डा. अंबेडकर अपने जीवन पर्यंत मानवता, दूसरे शब्दों मे इंसानियत के विकास मे लगे रहे। उनके मानवता के केंद्र मे सदैव ” मनुष्य ” रहा। मनुष्य न तो भौतिक शरीर ही है , न तो अहंकार या बुद्धि ही । मानव न तो पशु ही है ,न तो देवता, न ही असुर ।मानवता एक मंजिल नहीं है वरन् एक मार्ग है जिनका अनुशरण उन सभी ब्यक्तियों या देशों को करना चाहिये ,जो मानव मूल्यों – न्याय , स्वतंत्रता, समता एवं बंधुत्व के सच्चे समर्थक हैं ।डा. अंबेडकर को किसी जाति, संप्रदाय , धर्म के खांचे मे रखकर समझना उनके साथ न्याय नहीं होगा। उनको समझने के लिये उनकी दार्शनिक समग्रता को ध्यान मे रखकर सोचना होगा। तभी उनके प्रति आप न्याय कर पायेंगे। गांधी, नेहरु भले ही भारतीय समाज के लिये समय के साथ असंगत हो सकते हैं लेकिन जब तक इस देश मे असमानता की खांईं रहेगी डा. अंबेडकर संगत बने रहेंगे , उन्हें दुनिया की कोई भी ताकत असंगत नही बना सकती।
समाज दर्शन मनुष्यों की उन बातों का अध्ययन करता है जो समाज ब्यवस्था को न्यायोचित बनाये रखने मे योगदान देती है। किसी भी सामाजिक ब्यवस्था मे मुख्य स्थान मनुष्य का ही होता है क्यूँकि वही सामाजिक क्रियाओं का श्रोत है, समाज जीवन के अंतिम उद्देश्यों का खोज करना समाज दर्शन का कार्य होता है , समाज शास्त्र केवल तथ्यात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है लेकिन समाज दर्शन उन मानवीय मूल्यों और उद्देश्यों का बिशेष अध्ययन करता है जिससे मनष्यों की समाज ब्यवस्था सुसंगठित और न्यायोचित बनी रहे। संक्षेप में समाज दर्शन का उद्देश्य ” मानव प्रणियों मे सामाजिक एकता” स्थापित करना है।
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बचपन से सुना था कि डा. अंबेडकर दीन हीनों के हृदय सागर हैं लेकिन काशी हिंदू वि वि मे अपनी पत्नी के एमफिल और पीएचडी के दौरान जिसमे उनका शोध बिषय क्रमशः ” डा. अंबेडकर समाज सुधारक की भूमिका मे, और संविधान निर्माण मे डा. अंबेडकर की भूमिका था ” , जब मैने उनकी पुस्तकों को पढ़ा तो मैने जाना कि डा. अंबेडकर क्या थे? एक उच्च कोटि के बिचारक, दार्शनिक, समाज सुधारक , अर्थ शास्त्री, संविधान विद् के साथ साथ एक महान शक्सियत के साथ साथ आधुनिक भारत के संविधान के शिल्पी थे।
डा. अंबेडकर समाज दर्शन के प्रख्यात विद्वान थे। मानवता उनके अंदर कूट कूट कर भरी थी। हालांकि डा. साहब के बिचारों को क्रमानुसार पढ़ने, समझने व ब्याख्या करने मे अनेक कठिनाई होती है क्यूँकि उनके बिचार ऋंखलावद्ध नही मिल पाये। डा. साहब ने स्वयं कहा है कि ,
” मैं किसी एक बिचार से बंधा नहीं रहना चाहता, जहाँ उत्तरदायित्व निभाने की बात आती है वहाँ बिचारों मे परिवर्तन आना स्वाभाविक है। ”
