बिहार का चुनाव हो गया, नतीजे आ गए, हार-जीत के बाद जायज़ों और समीक्षाओं का काम जारी है, जायज़ा अपना कम दूसरों का ज़्यादा लिया जा रहा है, हारने वालों की तरफ़ से EVM और वोट की गिनती को लेकर शक-शुब्हे जताए जा रहे हैं और इल्ज़ामात लगाए जा रहे हैं, मौजूदा केन्द्र सरकार की सरपरस्ती में जिस तरह जम्हूरी इदारों का गला घोंटा जा रहा है.
उससे इन इल्ज़ामात में सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता, कई मक़ामात पर जीते हुए उम्मीदवार को हरा दिया गया है, यानी लोकतन्त्र दाँव पर है, देश जिस तरह फासीवाद की तरफ़ बढ़ता चला जा रहा है उससे ख़तरा है कि लोकतन्त्र का अन्तिम संस्कार ही न हो जाए.
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बिहार में ओवैसी साहब की जीत को लेकर हर तरफ़ बातें हो रही हैं, उनकी जीत किसी के दिल में काँटा और किसी के दिल में तलवार बनकर खटक रही है, सेक्युलर पार्टियाँ ज़्यादा परेशान हैं, क्योंकि उन्हें अपना बँधुआ मुस्लिम वोट ख़तरे में दिखाई दे रहा है, जबकि हक़ीक़त यह है कि आज़ादी के बाद मुसलमानों ने बेशुमार नाम निहाद सेक्युलर मसीहाओं पर भरोसा किया, मुसलमानों ने आज़ाद, नेहरू, इन्दिरा, राजीव गाँधी पर यक़ीन किया.
कॉंग्रेस के हाथ में हाथ ऐसा दिया कि हाथ कटा दिया लेकिन छोड़ा नहीं, बाबरी मस्जिद गिरा दिये जाने के बाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती, बिहार में लालू प्रसाद और नितीश कुमार, बंगाल में ज्योति बसु और उनके बाद ममता, दिल्ली में शीला दीक्षित और उनके बाद अरविन्द केजरीवाल, ये सब मुसलमानों के मसीहा बनकर उठे और उनके ज़ख़्मों पर नमक छिड़कते रहे, तमाम सेक्युलर पार्टियाँ बीजेपी का डर दिखाकर ठगती रहीं, मुसलमान मुस्लिम पार्टियों को यह कहकर नज़र अन्दाज़ करते रहे कि उनको वोट करने से हिन्दू वोट एक हो जाएगा और बीजेपी जीत जाएगी.
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साम्प्रदायिकता का डर आज तक हमारे ज़ेहनों पर छाया हुआ है, अगर अपनी क़ौम की समस्याएँ उठाना साम्प्रदायिकता है तो फिर दलितों की बात करने पर मायावती, जाटों की बात करने पर अजीत सिंह, यादवों की बात करने पर मुलायम सिंह को भी साम्प्रदायिक कहा जाना चाहिये, देश भर में तीन और चार पर्सेंट वाली ज़ातों की अपनी-अपनी आज़ाद सियासी पार्टियाँ हैं.
लेकिन आसाम में 33%, बंगाल में 31%, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में लगभग 20% आबादी वाले मुसलमानों की आज़ाद सियासी पार्टी बनाने पर सवाल खड़े करना मानो मुसलमानों के आज़ाद सियासी वुजूद से इनकार करना है, लेकिन ये बात तमाम सियासी पार्टियों को समझ लेनी चाहिये कि अगर उन्होंने मुसलमानों के साथ इन्साफ़ से काम नहीं लिया तो मुसलमानों को देश के संविधान के अनुसार अपना और अपनी नस्लों का भविष्य तय करने से कोई नहीं रोक सकता.
बिहार चुनाव में AIMIM के पाँच MLA जीतकर असेंबली में पहुँचे हैं, उम्मीद है कि ये बिहार असेंबली में मुसलमानों की मज़बूत आवाज़ बनकर उभरेंगे, इन पाँच विधायकों के जीतने पर पूरे देश में बहस हो रही है, ज़्यादातर लोग मजलिस की जीत को महागठबन्धन की हार बता रहे हैं, एक बार फिर वही डर पैदा किया जा रहा है जो आज़ादी के बाद से किया जाता रहा है.
हालाँकि सीमांचल की जिन सीटों पर महागठबन्धन हारी है वहाँ हार-जीत का फ़र्क़ मजलिस को मिले वोटों से ज़्यादा है, फिर यह बात कैसे कही जा सकती है कि बिहार में मजलिस की वजह से बीजेपी की जीत हुई है?
