़ुलाम कश्मीर’ भी बोलते हैं। पीओके में 1960 तक कोई चुनाव नहीं हुआ था। उसके अगले 15 वर्षों, यानी 1975 तक पाकिस्तान का निज़ाम जिसे चाहता, नेता घोषित कर देता। जून 1975 में पहली बार पीओके में चुनाव हुआ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अब्दुल हमीद ख़ान प्रधानमंत्री बने। तब से अबतक नौ प्रधानमंत्री पीओके में निर्वाचित हुए। पीओके में छह बार मुस्लिम कांफ्रेंस को सत्ता में रहने का अवसर मिला, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी चार बार यहां सरकार बना पाई और नवाज़ शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन को सिर्फ़  दो बार 23 अक्टूबर 2009 से 29 जुलाई 2010 और 31 जुलाई 2016 से अबतक सत्ता में रहने का सुख प्राप्त हुआ है।

एक सदनात्मक व्यवस्था वाले पीओके असेंबली की अवधि पांच साल की है। मगर पूरे पांच साल केवल पांच प्रधानमंत्री 1985 में सरदार सिकंदर हयात ख़ान, उनके बाद राजा मुमताज हुसैन राठौर, मुहम्मद अब्दुल कयूम ख़ान और दोबारा से सरदार सिकंदर हयात ख़ान और 2016 में राजा फारूक़ हैदर सत्ता में रहे। बाक़ी के प्रधानमंत्री साल-डेढ़ साल में निपटते रहे। पीओके का राजनीतिक इतिहास को देखते हुए सत्ता में आनेवाला कोई भी प्रधानमंत्री अस्थिरता और उन्माद को दावत नहीं देना चाहता, जिस कारण उनकी कुर्सी के लिए ख़तरा उत्पन्न हो जाए। बाहरी दुनिया को केवल  ये बताए रखना है कि कश्मीर के सवाल पर सभी दल-जमात एक हैं। इसमें जो बात सबसे अधिक अखरती है, वह ये कि भारतीय इंटेलीजेंस और उसकी रणनीति पीओके की अंदरूनी राजनीति को भेद पाने में अबतक असफल रही है। हमने उनके मतभेदों का फायदा नहीं उठाया है!

पुष्प रंजन

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