द राइज़िंग कश्मीर के संपादक शुजात बुख़ारी की आतंकवादियों ने गोली मार कर हत्या कर दी है। कश्मीरी से आने वाली संतुलित आवाज़ ख़ामोश कर दी गई। हम ही नहीं बहुत से पत्रकार और राजनेताओं को शोक पहुँचा है। न बातचीत से हल निकलता है न बंदूक़ से। कश्मीर की वादी में बह रही सनक भरी ये हवा कब ख़ामोश होगी पता नहीं। इस राज्य की गतिविधियों को समझते रहने वाले और उन पर लिखने वाले को पढ़ते पढ़ते थकान सी होने लगती है। इस रक्तपात को किस बहिखाते में जोड़ा घटाया जाता होगा। एक और निंदा का वक़्त है और उस सुबह के लंबे इंतज़ार का धीरज ज़ब्त करने को कहता है। जो लगता है कभी आएगी ही नहीं। रोज़ाना बहादुर जवानों की शहादत की लंबी होती फ़ेहरिस्त इस समस्या की निरर्थकता ज़ाहिर करती है। न जाने किस किस की चौखट पर लाशें पहुँच रही हैं। पहुँचने वाली हैं। हम जैसे जो दूर से कश्मीर को देखते हैं, उसके बारे में कम जानते हैं, ख़ुद को कैसे तसल्ली देते रहें। अगर पढ़ पढ़ कर जिज्ञासा शांत करना ही कश्मीर को समझना है तो उस समझ की सुबह भी न जाने कब आने वाली है। कश्मीर का क नहीं जानने वाले ज्ञ तक जानने का दावा किस हिम्मत से कर लेते हैं, पता नहीं। इस हल्ला गाड़ी से तौबा कर लीजिए। ईश्वर शुजात बुख़ारी साहब के परिवार को हिम्मत दे और बाक़ियों को सदबुद्धि।
ये लेख रविश कुमार के फेसबुक पेज से लिया गया है|