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लेख : पत्रकारिता दिवस पर अपनी कुछ अयोग्यताओं पर बात करना चाहता हूं : रवीश कुमार

मुस्लिम टुडे by मुस्लिम टुडे
मई 30, 2021
in देश, भारतीय, स्तंभ
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Ravish Kumar

Ravish Kumar

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पत्रकारिता एक पेशेवर काम है। यह एक पेशा नहीं है। बल्कि कई पेशों को समझने और व्यक्त करने का पेशा है। इसलिए पत्रकारिता के भीतर अलग-अलग पेशों को समझने वाले रिपोर्टर और संपादक की व्यवस्था बनाई गई थी जो ध्वस्त हो चुकी है।

इस तरह की व्यवस्था समाप्त होने से पहले पाठक और दर्शक किसी मीडिया संस्थान के न्यूज़ रूम में अलग अलग लोगों से संपर्क करता था। अब बच गया है एक एंकर। जिसे देखते देखते आपने मान लिया है कि यह सर्वशक्तिमान है और यही पत्रकारिता है। आपकी भी ट्रेनिंग ऐसी हो गई है कि किसी घटना को कोई संवाददाता कवर कर रहा है, अच्छा कवर कर रहा है लेकिन लेकिन मुझे लिखेंगे कि आपको फील्ड में जाना चाहिए।

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यह कमी संस्थान ने कई कारणों से पैदा की है। कुछ चैनल के सामने वाकई में बजट की समस्या होती है लेकिन जो नंबर एक दो तीन चार हैं उन्होंने भी पैसा होते हुए इस सिस्टम को खत्म कर दिया है। पत्रकारिता दिवस पर मैं अपनी कुछ कमियों की बात करना चाहता हूं लेकिन पहले सिस्टम की कमियों पर बात करूंगा क्योंकि मेरी कमियों का संबंध सिस्टम की कमियों से भी है।

न्यूज़ चैनल तरह तरह के प्रोग्राम बना रहे हैं ताकि ट्विटर से टॉपिक उठाकर न्यूज़ एंकर उस पर डिबेट कर ले। अब दर्शक भी न्यूज़ की जगह डिबेट का इस्तमाल करने लगा है। कहता है कि डिबेट करा दीजिए। जबकि वह देख रहा है कि डिबेट में समस्या से संबंधित विभाग का अधिकारी नहीं है। जैसे जब कोरोना की दूसरी लहर में नरसंहार हुआ तो आपने नहीं देखा होगा कि स्वास्थ्य विभाग के लव अग्रवाल और कोविड टास्क फोर्स के डॉ वी के पॉल किसी डिबेट में बैठे हों और सवाल का जवाब दे रहे हों।

उनकी जगह सत्ताधारी राजनीतिक दल का प्रवक्ता आएगा। विपक्ष के हर सवाल को इधर उधर से भटका जाएगा। अगर सत्ताधारी दल का प्रवक्ता किसी सवाल के जवाब में फंस भी जाता है तो इससे आपका मनोरंजन होता है। सरकार और भीतर काम करने वाले लोग जवाबदेही से बच जाते हैं। एंकर को बस इतना करना होता है कि टॉपिक का एंगल तय करना होता है। अब तो तय भी नहीं करता। कोई और तय कर देता है या ट्विटर से खोज लाता है। फिर बोलेगा पूछता है भारत। पूछता है इंडिया।

ये भी पढ़ें : लेख : न्यूयार्क टाइम्स के झूठे हैं तो क्या मोदी सरकार के आँकड़े सही हैं? : रवीश कुमार

जिस तरह का सतहीपन स्टुडियो के डिबेट में होता है उसी तरह का सतहीपन एंकरों के कवरेज में होता है। अब इसे सतहीपन कहना ठीक नहीं है क्योंकि इसी को पत्रकारिता का स्वर्ण मानक कहा जाता है। अंग्रेज़ी में गोल्ड स्टैंडर्ड कहते हैं। जैसे ही कोई बड़ी घटना होती है, चुनाव होता है या उनका प्रिय नेता बनारस के दौरे पर चला जाता है, एंकरों को स्टुडियो से बाहर भेजा जाता है।

एंकर के जाते ही कवरेज़ की बारीकियां पीछे चली जाती हैं। उसका वहां होना एक और घटना बन जाती है। यानी घटना के भीतर चैनल अपने लिए घटना पैदा कर लेता है कि उसने अपना एंकर वहां भेज दिया है। एक दर्शक के नाते आप भी उस एंकर के वहां होने को महत्व देते हैं और राहत महसूस करते हैं। वैसे आप यह बात नहीं जानते, लेकिन न्यूज़ चैनल वाले यह बात ठीक से जानते हैं।

