तर्क है कि मनमोहन प्राइवेटाइज करें, तो सुधार और मोदी करें तो बर्बादी। अगर आप भी इस तर्क से निरुत्तर हैं, तो सिलसिलेवार समझने की जरूरत है, की दोनों का बेसिक फर्क क्या है?
शुरू से शुरू कीजिए। जब समाजवादी मॉडल के साथ नेहरू ने सरकारी उपक्रमों का गठन किया। भई, कायदे से हमे तब अमेरिका का वही पूंजीवादी मॉडल अपनाना था, जो बड़ी चूक हुई।
जानने की जरूरत है, की अमेरिका उद्यमशीलता, इनोवेशन, साइंस और टेक्नॉलजी का गढ़ रहा है। पूंजीवादी मॉडल के लिए आपको ऐसे उद्योगपति चाहिए, जो रिस्क, इन्वेंशन, टेक्नॉलजी के पीछे पूंजी फसाने की कूवत रखे। 1947 में , कुछ बड़े साइज के पंसारियों के अलावे, हमारे देश मे ऐसा उद्यमी वर्ग नही था। तो सरकार के पास कोई चारा नही था, भारी उद्योग और तकनीक में अपना स्टेक लगाना पड़ा।
वो छोटे छोटे बीज, आज अरबो के साम्राज्य हो चुके हैं। कुछ, पिछले कुछ बरसों से कुछ हजार करोड़ के घाटे में है, कई मुनाफे में भी। मगर सर्विसेज घर घर मे हैं, और इनकी सर्विसेज भारतीय सक्सेस स्टोरी की आधारशिला रही है।
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फिर भी यह सच है- गवर्नमेंट हैज नो बिजनेस टू डू बिजनेस। आज वोम मजबूरियां नही हैं, और पीएसयू का वक्त खत्म हो चुका। स्ट्रेटेजिक विषयों को छोड़ अन्य व्यवसायों से बाहर आ जाना अच्छा है।
वैसे भी हम जो सरकारें चुनकर ला रहे हैं, वो जय श्रीराम के नारे, और अल्पसंख्यक को डराने की एकमात्र योग्यता के आधार पर गवरमेंट तो चला सकती है, उद्योग नही। तो बेच दीजिये।
अब सरकार के पीछे हटने के तीन तरीके है। डिसइन्वेस्टमेंट, प्राइवेटाइजेशन और मोनेटाइजेशन।
मोनेटाइजेशन का मतलब शुद्ध हिंदी में कबाड़ काट काट कर भंगार के भाव बेचना है। आप एयर इंडिया के एक-एक जहाज अलग अलग बेच डिजिये, इसके मोनेटाइजेशन कहेंगे। सरकार इस पर भी उतारू है, तो पहले दो विकल्प ही बेहतर हैं।
डिसइनवेस्टमेंट- याने सरकार, थोड़े थोड़े शेयर बेचे, इतना कि मालिकाना हक सरकार का बना रहे, मगर दूसरे स्टेकहोल्डर्स भी घुसें। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के शेयर आप ओपन मार्किट से इसी वजह से खरीद पाते हैं।
इसकी समस्या यह है, कि अगर प्रबन्धन सरकार का बना रहे, और वो सरकार इतनी सदाशयी नहीं हो, कि नेहरू की तरह एयर-इंडिया का चेयरमैन बाहरी विशेषज्ञ, याने जेआरडी टाटा को बुलाकर खुलकर मैनेजिंग पावर दे दे, तो करप्शन और कुप्रबंधन का बोलबाला तो बना रहेगा। ऐसे में डूबता हुआ उद्यम उबर नही सकता।
तब सरकार को इतनी सारी होल्डिंग बेचनी होगी, की कम्पनी मेजर शेयर, या मालिकाना हक किसी और को चला जाये। अब इसे डिसइन्वेस्टमेंट नही, प्राइवेटाइजेशन कहेंगे। अटल दौर में बालको कंपनी को साढ़े 350 करोड़ में वेदांता को बेचा गया। मालिक बदल गया, इसलिए ये डिसइन्वेस्टमेंट नही , प्राइवेटाइजेशन था।
मनमोहन के दौर में ज्यादातर डिसइनवेस्टमेंट हुआ। बहुत से कम्पनियों के थोड़े थोड़े शेयर बिके, मगर मालिक सरकार ही बनी रही। कुछ मामलों में प्राइवेटाइजेशन भी हुआ। icici जैसा सरकारी वित्तीय संस्थान प्राइवेटाइज हुए। प्राइवेटाइज होने के बाद icici का मालिकाना पैटर्न देखिये। नीचे लिस्ट है। देखकर बताइये की इसका मालिक कौन है???
