भारत को संप्रभु लोकतांत्रिक देश बनाने के लिए हजारों लोगों अपना जीवन कुर्बान किया, तो हजारों लोगों ने सालों-साल जेल काटी। देश की आजादी के लिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ दो तरह के आंदोलन हुए थे, एक अहिंसक और दूसरा सशस्त्र क्रान्तिकारी। इसमें तमाम धनाड्यों ने अपना सब कुछ लुटाकर संघर्ष किया, तो बहुतों ने तन-मन लगा दिया। तमाम यातनाओं और कष्टों से जूझते हुए 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आजाद भारत का झंडा लहराया था।
उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं को सर्वोपरि रखा। नेहरू काल को अति लोकतांत्रिक माना जाता है, जिसमें उनके दल के लोगों को भी खुलकर विरोध करने पर शाबासी दी जाती थी। नेहरू की आलोचना करने वाले लेख और उपहास उड़ाने वाले कार्टून बनाने वालों को भी सम्मान दिया जाता था। संवैधानिक संस्थाओं में दखल न देने की परंपरा उन्होंने ही बनाई थी। अब हालात इतर हैं। सच का आइना दिखाने पर गला घोटने की साजिश की जाती है। पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को अपने सामने घुटनों के बल चलाने के लिए तरकीब लगाई जाती है। जो चारण नहीं करते, उनको मारा जाता है।
मुकदमों में फंसाया जाता है। उन संस्थानों को जांच एजेंसियों के जरिये डराया जाता है। नतीजतन अधिकतर मीडिया संस्थान सत्ता के आगे रेंगने लगे हैं। जिन संवैधानिक संस्थाओं पर न्यायिक व्यवस्था, ईमानदार निर्वाचन और लोकतांत्रिक राज्य स्थापित करने का जिम्मा है, वही सबसे अधिक कदाचार और भ्रष्टाचार में डूबी हैं।
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हमारे देश ने गरीब से गरीब घर के बच्चों को भी सिर पर बिठाया है। लाल बहादुर शास्त्री हों या फिर चौधरी चरण सिंह और नरेंद्र मोदी, डॉ. एपीजे कलाम हों या फिर ज्ञानी जैल सिंह, इन नेताओं को इसी लोकतंत्र ने सर्वोच्च पदों पर बिठाया है। तमाम गरीब, दलित, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के सर्वोच्च पदों पर पहुंचने का रास्ता बनाया है। सामान्य घरों के युवाओं को लोकसेवा के शीर्ष पदों का सुख दिया है। जब ऐसे लोग शीर्ष पदों पर पहुंचते हैं, तो उनसे उम्मीद की जाती है कि वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ करेंगे।
निश्चित रूप से लोकतंत्र मजबूत भी हुआ था, मगर कुछ सालों से जो घटा है, उससे वही लोकतंत्र बदतर हाल में जा रहा है। हालात ये हो चले हैं कि सत्ता में बैठे नेता, अब अपना सबसे बड़ा शत्रु ही लोकतंत्र को मानने लगे हैं। शायद यही कारण है कि वे अब उसी लोकतंत्र का गला घोटने की नीतियां बना रहे हैं,
जिसने उन्हें इन पदों तक पहुंचाया है। इन दिनों हम न्यायपालिका को अन्याय, चुनाव आयोग को मर्यादाएं तोड़ते, लोकसेवकों घरेलू नौकर की तरह सत्तानशीनों की गंदगी साफ करते और मीडिया को उनके एजेंडे सेट करते देख रहे हैं। अब पूछा जाने लगा है कि आप किस पार्टी के अधिकारी-पत्रकार हैं? इन दोनों की विश्वसनीयता खत्म होने लगी है। देश के सजग नागरिक इन्हें सम्मान से नहीं देखते हैं। सेल्फी के दौर में लोग सेल्फिश बन सिर्फ अपने मुनाफे की बात करते हैं।
सरकार लोक कल्याण से अधिक अपने सियासी लाभ के लिए काम करती है। रिश्तों में भी हानि-लाभ देखा जाने लगा है। चुनाव के वक्त नेता खुद को सहृदयी दिखाने के लिए अपने बुजुर्ग पारिवारिक सदस्यों के साथ मजमा लगाते हैं और फिर भूल जाते हैं।
हमारे देश ने मगध का साम्रराज्य देखा है, तो मुगलों की बादशाहत भी। महाभारत काल भी देखा और अंग्रेजी हुकूमत भी। लोकतांत्रिक प्रधानता वाला नेहरू काल देखा है, और इंदिरा गांधी का आपातकाल भी। हमने लाल बहादुर शास्त्री जैसा गरीब घर का विद्वान और सरल प्रधानमंत्री भी देखा है और नरेंद्र मोदी जैसा स्मार्ट ब्रांडेड भी देख रहे हैं।
हमने किसानी करने वाले चौधरी चरण सिंह को भी देखा है और व्यवसायी मोरारजी देसाई जैसे को भी। हमने वैदिक सनातन राष्ट्र भी देखा है और कट्टर हिंदुत्व को अपनाता देश भी देख रहे हैं। हमने प्रेम-भाईचारे के साथ हर संप्रदाय को खुशियां और गम बांटते-बंटाते देखा है और अब उन्हें आपस में घृणा भाव में भी देख रहे हैं। आखिर उस लोकतंत्र में ऐसा क्या हो गया, जिसको पाने के लिए हमारे हजारों पूर्वजों ने प्राणों की आहुति दी, लाखों ने यातनायें सहीं? क्या लोकतंत्र दूषित हो गया है?