उन्होंने बिचारों की रूढ़ीवादिता की जगह उत्तरदायित्व को अधिक महत्व दिया ।अतः उनके बिचार को सामाजिक या प्रजातांत्रिक मानववाद कहा जा सकता है। उनका मानववाद बुद्ध की मौलिक शिक्षाओं पर आधारित है।
उनकी दार्शनिक प्रग्यां एवं भावना भारतीय समाज मे लौह जंजीरों से जकड़ी हुई मानवता को देख न सकी। अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्षरत जीवन मे ही उनके समाज दर्शन की आधार शिलायें मजबूत हुईं।उनका दर्शन मानव के सम्मान, स्वतंत्रता, समता, न्याय, एकता ,बंधुत्व और प्रजातंत्र के सिद्धांतों पर आधारित है , तथा अन्याय, घृणा, जातिवाद, छूआछूत, हिंसा, अशांति व भ्रष्टाचार के घोर बिरोधी थे। डा. अंबेडकर अपने दर्शन की रचना किसी शांतिप्रिय निर्जन स्थान मे बैठकर नहीं की। उनके दर्शन की उत्पत्ति उस समय समाज मे उपस्थित सामाजिक , धार्मिक और राजनैतिक स्थिति से हुई। जब उन्होंने अछूत और शूद्रों की दुखभरी गाथाओं का अध्ययन किया और उनकी अमानवीय स्थितियों का अवलोकन किया तो उनका मानव हृदय पीड़ा से बिचलित हो गया ।अनेक प्रकार की सामाजिक एवं धार्मिक बुराईयों ने इन वर्गों का जीवन दुर्लभ बना दिया था। करोड़ो लोग इन अमानवीय बुराईयों एवं अत्याचार के शिकार बने।
प्राचीन काल मे ऋग वेद के पुरूष सूक्त मे कहा गया है कि संसार के समृद्धि के लिए ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मण , भुजाओं से क्षत्रिय , जंघाओं से बैश्य और चरणों से शूद्र पैदा किये। यही बर्ण ब्यवस्था है जिसे हिंदू धर्म की आदर्श ब्यवस्था कही जाती है । कालांतर मे उपर के तीनों बर्गो ने मिलकर चौथे बर्ग का शोषण इस तरह किये कि पूरे समाज मे सड़ांध फैल गयी।
महावीर, जैन और बुद्ध जैसे महर्षियों ने इस अमानवीय ब्यवस्था के खिलाफ आवाज उठायी। इसमे सबसे ज्यादा बुद्ध का योगदान रहा। बुद्ध ने जाति ब्यवस्था के बंधन को तोड़ डाला और समस्त मानवता के लिये समता का पाठ पढ़ाया।बुद्ध ने एक नवीन समाज की स्थापना की और हिंदू धर्म की ब्राह्मणवादी ब्यवस्था को चुनौती दी। लेकिन बुद्ध के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों ने जो बिहारों मे कैद होकर आनंद कि जीवन बिताने लगे थे , ने उनके कर्तब्यों को भुला दिये।समाज सेवा उनकी दृष्टि से ओझल हो गया।
उसके बाद मध्य काल मे ईस्लाम आया।इस्लाम एक एकेश्वरवादी धर्म है, लेकिन वह भी भारतीय समाज मे जातिवाद के शिकंजे मे फंसकर रह गया। कट्टर मुसलमान राजनिति और धर्म को अलग अलग नहीं मानता । मुसलमानों ने हिंदू और बौद्धों को जबरदस्ती अपने समाज मे मिलाया। करोड़ो शूद्र और अछूत तलवार के बलपर मुसलमान बना दिये गये ।आर्थिक लाभ के ब्यवसाय उनसे छीन लिये गये। राजनैतिक अधिकारों से उनको बंचित कर दिया गया। शूद्र और अछूत वैसे ही वैसे बने रहे , उनमें कोई सुधार नहीं हुआ।
