हम तो क्या भूलते उन्हें ए हसरत,
दिल से वोह भी हमे भुला न सके।।
……मगर हमने बहुत हद तक भुला दिया हसरत को। कुछ वक़्त पहले उनके जन्मदिन पर जब हम उनकी मज़ार पर थे तो हमारा शहर वहाँ से गायब था। उसे नही पता कि उसके दामन में कौन सो रहा है । “इंक़लाब ज़िंदाबाद” का नारा रोज़ चीख चीख कर बोलने वाले तो कबके उन्हें भूल चुके। कृष्ण से अथाह मोहब्बत रखने वाले हसरत को कान्हा प्रेमियों ने भी भुला दिया। आज मौलानाओं के पीछे झूमने वाले लोगों ने भी इस मौलाना के ज़िक्र से अपनी ज़ुबान को दूर रखा । मैं हसरत मोहानी की कब्र पर घन्टो रहा । नँगे पाँव उनकी मज़ार के इर्द गिर्द उनकी बुनी ग़ज़लें गुनगुनाता रहा।
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पाँव में पहुँचती ठंडक ने दिमाग में तूफान सा ला दिया की हसरत क्यों खामोश लेटे हो।उठकर इस शहर से क्यों नही कह देते की तुम्हे फिर ज़रूरत है हसरत की।लखनऊ में मौलवी अनवार बाग़ और अपने पीर ओ मुर्शिद के पैतयाने लेटे हसरत मोहानी हमारे इंतज़ार में ही थे।कोई आए और कहे हसरत बहुत लेट चुके अब उठो और शहर को जगाओ। देखो बेग़म हसरत निशातुन्निसा भी अपने हाथों में लगा आटा धोकर मुल्क़ की बेचैन साँसों को थामने खड़ी हो गई हैं ।
उनका नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन और प्रचलित नाम ‘हसरत मोहानी’ था। वह लखनऊ से सटे उन्नाव के क़स्बा मोहान में पैदा हुए। उनके वालिद का नाम सय्यद अज़हर हुसैन था। हसरत मोहानी ने शुरुआती तालीम घर पर ही हासिल की और बाद कि तालीम अलीगढ़ से पूरी की। अलीगढ़ से ही एक मैगज़ीन ‘उर्दू ए मुअल्ला’ निकाला । स्वदेशी के ज़बरदस्त पैरोकार हसरत इसके लिए जीजान से जुटे रहे । एक लेख लिखने पर वह जेल भेज दिए गए यहीं से आज़ादी की लड़ाई में जेल जाने का उनका सफर शुरू हो गया ।वह कॉंग्रेस में थे और ज़ोरदार तरीके से स्वतंत्रता की बात करते थे,पूर्ण स्वराज्य के प्रबल समर्थक हसरत ने काँग्रेस को भी छोड़ दिया था जब वह उनके पूर्ण स्वराज्य को स्वीकार नही कर पा रही थी ।। हसरत साहब कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के भी संस्थापक सदस्य भी थे। हसरत अपने आखरी वक़्त में पूरी तरह से सूफी संत वाले रँग में थे और लखनऊ में ही अपने मुर्शिद के पास एकांतवास में रहने लगे थे ।हसरत मोहानी का इंतकाल 13 मई 1951 को लखनऊ में हुआ और यहीं रक़ाबगंज के मौलवी अनवार बाग़ में सुपर्द ए ख़ाक भी किया गया।
मौलाना हसरत आज़ादी की लड़ाई की वोह शख्सियत हैं जिनके बगैर आज़ादी की बुनयाद अधूरी है।फिर कह रहे हैं इनको भूल कर, दरकिनार करके सिर्फ खोखलापन ही हाथ आएगा।इन्हें पढ़िए,सीखिये,जब समझ न आए तो पूछिये।तमाम मौलानाओं के गढ़े दायरे को देखिये मौलाना हसरत मोहानी कैसे तोड़ते हैं।
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मज़हब को सुर्ख़ छींटे देकर कृष्ण से इंक़लाब तक के सफ़र को पढ़िए।एक हाथ में क़लम,दूसरे में बाँसुरी और नमाज़ के लिए झुकता हुआ सर और अंग्रेज़ों की आँखों में आँखे डालने वाली चढ़ी हुई सुर्ख़ आँखे,एक इंसान में हज़ार इंसानों की खूबी ही तो मौलाना हसरत मोहानी होना है।उनकी कलम, ज़िन्दगी, संघर्ष को जब देखेंगे सर खुद बखुद झुक जाएगा।जिन्हें उनका कुछ नही पता वह हसरत की लिखी ग़ज़ल”रात दिन आँसू बहाना याद है” सुनकर ही हसरत को याद कर सकते हैं ।
यह भी जानिए इसमे की हसरत कितने दूरंदेश थे कि ख़िलाफ़त की हलचल से निकले उस फैसले को नकार रहे थे,जिसे सब मान रहे थे । तुर्की की टूटन वह देख रहे थे और समझ रहे थे कि बुनियाद दरक चुकी है,हसरत के हर कदम को देखिये,वह आपको हर बार चकित करेंगे ….
हफीज किदवई