जिसे आप बड़ा एंकर कहते हैं वह केवल घटना स्थल का वर्णन कर रहा होता है। घटना स्थल के अलावा वह भीतर की जानकारी खोज कर नहीं लाता है क्योंकि उसे लाइव खड़ा होना है। नहीं भी होना है तो ज़्यादातर कमरे में ही आराम करते हैं या जानकारी जुटाने के नाम पर दिखावे भर की मेहनत करते हैं। एंकर को सावधानी भी बरतनी होती है कि सरकार की जूती का रंग उसके कुर्ते पर ख़राब न हो जाए।

क्योंकि दिन भर तो वह मोदी मोदी करता रहता है। सरकार के बचाव में तर्क गढ़ता रहता है। जैसे ही एंकर अपने घर से निकलता है, माहौल बनाने लगता है। एयरपोर्ट की तस्वीर ट्वीट करेगा। वहां पहुंच कर एक फोटो ट्वीट करेगा। नाश्ता खाना का फोटो ट्विट करेगा। जहां तीन घंटे से खड़े हैं वहां का फोटो ट्विट कर दिया जाएगा ताकि आप घटनास्थल पर मरने वालों के साथ साथ तीन घंटे से खड़े रिपोर्टर के दर्द को ज़्यादा महसूस कर सकें।

चैनल भी तुरंत प्रोमो बनाकर ट्वीट कर देगा। यह लिखते हुए गुज़ारिश है कि एक दर्शक के नाते आप हमेशा यह देखें कि आप क्या देख रहे हैं, क्या कोई अतिरिक्त जानकारी या समझ मिल रही है या केवल आप किसी के किसी जगह पर होने को ही देख रहे हैं और उसे ही पत्रकारिता समझ रहे हैं।

जबकि रिपोर्टर की प्रवृत्ति दूसरी होती है। वह ख़बर खोजता है। अपनी जानकारी को लेकर दूसरे रिपोर्टर से होड़ करता है। एंकर केवल अपने वाक्यों को एंगल देता है। प्रभावशाली बनाता है। रिपोर्टर सूचना से अपनी रिपोर्टिंग को प्रभावशाली बनाएगा। घटना स्थल के वर्णन के अलावा कुछ गुप्त जानकारियां उसमें जोड़ेगा। सूत्र भी रिपोर्टर को बताना सही समझते हैं क्योंकि वह रिपोर्टर को लंबे समय से जानता है।

पता है कि रिपोर्टर उसकी सूचना को किस तरह से पेश करेगा ताकि उस पर आंच न आए। सूत्र को एंकर पर कम भरोसा है। वह एंकर से दोस्ती करेगा मगर ख़बर नहीं देगा। रिपोर्टरों की फौज ग़ायब होने से सूचनाओं का सिस्टम ख़त्म हो गया है। सिस्टम के भीतर के सूत्रों को पता है कि यहां मामला ख़त्म है। भरोसा करने का मतलब है सौ समस्याएं मोल लेना। एंकर और रिपोर्टर की भाषा अलग होती है। रिपोर्टर इस तरह से सूचना को पेश करेगा कि बात भी हो जाए और बात बताने वाला भी मुक्त हो जाए।

साथ ही सूचनाओं के लेन-देन की व्यवस्था भी बनी रहे।सबको पता है कि गोदी मीडिया के एंकर सरकार की गोद में हैं। उनका उठना-बैठना सरकार के लोगों के बीच ज़्यादा है। दिन भर ट्विटर पर सरकार का प्रचार करते देख रहा है तो वह भरोसा नहीं करेगा। क्या पता उसक ऑफ-रिकार्ड की जानकारी एंकर नेता को ऑफ-रिकार्ड बता दे और बाद में नेता उस अधिकारी की हालत ख़राब कर दे। सूत्र पत्रकार से बात करना चाहेगा। दलाल से नहीं। नौकरशाही के पास धंधे के लिए अपने दलाल होते हैं तो वह एक और दलाल से फ्री में क्यों डील करे। है कि नहीं।