आधुनिक काल मे इसाई धर्म का आगमन उन्हीं परिस्थितियों मे हुआ। इसाईयों ने भारतीय राजनितिक और सामिजिक स्थितियों का अध्ययन किया और यहाँ का वातावरण अपने धर्म के प्रचार प्रसार के अनुकूल पाया ।इसाई विद्वानों के अनुसार ईशा का धर्म प्रेम, मानवता, सद्भावना, बंधुत्व एवं प्रजातंत्र और समता एवं स्वतंत्रता पर आधारित है ये बातें कुछ लोगों के लिये सही हो सकती हैं लेकिन शूद्रों और अछूतों को इससे कोई लाभ नहीं हुआ।उन्होंने धन के बल पर अछूतों और शूद्रों को इसाई बना दिया अपनी संख्या बढ़ाने के लिये और अधिक ध्यान अपने व्यापार बढ़ाने पर दिया। बाद मे ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और आर्य समाज ने सामाजिक , धार्मिक कुरितियों के खिलाफ कुछ काम अवश्य किये। आर्य समाज ने जाति प्रथा, बाल विवाह और सती प्रथा मिटाने के लिये अधिक काम किये। लेकिन एक सीमा से आगे नहीं गये। इन सबके बावजूद शूद्रों और अछूतों के दशा मे कोई खास फर्क नही पड़ा। अछूतों के लिये सामान्य सुविधाओं के द्वार बंद कर दिये गये। कुओं से पानी भरना भी बंद कर दिया गया, तालाब का गंदा पानी पीने को विवश किया गया। शिक्षा और मंदिरों के द्वार अछूतों के लिये बंद कर दिये गये। राज्य सेवाओं का द्वार भी बंद कर दिये गये। उनके चारों ओर अग्यान और अत्याचार का साम्राज्य कायम था ।अछूतों की तीन श्रेणियाँ थी ः
- वे अछूत जिनको छूना पाप था।
- वे अछूत जिनकी परछांयीं भी सवर्ण हिंदुओं को दूषित कर देती थी।
- जिनको देखने से ही महा पाप लग जाता था।
अछूतों को गले में हाँड़ी और कमर मे झाड़ू बांधकर चलना होता था । डा. अंबेडकर के पहले ऐसी ही धार्मिक , सामाजिक स्थितियां विद्यमान थी। उनका जन्म 14 अप्रैल 1891 को महाराष्ट्र के एक अछूत महार जाति मे हुआ था । डा. अंबेडकर के जीवन दर्शन पर इस प्रकार के सामाजिक वातावरण का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था ।समाज शास्त्रियों का कहना ठीक ही है कि ” ,मनुष्य चिंतन करता है यह एक जैविक सत्य है ,लेकिन उसके चिंतन का बिषय क्या है, एक सामाजिक तथ्य है ” । अतः डा. अंबेडकर के चिंतन का बिषय वह समाज है जिसमे वे पैदा हुए थे।
बिचारों का विकासः
डा. अंबेडकर के बिचार विकासात्मक द्रिष्टि से तीन अलस्थाओं मे विभक्त किये जा सकते हैं –
( क) सामाजिक सुधार
(ख) राजनैतिक चेतना
( ग) धार्मिक सुधार एवं आंदोलन
ये तीनो एक दूसरे से आबद्ध है इसको अलग करके नही देखा जा सकता।
- सामाजिक सुधार –