कोई एक आदमी नही। तमाम निजी निवेशक, देशी और विदेशी संस्थागत निवेशक, म्युचुअल फंड्स इसके मालिक है। ये मालिक अपनी ओर से एक एक डायरेक्टर रखते हैं। डायरेक्टर कम्पनी की बैठकों में आता है। अपने शेयरहोल्डर को रिपोर्ट करता है। डायरेक्टर्स एक सीईओ रखते है।
जैसे कि चन्दा कोचर- जो अच्छा काम करे तो कंटीन्यू होगी, गलत की, तो कान पकड़कर बाहर कर दी गयी। जो काम राणा कपूर के यस बैंक का कोई डायरेक्टर नही कर सकता था। Icici सरकार के हाथ से निकली तो एक रिपब्लिक की तरह संस्था बनी। आज बेहद सफल निजी बैंक है।
इसके विपरीत राणा कपूर गलत फैसले करते रहे, यस बैंक डूब गया। इसलिए की वह कपूर का मालिकाना हक होने के कारण बैंक उनका प्रिंसली स्टेट था। अम्बानी अडानी वेदांता जैसे संस्थान अपने प्रमोटर के प्रिंसली स्टेट की ही तरह हैं। कम्पनी की तमाम पावर, सेवा, डेटा एक निजी व्यक्ति के हाथ मे। ये गलत करें, तो इनकी कम्पनी इन्हें बाहर नही कर सकती।
बात न समझ आये तो रिलायंस का शेयरहोल्डिंग पैटर्न भी लगाया है। icici के मुकाबले स्टडी करें।
प्रिंसली स्टेट के किंग को किसी की सहमति की जरूरत नही। तमाम मुनाफा, नियंत्रण, निर्णय उसका है। बोर्ड से पूछे बगैर वह वह रिश्वत दे सकता है, मैनेज कर सकता है। इस रास्ते से एक पूरे सेक्टर में मोनोपॉली जमाकर उससे जुड़े तमाम लाभ अपने फेवरेट राजनैतिक दल को दे सकता है।
सोचिये की आपके सारे कॉल रेकॉर्ड बगैर कोर्ट के ऑर्डर के, गैंडे के बंगले में पहुचाएं जा सकते हैं। आप अवैध सर्वेलियेन्स पर रखे जा सकते हैं। आपका इम्पोर्ट- एक्सपोर्ट बगैर किसी कारण के पोर्ट या हवाई अड्डे पर महीनों लटकाया जा सकता है।
तो ऐसे प्रिंसली स्टेट्स के तीन चार किंग से डील करना किसी सरकार के लिए फायदेमंद है। ये लोग तमाम सेक्टर्स में मोनोपली स्थापित करते जा रहे हैं। मीडिया, टेलीफोनी के बाद खेती, रेल, पेट्रोल, ट्रांसपोर्ट, फाइनैंस, इंफ्रास्ट्रक्चर। ऐसा प्राइवेटाइजेशन, जिसमे वाइटल सर्विसेज सरकारी अभ्यारण्य से बदलकर प्रिंसली स्टेट का हिस्सा बन जाये, सहमति के योग्य नही।
याद रखिये, सरकारी मोनोपॉली इनेफिशिएंट होती है, मगर जान नही लेती। निजी मोनीपोली को जानलेवा होने से रोकने का कोई उपाय नही। इसलिए अमेरिका में भी निजी मोनोपॉली को रोकने के अनेक कानून हैं,
माइक्रोसॉफ्ट जैसी कम्पनी को सरकारी आदेश पर 2 टुकड़ों में तोड़ा गया था। हमारे यहां मोनोपॉली क्रिएट की जा रही है। अगर आप इतिहास और बीसवीं सदी की इकॉनमिक्स से वाकिफ हों, तो समझते देर न लगेगी की यह अमरीकन नही, मुसोलिनी का मॉडल है।
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सिम्पल स्टडी बताती है, की मनमोहन के दौर का प्राइवेटाइजेशन फेयर था और बहुआयामी था। किसी फेवरिट को पिछले दरवाजे से सब कुछ सौप देने का नाम प्राइवेटाइजेशन नही, लूट है। अटल दौर में 200 करोड़ के सरकारी होटल को आठ करोड़ में बेचने का मामला कोर्ट ने रोका है।
वेदान्ता ने जब साढ़े तीन सौ करोड़ में बालको खरीदा, हजार करोड़ का तैयार माल उसके गोदाम में पड़ा था। कोई आश्चर्य नही भाजपा को 2008 से 9 के बीच बड़ा विदेशी चन्दा वेदान्ता से मिला। पार्टी कोर्ट केस में फंस गई, तो 2014 में सरकार बनने पर विदेशी चन्दे का क़ानून ही बदल दिया, और 2007 से लागू कर दिया। केस खत्म..
क्या icici के मालिक, याने आप और मैं, कोई सरकारी कम्पनी खरीदने के बाद, उस सरकारी पार्टी को चन्दा देंगे??
हम मानते है, गवर्नमेंट हैज नो बिजनेस टू डू बिजनेस। कीजिये प्राइवेटाइजेशन।
मगर इसके नाम पर दो चार लोगों की हमारे जीवन के हर पहलू पर मोनोपॉली की इजाजत नही दी जा सकती। खरीद का थोड़ा पैसा खजाने और बाकी पार्टी चन्दे में देने की इजाजत नही दी जा सकती। वी स्टिल वांट प्राइवेटाइजेशन।बट..
मनीष सिंह