पत्रकारिता ख़त्म हो चुकी है। आप अगर इस बात को अपवाद के नाम से नकारना चाहते हैं तो बेशक ऐसा कर सकते हैं।यह बात भी सही है कि कुछ लोग पत्रकारिता कर रहे हैं। काफी अच्छी कर रहे हैं लेकिन आप अपनी जेब से तो पूरे अखबार की कीमत देते हैं न। उस अपवाद वाले पत्रकार को तो अलग से नहीं देते। लौटते हैं विषय पर। रिपोर्टर नहीं है। एंकर ही एंकर है। हर विषय पर बहस करता हुआ एंकर।

जो विशेषज्ञ पहले रिपोर्टर से आराम से बात करता था अब सीधे एंकर के डिबेट में आता है। विशेषज्ञ को पांच मिनट का समय मिलता है जो बोला सो बोला वह भी दिखने से संतुष्ट हो जाता है। उसे पता है कि रिपोर्टर बात करता था तो समय लेकर बात करता था लेकिन एंकर के पास ‘हापडिप’(फोकसबाज़ी) के अलावा किसी और चीज़ के लिए टाइम नहीं होता है। विशेषज्ञ या किसी विषय के स्टेक होल्डर की निर्भरता भी उसी एंकर पर बन जाती है। वह उसी को फोन करेगा।

मुझे एक दिन में बीस विषयों के विशेषज्ञ मैसेज करते हैं और अपराध बोध से भर देते हैं कि आपको यह भी देखना चाहिए। ज़ाहिर है मैं बीस विषय नहीं कर सकता। वह तो फोन कर फिल्म देखने लगता है लेकिन मैं न कर पाने के अपराध बोध में डूबा रहता हूं।

ये भी पढ़ें : पाकिस्तान में उठी काली आँधी के ख़तरे!

यही चीज़ पाठक और दर्शक के साथ होती है। मुझे बैंक डकैती से लेकर ज़मीन कब्ज़ा, हत्या, बिजली-पानी की समस्या और न जाने कितनी समस्याओं के लिए लिखित संदेश आते हैं। मोहल्ले में तीन दिन से बिजली नहीं है तो रवीश कुमार को अपनी पत्रकारिता साबित करनी है और गुंडों ने ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया तो रवीश कुमार को अपनी पत्रकारिता साबित करनी होती है। दिन भर में इस तरह से सैंकड़ों मैसेज आते हैं जिसमें रवीश कुमार को साबित करने की चुनौती दी जाती है।

हर समय फोन ऐसे बजता है जैसे अग्निशमन विभाग के कॉल सेंटर में बैठा हूं। यही कारण है कि कितने महीनों से फोन उठाना बंद कर चुका हूं। क्या आप दिन में एक हज़ार फोन उठा सकते हैं? मैं नरेंद्र मोदी नहीं हूं कि सिर्फ मेरे ट्वीट को रि-ट्वीट करने के लिए दस मंत्री ख़ाली बैठे हैं। मेरे पास न सचिवालय है और न बजट है।

ध्यान रहे इसमें नागरिक की ग़लती नहीं है। मुझसे आपका निराश होना जायज़ है।अपने फेसबुक पेज पर और शो में मैंने कई बार संसाधनों की कमी की बात की है। कल किसी जगह से एक महिला का फोन आया। बातचीत से लगा कि उन्हें ऐसा भ्रम है कि हर जगह हमारे संवाददाता हैं। उनके पास गाड़ी है। गाड़ी में सौ रुपये लीटर वाला पेट्रोल है।

मेरे फोन करते ही वहां पहुंच जाएंगे। संवाददाता के भेजे गए वीडियो को प्राप्त करने के लिए न्यूज़ रुम में पांच लोग इंतज़ार कर रहे हैं।उसे देखकर खबर लिखने वाले दस बीस लोगों की टीम है और फिर उसे एडिट करने के लिए वीडियो एडिटर की भरमार है। पता होना चाहिए कि इसके लिए काफी पैसे की ज़रूरत है। मुझे लगा कि समझाऊं लेकिन बहुत वक्त चला जाता।

इतना ज़रूर होता है कि ऐसे लिखित संदेश से मुझे पता चलता है कि आम लोगों के जीवन में क्या घट रहा है। उस फीडबैक का मैं अपने कार्यक्रम में इस्तमाल करता हूं लेकिन कई बार नहीं कर पाता। लोग बार बार मैसेज करते रहते हैं। लगातार फोन करते हैं। मेरे दिलो-दिमाग़ पर गहरा असर पड़ता है। मैं हर समय इन्हीं चीज़ों से जुड़ा रहता हूं। लगातार इन दुखद दास्तानों से गुज़रते हुए आप कैसे हंस सकते हैं।