ये सवाल तब खड़े होते हैं, जब लोकतंत्र को बनाने वाले नागरिकों पर ही देशद्रोह से लेकर अशांति फैलाने तक के हजारों मुकदमें दर्ज किये जाते हैं। अपनी बात रखने के लिए प्रदर्शन और आंदोलन करने वालों की संपत्तियां जब्त की जाती है। देश का भविष्य युवाओं को जेलों में डाल दिया जाता है। बेटियों के साथ हर तरह की अमानवीयता होती है। उन्हें हक मांगने पर लाठी और आपराधिक मुकदमें मिलते हैं।
महिलाओं को सशक्त बनाने के दावों के बीच उनका सार्वजनिक चीरहरण किया जाता है। देशवासी धृतराष्ट्र बन, डरे-सहमें यह सब देखते रहते हैं। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोक प्रतिनिधि, ऐसे वक्त में भीष्म पितामह की तरह मौन साध लेते हैं।
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इस वक्त देश की न्यायपालिका से लेकर सत्ता पक्ष तक, विपक्षी दलों से लेकर पत्रकारों तक के फोन के सर्विलांस की खबरें आम हैं। संसद भवन से कुछ दूरी पर किसान पुलिस छावनी के बीच अपने हक की संसद लगाने को विवश हैं। सियासी नेता सत्ता और संगठन में पद के लिए लड़ रहे हैं। नागरिकों के दर्द को बयां करने वालों को लाठी और नजरबंदी का सामना करना पड़ रहा है।
देश की आर्थिक बदहाली के इस दौर में बेरोजगारी और महंगाई के कारण रोजाना एक सैकड़ा लोग आत्महत्या कर रहे हैं। दवाओं और आक्सीजन के अभाव में लाखों लोगों के मरने के बाद भी सरकार कहती है कि कोई नहीं मरा। न्यायपालिक यह कहकर चुप हो जाती है कि देशद्रोह की धारा औपनिवेशिक साम्राज्य के लिए थी। इसका दुरुपयोग न हो। वह न मरीजों को इलाज दिला पाती है और न जरूरतमंदों को मदद।
सीआरपीसी की धारा 144 दमन का साधन बन गई है। यह अब विशेष परिस्थिति में नहीं बल्कि हर वक्त थोप दी जाती है। इसमें कार्यवाही सत्ता की सुविधानुसार होती है। सहिष्णुता, सद्भाव, भाईचारे और धर्मनिरपेक्षता की बात करने वालों को समाज का दुश्मन बताया जाता है। गरीब, दुर्बल और दलित घरों से आये नेता ही, अब धनाड्यों और कारपोरेट्स का साम्राज्य स्थापित कराने में लगे हैं।
खरबों रुपये के अस्त्र-शस्त्र खरीदने के बाद भी देश की सीमाएं चारो ओर से असुरक्षित हैं। फिर भी उनका खतरा दिखाकर वोट बटोरे जाते हैं। महात्मा गांधी और पंडित नेहरू की लोकतांत्रिक विचारधारा को दोषपूर्ण बता हिटलर की तानाशाही को श्रेष्ठ साबित किया जाता है।
इन हालात में यही सवाल खड़ा होता है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। हमने बड़े बड़े साम्राज्य ढहते हुए देखे हैं। बड़े बड़े राजाओं और पराक्रमियों को खत्म होते देखा है। बड़े बड़े नेताओं को अस्पताल के बेड पर मौत का इंतजार करते देखा है। यह सब देखने के बाद भी हम मानवता और लोकतंत्र की को मजबूत करने के बजाय विघटनकारी नीतियां अपना रहे हैं?
हम सभी को उनकी मान्यताओं के अनुकूल निजी जीवन जीने की स्वतंत्रता क्यों नहीं देना चाहते हैं? हम भारतीय संविधान को हृदय से अंगीकार क्यों नहीं करते हैं? जब हम भारतीय संविधान की मूल भावना से उलट व्यवहार करते हैं, तो अपने लोकतंत्र की हत्या करने की दिशा में होते हैं।
हमें विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का तमगा लेते खुशी होती है मगर उसको सुरक्षित रखने के बजाय अपने स्वार्थ के लिए उसे खत्म करने की नीति अपनाते हैं। जब तक इस दिशा में सच्चे मन से प्रयास नहीं होगा, तब तक यह तिल तिल मरेगा और मानवता पीड़ित होगी। ऐसे वक्त में ही क्रांति होती है, जो हमें वास्तव में अशांत भीड़तंत्र वाला देश बना देगी।
जय हिंद!
अजय शुक्ल