डा. अंबेडकर हिंदू समाज मे पैदा हुए थे अतः वे हिंदू समाज की बुराइयों से भली भाँति परिचित थे । इन्हीं बुराइयों ने उन्हें एक क्रांतिकारी हिंदू प्रोटेस्टेंट बना दिया। उन्होंने हिंदू धर्म ग्रंथो का गहन अध्ययन किया और हिंदू समाज मे ब्याप्त जातिवाद और छूआछूत जैसी अमानुषिक बुराईयों ने ऊनको अंदर से झकझोर कर रख दिया और उन्हें एक कट्टर हिंदू बिरोधी बना दिया। उनके मन मे पीड़ा थी लेकिन घृणा नहीं थी। शुरु मे वे हिंदू धर्म मे ही रहकर मौलिक सुधार चाहते थे इसलिये उन्होंने उन मूक पशुओं से भी हीन जीवन बिताने वाले दरिद्र व असहाय अछूतों और शूद्रों की अवस्था हिंदू समाज मे रहकर ही सुधारना चाहते थे। वे चाहते थे कि सभी अछूतों और शूद्रों को समाज मे समता का स्थान प्राप्त हो। उन्होंने कहा कि कोई नियम या बस्तु सनातन नहीं है , कोई भी बिचार निरपेक्ष सत्य नहीं है। परिवर्तन जीवन का एक प्राक्रितिक नियम है और यही परिवर्तन विकास का आधार है अन्यथा मनुष्य का सामाजिक जीवन गतिहीन बनकर अनेक रोगों से ग्रस्त हो जायेगा । अंबेडकर अपने जीवन मे न्यायाधीश राना डे, श्री आगरकर और भंडारकर , ज्योति बा फूले से अत्यंत प्रभावित थे जो सामाजिक स्वतंत्रता और प्रजातंत्र को अधिक महत्व देते थे और उन्हीं के रास्ते को चुने। वह भी राजनितिक सुधार की अपेक्षा सामाजिक सुधार को कहीं अधिक मौलिक समझते थे। उहोंने कहा कि बिना सामाजिक एकता व समता के राजनैतिक स्वतंत्रता का कोई मतलब नही है ,अगर भारत को.स्वतंत्र कराना है तो हिंदू समाज को मौलिक सुधार करना होगा ।बिना समता व बंधुत्व के स्वतंत्रता मात्र एक ढकोसला बनकर रह जायेगी। बिना आंतरिक स्वतंत्रता के बाह्य स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं। कुछ सवर्ण राजनैतिक सुधारक एवं स्वतंत्रता के हिमायती नेता डा. अंबेडकर की बातों को स्वतंत्रता मे बाधक रोड़ा अटकाने वाला बताया , और वे लोग डा. अंबेडकर को स्वतंत्रता बिरोधी करार दिये ।दो दल बन गया, एक राजनैतिक सुधार वादी और दूसरा सामाजिक सुधार वादी। देश के तमाम सवर्ण नेता राजनैतिक स्वतंत्रता की खुलकर वकालत कर रहे थे । उन्होंने सोचा कि समाज सुधार आंदोलन से उनका राजनैतिक आजादी का लक्ष्य कहीं छूट न जाये। क्यूँकि राजनैतिक आजादी से उनके हाथ मे सत्ता की शक्ति आने वाली थी ।अतः तमाम हिंदू विद्वानो ने अंबेडकर का बिरोध करना शुरु किया और गांधी भी उनहीं लोंगों के साथ थे। उनको भी लगता था कि सामाजिक सुधार कहीं आंदोलन को कमजोर ना कर दे।
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डा. अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों मे कहा कि,” मै स्वतंत्रता का बिरोधी नहीं हूँ ” उन्होंने कहना था कि स्वतंत्रता के लिये दो शक्तियों का होना बहुत जरूरी है , एक ” सैन्य शक्ति ” दूसरी,” नैतिक शक्ति” । जिसके पास सैनिक शक्ति नहीं है तो उसे नैतिक शक्ति बढ़ानी चाहिये । और भारत के हिंदुओं के पास न तो सैनिक शक्ति थी ,न तो नैतिक शक्ति। नैतिक शक्ति समय की माँग थी और समाज सुधार नैतिक शक्ति बढ़ाने का मूल श्रोत था ।