एक मैसेज से निकलता हूं तो दूसरा आ जा जाता है। काम ही ऐसा है कि मैं फोन को उठाकर दूर नहीं रख सकता। यह विकल्प मेरे पास नहीं है। मैंने कई बार अपने काम का हिसाब दिया है। मैं एक शो के लिए उठते ही काम शुरू कर देता हूं। छह बजे से लेकर चार बजे तक लिखते मिटाते रहना आसान नहीं है। पिछले ही शुक्रवार को एक पूरा शो तैयार करने के बाद बदलना पड़ा और नया शो लिखना पड़ा।

एक मिनट का भी अंतर नहीं था। मेरी उंगलियां कराह रही थीं। उंगलियों के पोर में ऐसा दर्द उठा कि अगर मेरे पास पेंशन की व्यवस्था होती तो उसी वक्त यह काम छोड़ देता। बाकी एंकर इतना काम करते हैं या नहीं आप उनके कार्यक्रम को देखकर अंदाज़ा लगा सकते हैं। ख़ैर मैं यहां तक सिर्फ अपनी बात नहीं कर रहा। यहां तक मैं एक पेशे के रूप में पत्रकारिता के खत्म होने, संस्थान और संसाधनों की कमी की बात कर रहा हूं।

अब मैं अपनी कमी की बात करना चाहता हूं। संसाधन की कमी के अलावा मैं बहुत सी ख़बरें अपनी अयोग्यता के कारण कवर पाता हूं। आज की पत्रकारिता बदल गई है। एक तो वह है नहीं लेकिन जो है उसे समझने और पेश करने के लिए कुछ योग्यताएं मुझमें नहीं हैं। मैं समय की कमी की बात नहीं करना चाहता।

इस महामारी में आपने देखा होगा कि कई विश्वविद्यालय आंकड़ों का विश्लेषण कर रहे हैं। हर दिन आने वाले मामलों की संख्या और मरने वालों की संख्या का विश्लेषण कर रहे हैं। आपने देखा होगा कि एक ग्राफ या चार्ट पेश किया जाता है। कुछ चार्ट बेहद बारीक और ज़रूरी होते हैं। इनकी समझ हासिल करने में मुझे बहुत दिक्कत होती है।

अगर मुझे डेटा देकर कोई ग्राफ बनाने के लिए दिया जाए तो मैं नहीं बना सकूंगा। आज की पत्रकारिता में डेटा का बड़ा रोल है। आप जानते हैं कि सरकार और कंपनी दोनों आपकी हर आदत का डेटा जमा कर रहे हैं। इसे पकड़ने के लिए डेटा साइंस की समझ बहुत ज़रूरी है।

पहले यह मेरी कमी नहीं थी क्योंकि न्यूज़ रूम में इस काम को करने वाले दूसरे योग्य लोग थे। अब उनका काम भी मुझी को करना है तो यह मेरी कमी बन गई है। आप उम्मीद भी मुझी से करते हैं। बेशक मैं इस कमी को दूर करने के लिए अपने कुछ योग्य मित्रों की मदद लेता हूं। उनसे काफी समय लेकर समझता हूं।

तब भी कई चीज़ों को साफ साफ अपनी भाषा में लिखने में दिक्कत आती है। आज के दौर में पत्रकार के लिए डेटा साइंस में दक्ष होना बहुत ज़रूरी है। महामारी ही नहीं, अर्थव्यवस्था को समझे के लिए भी। आपने देखा होगा कि सरकार भी डेटा मेंं ही बात करती है। इसे समझने के लिए आप डेटा साइंस में जितना दक्ष होंगे, उतना अच्छा होगा। आप जानते हैं कि मैं गणित में भी कमज़ोर हूं। अंग्रेज़ी की कमी अब कभी-कभार ही सताती है जब किसी ख़ास जटिल वाक्य को सही से नहीं लिख पाता लेकिन बाकी ख़ास दिक्कत नहीं होती।

बहुत से लोगों से पूछ लेता हूं और ख़ुद भी समझ लेता हूं। बोल नहीं पाता तो कोई बात नहीं। लॉकडाउन में इसकी ज़रूरत खत्म हो गई है क्योंकि रहता ग़ाजियाबाद में हूं, वाशिंगटन में नहीं। एनि वे।

