वर्ष 1989 में पूरा विश्व बदल रहा था । पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी बर्लिन की दीवार तोड़कर एक हो चुके थे, दक्षिण अफ़्रीका रंग भेद नीति छोड़ रहा था । वारसा संधि के देश हंगरी, पोलैंड, आस्ट्रिया आदि देश साम्यवादी विचारधारा को छोड़कर खुलेपन की तरफ़ बढ़ रहे थे। साम्यवाद का जनक रूस भी Glasnost और Perestroika की वकालत कर खुलेपन और आर्थिक सुधारों की तरफ़ बढ़ रहा था । सोवियत संघ बिखर रहा था । पूरी दुनिया आर्थिक सुधारों और खुले व्यापार की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रही थी।
वर्ष 1989 तक चीन के हालात बेहद ख़राब थे। बेरोज़गारी चरम पर थी और चीनी नागरिक पूरी दुनिया से अलग थलग थे। कम्युनिस्ट शासन की दमनकारी नीतियों और विश्व की बदलती परिस्थितियों से वहॉ की जनता छटपटाने लगी थी । चीनी नागरिक भी अधिकारों, और बोलने की आज़ादी की मॉग करने लगे थे और विश्व के अन्य देशों की तरह खुलेपन चाहने लगे थे ताकि वह भी अपने जीवन स्तर में बदलाव कर सके। संयोग से तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हू याओ बोग भी इन सुधारों के पक्षधर थे और देश की आर्थिक और राजनीतिक नीतियों को बदलना चाहते थे। चीनी सरकार और पार्टी के दूसरे बड़े नेताओं को यह नागवार गुजर रहा था और हू याओ बोंग को उनके पद से बर्खास्त कर उनकी हत्या भी करवा दी ।
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हू याओ बोंग की बर्ख़ास्तगी और उनकी हत्या से चीनी युवाओं में आक्रोश फैल गया और लाखों की संख्या में छात्रों, युवाओं और कामगारों ने पेइचिग के विशाल मैदान थियेन आन मन चौक पर एकत्र होकर सरकार और साम्यवादी नीतियों के ख़िलाफ़ हमला बोलना व धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया। दिन प्रतिदिन लोगों की संख्या इस धरना व प्रदर्शन में बढ़ती जा रही थी और चीनी जनता में एक नई चेतना भर रही थी । चीनी सरकार के मुखिया ली पिंग और कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे बड़े नेता देंग शियाओ पिंग की घबराहट बढ़ती जा रही थी एवं उन्हें अपने साम्राज्य के ढहने की फ़िक्र होने लगी थी। धरना प्रदर्शन को लगभग छह हफ़्ते गुजर चुके थे पर कोई चेतावनी व धमकी प्रदर्शन पर असर नहीं कर रही थी ।
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दिनांक 3-4 जून की काली रात को चीनी सरकार ने शांति से धरना दे रहे अपने नागरिकों पर वह कार्यवाही की जिसकी मिसाल नहीं मिल सकती । चीनी सरकार ने धरना उठाने के लिये फ़ौज को बुला लिया जिसने आते ही अंधाधुंध फ़ायरिगं और टैंकों से गोले बरसाने शुरू कर दिये । एक ब्रिटिश रिपोर्ट के अनुसार इस गोलीबारी में चीन ने अपने दस हज़ार से अधिक नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया था जबकि चीनी सरकार ने हताहतों की संख्या सात सौ बताई थी । घायलों और अपंगों की तो कोई गिनती ही नहीं थी । एक सरकार अपने ही उन नागरिकों पर जो निहत्थे व शांति पूर्वक धरना दे रहे थे पर इतनी क्रूर व दमनात्मक कार्यवाही करने पर पूरा विश्व आश्चर्य चकित रह गया था और कोई देशों ने तो चीन पर कड़े प्रतिबंध भी लगाये थे। एक निरंकुश और तानाशाह सरकार अपनी सत्ता पर चुनौती सहन नहीं करती यह पूरी दुनिया ने देखा । चीनी सरकार ने इसके पीछे अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए का हाथ होना भी बताया था ।
इस घटना के बाद चीनी सरकार की अक़्ल भी ठिकाने आई थी और चीन ने काफ़ी हद तक खुली अर्थव्यवस्था और नागरिकों के अधिकारों पर तेज़ी से काम करना शुरू कर दिया औरयह उसी का नतीजा है कि चीन आज एक बड़ी आर्थिक ताक़त बन गया है।