हिंदू लोग इसके लिये तैयार नहीं हुये इसलिये स्वतंत्रता की तारीख बढ़ती गयी। डा. अंबेडकर चाहते थे कि राजनैतिक स्वतंत्रता मे भले ही थोड़ा समय लगे तो कोई बात नहीं, लेकिन सामाजिक सुधार आवश्यक है। स्वतंत्रता की प्रिष्ठभूमि को वे मजबूत बनाना चाहते थे। डा. अंबेडकर मानवादी थे , अछूतों और शूद्रों की दयनीय स्थिति ने उनके दर्शन को ब्यवहारवादी बना दिया। दो बाह्य तत्वों ने उनकी कर्तब्यनिष्ठा का गलत अर्थ लगाया और उनके बारे मे गलत प्रचार किया गया कि वे स्वतंत्रता बिरोधी हैं । उनके हिंदु धर्म के सुधार की आतुरता ने हिंदू नेताओं ने गलत अर्थ लगाया और उनको स्वतंत्रता बिरोधी करार देने लगे और अंबेडकर के सामाजिक सुधार के बिरोधी हो गये। हिंदू नेताओं ने अंबेडकर के समाज सुधार आंदोलन मे भाग नहीं लिया। उन लोगों ने राजनैतिक मूल्यों को प्राथमिकता दी । क्यूँकी वे लोग स्वतंत्रता के द्वारा राजनैतिक सत्ता प्राप्त करना चाहते थे ,उनको सामाजिक सुधार से कोई लेना देना नहीं था। वे लोग अछूतोद्धार को राष्ट्र बिरोधी कहते थे । वे आजादी के दिवाने थे , न कि मानवता के। वे सभी मिलकर डा. अंबेडकर का बिरोध करने लगे। लेकिन डा. अंबेडकर अपनी ब्यावहारिक बातों पर डँटे रहे , भले ही उनको हिंदू नेताओं का समर्थन नही मिला। वे भारत की स्वतंत्रता के पहले ही वे अछूतों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना चाहते थे। यहाँ ये बताना जरूरी है की किसी देश की स्वतंत्रता का दो अर्थ होता है । पहला उस देश को किसी दूसरे देश की दासता से मुक्त करना। दूसरा उस देश मे रहने वाले साधनहीन गरीबों को उस देश के साधन संपन्न बर्गो से छुटकारा दिलाना। पहले को बाह्य और दूसरे को आंतरिक स्वतंत्रता कहते हैं। वे दोनों तरह की स्वतंत्रता साथ साथ चाहते थे जबकि हिंदू नेता सिर्फ बाह्य स्वतंत्रता के द्वारा अंग्रेजों की सत्ता अपने हाथ मे लेने के लिये लालायित थे। आज भी हमे बाह्य सत्ता तो मिल गयी है लेकिन आंतरिक आजादी अभी बहुत दूर है।
- राजनैतिक चेतना
1930 मे अंबेडकर ने सामाजिक सुधार के साथ साथ अपने को राजनैतिक परिस्थितियों के अनुसार ढालना शुरू किया। अछूतों और शूद्रों को कहा कि आध्यात्मिक कल्याण के बजाय भौतिक सम्रिद्धि की तरफ अधिक.ध्यान दें क्यूँकि बिना धन के वे अपने बच्चों को खाना, कपड़ा, शिक्षा और.दवा दारू नही दे सकते। इसलिये अछूतों को राजनैतिक शक्ति बढ़ानी चाहिये और अपने भौतिक सम्रिद्धि के लिये संघर्ष करना चाहिये। बिना राजनैतिक ताकत के आपके दुखों का अंत संभव नही है। मेरे मन मे इस बात का भय है कि वह दासता, जिसके विरूद्ध हम संघर्ष कर रहे हैं , कहीं हमे फिर से न जकड़ ले। और इसके लिये वे राजनैतिक लड़ाई शूरु किये। सबसे पहले उन्होंने अछूतों और शूद्रों के लिये अलग निर्वाचन