अब मैं अपनी दूसरी कमी की बात करना चाहता हूं।मैं अक्सर मेडिकल साइंस से जुड़ी ख़बरों को कवर करने में ख़ुद को अयोग्य पाता हूं। अस्पतालों की व्यवस्था से जुड़े पहलुओं को कवर कर लेता हूं लेकिन जब बात इलाज और मेडिकल साइंस की तकनीक की आती है तो मैं अपनी कमियों से घिर जाता हूं। जैसे पीएम केयर्स के वेंटिलेटर घटियां हैं।

अदालत कहती है। डॉक्टर भी ऑफ रिकार्ड कहते हैं कि पीएम केयर्स वाले वेंटिलेटर में आक्सीजन का दबाव कम हो जाता है जिससे मरीज़ की जान जा सकती है। यह वेंटिलेटर नहीं है। लेकिन इस वेंटिलेटर पर कौन कौन भर्ती हुआ था, उसके परिजनों को ढूंढना, रिपोर्ट देखना, डाक्टर से बात करने की योग्यता मुझमें नहीं है।

संसाधान तो है ही नहीं। इसे कवर करने के लिए वेंटिलेटर के एक्सपर्ट की ज़रूरत है। लेकिन कोई सामने आने के लिए तैयार नहीं है जो वेंटिलेटर के पास लेकर विस्तार से बताए कि देखिए ये पुर्ज़ा नहीं है। इसकी पाइप खराब है। एनिस्थिसिया का ही कोई बंदा इस मशीन की बेहतर पोल खोल सकता है। लिहाज़ा आपूर्ति, वितरण, खराबी और स्टाफ की कमी तक ही खुद को सीमित करना पड़ता है।

आपने देखा होगा कि  मैंने फेसबुक पेज पर पोस्ट किया था कि जिन लोगों के मृत्यु प्रमाण पत्र में कोविड नहीं लिखा है लेकिन मौत कोविड से हुई है, ऐसे लोग मोबाइल फोन से वीडियो बनाकर भेजें। उस वीडियो में दोनों ही प्रमाण पत्र दिखाएं और अपनी तकलीफ बताएं कि मृत्यु प्रमाण पत्र को लेकर क्या क्या सहना पड़ा है।

कई लोगों ने कहा कि उनके अपने गुज़र गए और उसके दस दिन बाद कोविड पोज़िटिव रिपोर्ट आई। लेकिन क्या तब मृत्यु प्रमाण पत्र में कोविड जोड़ा गया। कई कारणों से लोग वीडियो बना कर भेजने का साहस नहीं जुटा पाए। मैं समझता हूं लेकिन अगर इसका कारण डर है तो दुख की बात है। लेकिन इसी क्रम में कई मैसेज ऐसे भी आए कि फलां अस्पताल ने ग़लत इलाज किया। पूरी रिपोर्ट भेज दी। उसमें एक्स रे रिपोर्ट है। कई तरह की जांच रिपोर्ट है। डॉक्टर की पर्ची है।

अब ऐसे मामलों को कवर करने की योग्यता मुझमें नहीं है।मैं मेडिकल रिपोर्ट देखने और समझने की क्षमता नहीं रखता हूं। न ही मेरे पास डाक्टरों की टीम है जो मूल्यांकन करें। इसके लिए डाक्टर को भी अपने पेशे के डॉक्टर की ख़राब डॉक्टरी पर उंगली उठाने की साहस रखना होगा। संदेह का लाभ हमेशा डॉक्टर को ही मिलेगा और मरीज़ की लाश उसके परिजन को। एक पत्रकार के तौर पर मैं साबित नहीं कर सकता कि इलाज ग़लत हुआ है।

जिस अस्पताल में गलत इलाज हुआ है वह दस डॉक्टर को खड़ा कर देगा जो मेडिकल शब्दावलियों का इस्तमाल कर आपको घुमा देंगे। हो सकता है वो सही ही बोल रहे हों लेकिन उनकी बात पर सवाल उठाने की योग्यता मुझमें नहीं है। आप कभी किडनी तो कभी हार्ट का रिपोर्ट लेकर आ जाएंगे तो मुझे एंकर के साथ साथ अस्पताल बनना पड़ेगा और अस्पताल के हर विभाग का डॉक्टर बनना पड़ेगा।मैं नहीं तय कर सकता कि किस चरण में कौन सी दवा दी जानी चाहिए थी और कौन सी दवा दी गई।