प्रणाली की मांग की । सैद्धांतिक रूप से प्रिथक निर्वाचन प्रणाली का मतलब था , अछूतों को उच्च कहे जाने वाले हिंदुओं से अलग करना। अंबेडकर का कहना था कि जब अछूत और शूद्रों को हर तरह अलग कर दिया गया है तो इनको अलग से राजनैतिक अधिकार भी मिलना चाहिये। इनका राजनैतिक क्षेत्र भी अलग होना चाहिये । इसके अलावा डा. अंबेडकर ने अछूतों के लिये अलग निर्वासन( separate settlements) की भी मांग कर दी । उन्होंने कहा कि हिंदू ग्राम ब्यवस्था के कारण छूआछूत का नष्ट होना असंभव है ।उन्होंने कहा कि जब अछूतों को हर प्रकार से अलग रखा जाता है तो उनके गांव भी अलग कर दिये जायं , जहाँ वे अकेले शांतिपूर्वक जीवन जी सके। वे अछूतों को सवर्ण हिंदुओं के अत्याचार से दूर रखना चाहते थे। संक्षेप मे डा. अंबेडकर यह कहना चाहते थे कि अछूत भारतीय राष्ट्र जीवन मे एक अलग ” तत्व” के रुप मे विद्यमान हैं । गांधी और उनके अनुयायियों ने दोनों मांगो का बिरोध किया। सवर्णों ने गांधी को इस बात पर समर्थन दिये ,लेकिन इसका मतलब यह नही था कि वे अछूतों को समाज मे बराबरी का हक देने को तैयार हो गये। अंबेडकर के विरूद्ध कट्टर हिंदुओं ने आंदोलन कर दिया। स्वयं गांधी ने कहा की अंबेडकर की सुझाओं को मै अपनी जान देकर भी नहीं मानूँगा। और गांधी जी ने आमरन अनशन शुरू कर दिया। 21 दिन अनशन के बाद गांधी का जीवन खतरे मे था। डा. अंबेडकर को अपने जीवन की चिंता नहीं थी लेकिन वे जानते थे कि गांधी अगर मर गये तो देश मे सवर्ण आग लगा देंगे और दलितों का नरसंहार कर देंगे । अतः अंबेडकर गांधी के जान बचाने के लिये एक समझौता किये , जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। जिसमे अछूतों को अलग निर्वाचन प्रणाली की जगह अलग सीट सुरक्षित की गयी। डा. अंबेडकर जानते थे कि इससे दलित नेता नही पैदा होंगे बल्कि दलित दलाल पैदा होंगे। क्यूँकि संयुक्त निर्वाचन मे दलित सीट पर दलित लड़ेगे लेकिन वोट तो सवर्ण भी देंगे। दलितों का वोट बँटेंगा और सवर्ण वोट उसे ही मिलेगा जो दलित के नाम पर दलित दलाल होगा। सीट तो डा. अंबेडकर की क्रिपा से पाया लेकिन जीतेगा वही जो सवर्णों की दलाली करेगा। आज उत्तर प्रदेश मे क्या हुआ , सभी 17 आरक्षित सीटें बी जे पी जीत गयी सवणों के वोट से। राम विलास पासवान, अठवले, उदित राज, मेघवाल, केशव मौर्या, इत्यादि कैसे जीते। फिर ये किसका काम करेंगे। अगर यही हालत रही तो फिर से सेपरेट निर्वाचन प्रणाली की मांग उठ सकती है। और बिहार के बड़े नेता रम ई राम ने मांग भी कर दी है ।और अब दलित उतने कमजोर नहीं कि दबा दोगे।
“संविधान की कापी डा. अंबेडकर संविधान सभा के सभापति राजेंद्र प्रसाद जी को सौंपकर बाहर प्रसन्न मुद्रा मे लौट रहे थे कि रास्ते मे राजाजी मिल गये। और डा. अंबेडकर को प्रसन्न मुद्रा मे देखकर बोले क्या बात है भीम राव , आज बहुत खुश नजर आ रहे हो? डा. अंबेडकर ने कहा , हाँ आज मै खुश हूँ क्यूँकि जो काम हमे मिला था उसे मैने आज पूरा करके दे दिया। तब राजाजी बोले, भीमराव बहुत खुश होने की जरुरत नहीं । ये लोग इस को कितना मानेंगे तुमको तो पता ही होगा। तब डा. अंबेडकर ने कहा मि. राजगोपाला चारी जी हमे पूर्ण विश्वास है कि हमारे लोगों के अंदर थोड़ी भी जमीर बची होगी तो ये लोग उनके आगे घुटने टेक देंगे। मैं रहूँ या ना रहूँ ।ये मेरा विश्वास है। आज उनकी बातें सच साबित हो रहीं है। 2अप्रैल का भारत बंद ने मोहन भागवत की औकात बता दी। उनको कहना पड़ा कि कांग्रेस मुक्त भारत संघ का नारा नही है। इसके पहले मोदी और शाह रोज कांग्रेस मुक्त भारत बना रहे थे। संविधान बदलने की साजिश करने वाले भी समझ गये कि देश मे आग लग जायेगा। डा. अंबेडकर का स्थान आज वही है दलितों , पिछड़ो के लिये जो सवर्णों मे राम का है। जो संघ अंबेडकर को कुएं तालाब मे पानी नही पीने देता था आज वे उनका तलुआ चाट रहे हैं और सोने की मूर्ति बना रहे हैं । मोदी को पी एम संघ ने बनाया और मोदी चिल्लाकर कहते हैं कि डा. अंबेडकर नहीं होते तो मै पी एम नही बनता और अंबेडकर की सोने की मूर्ति बनाकर पूजा जा रहा है। अब तो उनको गेरुआ वस्त्र भी पहनाया जा रहा है। कुछ दिन में बुद्ध की तरह अंबेडकर को भी मंदिर मे बैठाकर ये लोग पूजा शुरू कर देंगे।
- धार्मिक चेतना
डा. अंबेडकर अंतिम दिनों मे डा. साहब के चिंतन मे बहुत ही परिवर्तन दिखाई दिये। दार्शनिक चिंतन मे परिपक्वता के कारण उन्होंने कहा कि मानव कल्याण , सामिजिक उत्थान एवं राजनैतिक चेतना के साथ ही साथ धार्मिक प्रेरणा से भी संभव हो सकता है ।और उन्होंने कहा था कि हिंदू धर्म मे जन्म लेना मेरे अधिकार मे नहीं था लेकिन मै कभी भी हिंदू जैसे अमानवीय धर्म मे रहकर मरना पसंद नही करुँगा। हिंदू समाज इतना भ्रष्ट हो चुका है कि इसे तिलांजली दिये बिना बुराईयों से छुटकारा नहीं मिल सकता। हिंदुओं को रोग ग्रस्त बताया और इसी के साथ वे 5 लाख से ज्यादा लोगों के साथ 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर मे हिंदू धर्म का परित्याग करके बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। यह निर्णय एक स्वतंत्र ब्यक्ति के इच्छा का अभिब्यक्तिकरण था। इसके पिछे अनेक सामाजिक प्रयोजन एवं आध्यात्मिक प्रेरणाएं थी इस निर्णय का दार्शनिक पक्ष बहुत ही महत्वपूर्ण है।
आंबेडकर और धर्म परिवर्तन..
आंबेडकर हिंदू धर्म को जातिप्रथा के कारण असहिष्णु मानते थे। लिखा-“मुझे अफसोस है कि इस पुरानी सभ्यता ने पांच करोड़ अस्पृश्य, दो करोड़ आदिवासी और लगभग पचास हजार अपराधी जातियों को जन्म दिया।इस सभ्यता को क्य कहा जा सकता है?”