काश ऐसा न होता। अस्पताल के भीतर भी ऐसे लोग होते तो ग़लत इलाज को ग़लत बोलते या बाहर ऐसी कोई संस्था होती जो ग़लत इलाज को स्थापित करती। जब तक डॉक्टर आगे नहीं आएंगे ऐसी शिकायतों का कोई भविष्य नहीं है। कुछ लोगों ने मुकदमा जीता है तो ऐसे में उन मुकदमों का अध्ययन करना चाहिए और फिर परिजन को कोर्ट में केस करना चाहिए। उसे यह लड़ाई अपने धीरज से लड़नी होगी, ख़बर से नहीं।

एक चुनौती यह भी आती है कि दूसरा डॉक्टर ही सही है इसे एक पत्रकार कैसे तय करेगा, जिसका मेडिकल साइंस से कोई वास्ता नहीं है। एक बीमारी के इलाज को लेकर चार डॉक्टर चार ओपनियन देते हैं। कई बार सही इलाज करते हुए भी मरीज़ का बिगड़ जाता है। बहुत से कारण होते हैं। मैं नहीं कह रहा कि ग़लत इलाज नहीं होता। बिल्कुल होता है लेकिन इसे एक विश्वसनीय तरीके से करने की योग्यता मुझमें नहीं है।

इस महामारी के सामने भारत की पत्रकारिता फेल हो गई। उसके संस्थानों में एक भी ऐसा नहीं था जो मेडिकल साइंस का जानकार हो और जिसकी विश्वसनीयता हो। जो आई सी एम की गाइडलाइन को चैलेंज करता। जो बताता कि नौ महीने तक गाइडलाइन नहीं बदली गई। जो पूछता कि कोविड का इलाज कर रहे डाक्टरों के साथ इस गाइडलाइन को लेकर किस तरह का संपर्क किया गया है।

जो बताता कि इस अस्पताल का डाक्टर इस तरह से इलाज कर लोगों की जान बचा रहा है या उसका रिज़ल्ट बेहतर है। जो मेडिकल जर्नल के रिसर्च को पढ़कर आपके लिए पेश करता। मेरी तो कमी है ही पत्रकारिता की भी कमी है। विशेषज्ञ के नाम पर जो लोग वैचारिक लेख लिख रहे थे उनमें भी ज़्यादातर बेईमानी थी। वो उपाचर की पद्धति और उसकी कमज़ोरी पर नहीं लिख रहे थे। उसे उजागर नहीं कर रहे थे। अपने लेख में वे पेशे को बचा रहे थे। कुछ बातें तो कह रहे थे लेकिन बहुत बातें नहीं कह रहे थे।

अब जैसे मान लीजिए, कि कोई बताता है कि उसके गांव में चार लोगों की मौत टीका लगाने के तुरंत बाद हो गई। ऐसी सूचना को धड़ाक से प्रसारित करने से कई तरह की भ्रांतियां फैल सकती हैं लेकिन क्या इस सूचना को समझने, टीका से होने वाली मौत के बाद की प्रक्रियाओं को समझने की योग्यता है? नहीं है।

हमें अपनी कमियों की सूची बनाती रहनी चाहिए। याद रखना चाहिए कि पत्रकारिता सिर्फ एक पेशा नहीं है बल्कि यह अलग-अलग पेशों को व्यक्त करने वाला पेशा है। इसके लिए सिर्फ एक एंकर नहीं, पूरा सिस्टम चाहिए।

आप अगर मेसैज भेज कर मुझे कोसना चाहते हैं तो मुझे बुरा नहीं लगेगा। प्लीज़ कीजिए। कम से कम आपका दुख तो साझा कर ही रहा हूं।मैं आपको सुन रहा हूं। सुनना चाहता हूं। बस कुछ न कर पाने का अफसोस उतना ही है जितना आपको है।

मुझे अच्छा लगेगा कि आप इस पोस्ट के बाद पत्रकारिता दिवस की बधाई न दें। दिवसों की बधाई से अब घुटन होने लगी है। राजनीतिक और सामाजिक पहचान के लिए हर दिन एक नया दिवस खोजा रहा है। फ़ोटो में अपना फ़ोटो लगाकर बधाई मैसेज ठेल दिया जाता है।

यहाँ लोग नरसंहार को चार दिन में भूल गए और आप किसी का फ़ोटो। ठेल कर उम्मीद करते हैं कि महापुरुष जी याद रखे जाएँ। वो भी एक लाइन के बधाई संदेश और फ़ोटो से। है कि नहीं।

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