इस्लाम धर्म को वे तर्क संगति और समतामूलक व्यवहार की कसौटी पर सही नहीं मानते थै। उनके अनुसार “इस्लाम का बंधुत्व सब मनुष्यों का बंधुत्व नहीं है,केवल मुसलमानों का बंधुत्व है।”
भारतीय संस्कृति से उन्हें असीम प्यार था।उसे बिना कमजोर किए हुए वे दलितों को ऐसे धर्म से जोड़ना चाहते थे ,जहां उन्हें बराबरी और इज्ज़त मिल सके। वे लिखते हैं
“अगर दलित वर्ग ईसाई या इस्लाम को अपनाएंगे तो वे न केवल हिंदू धर्म से बाहर चले जांएगे बल्कि हिंदू संस्कृति से बाहर चले जांएगे।किंतु यदि वे अगर सिख धर्म स्वीकार करेंगे तो वे हिंदू संस्कृति में बने रहेंंगे।”
हिंदुओं की दृष्टि से सिख धर्म सबसे अच्छा होगा, ऐसा भी वे कहते
थे। वे चाहते थे कि किसी जीवंत और शक्तिशाली समुदाय के साथ अपने को जोड़ें। वे इसे अखिल भारतीय आंंदोलन कारूप देना चाहते धे।
इस हेतु वे पहले बौद्ध धर्म या सिख धर्म को अपनाने का विचार किया।बौद्ध धर्म के बारे में उन्हें कुछ कठिनाइयां दिखती थी।
लेकिन इटली के एक बौद्ध भिक्षु का विश्वास था कि वे दलितों को बौद्ध धर्म की तरफ आकर्षित कर उन्हें दीक्षा दे सकते हैं।
जब उन्हें बताया गया कि धर्म परिवर्तन करने से उन्हें आरक्षणों की सुविधा खोनी पड़ैगी तो आंबेडकर ने कहा-
“मात्र इच्छा की अभिव्यक्ति का मतलब संबंधों को तोड़ लेना
नहीं है।”
डा.आंबेडकर ने नवंबर 1935 में येवले (नासिक)में प्रेसिडेंसी अनुसूचित जाति सम्मेलन में अपने उत्तेजक भाषण में कहा था –
अनुसूचित जातियों के साथ इसलिए भयानक दुर्व्यवहार किया जाता है
क्योंकि वे अपने को हिंदू कहती है।अगर किसी और धर्म की वे सदस्य होती तो किसी में भी उसे अस्पृश्य का दर्जा देने का साहस नहीं होता।
इसीलिए अनुसूचित जातियों के लोगों को किसी भी ऐसे धर्म को चुन लेना चाहिए “जो उन्हें समान व्यवहार और प्रतिष्ठा” दे सके।”
अत्यधिक चिंतन-मनन के पश्चात 1956के अक्तूबर में नागपुर में आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
बुद्ध ढाई हजार साल पहले गुजर गए लेकिन जाति प्रथा नहीं खत्म हुई और न ही बराबरी कायम हुई। इसका कारण है कि बौद्ध धर्म ने भी ब्राह्मण धर्म की तरह कर्मवाद और पुनर्जन्म वाद पर विश्वास किया। फिर यह भी जन साधारण का धर्म बन गया। जातक कथाओं ने बुद्ध को भगवान बना दिया।फलस्वरूप बुद्ध की मुर्तियां बनने लगी। राज्याश्रय ने इसकी क्रांतिकारी चेतना को कुंठित कर दिया। देवी- देवताओं की तरह बुद्ध भी पूजे जाने लगे। ब्राह्मण इतने होशियार और धूर्त निकले कि बुद्ध को भी अवतार मान लिया।
डा.आंबेडकर के धर्म परिवर्तन से जातिप्रथा नहीं टूटी। समानता तो नहीं ही मिल सकी। हां, इन्हें भी भगवान बनाया जा रहा है।इनकी तस्वीरों की पूजा शुरू है। चुनावी लाभ केलिए इनकी मूर्तियां चौक-चौराहे पर लगाई जा रही हैं।
ठीक ही कहा गया है कि जिनके विचारों को मारना चाहते हो, उन्हें भगवान मानकर पूजने लगो।
जातिप्रथा और सभी प्रकार के भेदभाव का खात्मा तभी संभव है जब हम उस दर्शन धर्म का नाश करेंगे जिसने इसे जन्म दिया है। आज समाज में धार्मिक पाखंड, अंधविश्वास, अंधश्रद्धा, और धार्मिक आडंबरों को स्थापित करके सत्ता और शोषण को मजबूत बनाया जा रहा है। आज आंबेडकर होते तो जरूर सोचते कि किन कारणों से यह नहीं हुआ है, फिर तो एक ही मार्ग है, और वह है वर्गीय चेतना और संगठन के बल पर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक टीलों पर अंतिम हमला किया जाय।
स्रोत-“मधुलिमये रचित “बाबा साहब आंबेडकर -एक चिंतन”
“सोर्स मैटिरियल आंन बाबा साहब आंबेडकर एंड दि मुवमेंट
आंफ अंटचेवल्स ”
“बाबा साहब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचिज”एवं अन्य पुस्तकें।
डॉ बीएन सिंह