हिन्दू वोट के पोलाराइज़ेशन के ख़ौफ़ ने मुसलमानों को आज तक भारत स्तर की मुस्लिम राजनीतिक पार्टी बनाने से रोके रखा, मुस्लिम लीग (केरल को छोड़कर), डा० अब्दुल-जलील फ़रीदी, डा० मसऊद और डा० अय्यूब आदि इसी डर की वजह से नाकाम हो गए.
यही ख़ौफ़ अब मजलिस का पीछा कर रहा है, इसी ख़ौफ़ ने मुसलमानों को भागीदार के बजाय भिकारी बनाए रखा है, तमाम राजनीतिक पार्टियाँ यही ख़ौफ़ पैदा करती रहीं और वोट हासिल करती रही हैं, लेकिन इसका नतीजा क्या निकला? मुसलमानों के सियासी वज़न में लगातार कमी आती रही, हिंदुत्व ज़ोर पकड़ता रहा.
जबकि जायज़े और समीक्षा से यह बात मालूम होती है कि देश में जहाँ कहीं भी बीजेपी की सरकार आई है उसमें किसी मुस्लिम पार्टी का कोई रोल नहीं है, बल्कि ख़ुद सेक्युलर पार्टियों के बिखराव और इख़्तिलाफ़ ने उन्हें रास्ता दिया है, उनकी कमज़ोर लीडरशिप ने बीजेपी को ताक़त दी है, इसके बर-ख़िलाफ़ केरल में मुस्लिम लीग चुनाव लड़ती है.
सरकार बनाने में भी शरीक रहती है, लेकिन वहाँ बीजेपी को कोई कामयाबी नहीं मिली, तेलंगाना में मजलिस की मौजूदगी और सरकार में हिस्सेदारी के बावजूद बीजेपी किसी ऐसे मक़ाम पर नहीं पहुँच पाई है जिसका ज़िक्र किया जाए.
जबकि इन दोनों राज्यों में मुसलमानों ने हर तरह से तरक़्क़ी की है, तेलंगाना में उप-मुख्यमन्त्री और गृह-मन्त्री मुसलमान को बनाया गया सिर्फ़ इस डर से कि कहीं मुस्लिम वोटर टी आर एस से नाराज़ होकर पूरे तौर पर मजलिस की झोली में न चला जाए, आसाम में ज़रूर ए आई यू डी ऍफ़ ने कांग्रेस को सरकार से बेदख़ल कर दिया लेकिन इसमें कांग्रेस की ग़लती थी, उसने ए आई यू डी ऍफ़ से अपनी नाक की ख़ातिर समझौता नहीं किया.
यह बात भी सामने रहनी चाहिये कि केरल, तेलंगाना या आसाम में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि सारे मुसलमानों ने सिर्फ़ मुस्लिम पार्टियों को ही वोट किया हो, इन तीनों राज्यों में कांग्रेस, सी पी आई, टी आर एस और दूसरी पार्टियों को भी मुसलमानों ने वोट किया, इसी तरह सीमांचल की पाँच सीटों के अलावा पूरे बिहार में सारा मुस्लिम वोट सेक्युलर पार्टियों को ही मिला है, जबकि ज़्यादातर सीटों पर सेक्युलर पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवार दूसरी पार्टियों के ग़ैर मुस्लिम वोटों से महरूम रह गए.
जिसकी वजह से अब्दुल-बारी सिद्दीक़ी जैसे बड़े नेता को हार का मुँह देखना पड़ा, यह भी देखने की बात है कि सारे मुसलमानों ने भी एम आइ एम को वोट नहीं दिया, अगर ऐसा होता तो मजलिस अपनी तमाम सीटें जीत जाती, जबकि वो किशन गंज सीट हार गई जहाँ 70% मुस्लिम वोटर हैं, यही लोकतन्त्र की ख़ूबसूरती है, इसलिये यह कहना कि मुस्लिम पार्टी की वजह से बीजेपी को फ़ायदा हुआ या होता है या होगा, बे-बुनियाद बात है, अच्छा अगर हम मान भी लें कि ऐसा हो सकता है तो क्या तूफ़ान आ जाएगा, इससे ज़्यादा बुरे हालात और क्या होंगे जो अब हैं.
एक बात यह कही जाती है कि तमाम सेक्युलर पार्टियाँ मुसलमानों को टिकट देती हैं, इसलिये अलग से मुस्लिम पार्टी की ज़रूरत नहीं है, मैं मानता हूँ कि हर पार्टी मुसलमानों को टिकट देती है, लेकिन उनके टिकट पर जीतने वाले मुसलमान, मुसलमानों के नहीं, अपनी पार्टियों के नुमाइन्दे होते हैं, जो पार्टी की पॉलिसी और व्हिप के पाबन्द होते हैं,
मैं समझता हूँ कि मुसलमानों को हिन्दू पोलाराइज़ेशन के डर से बाहर आकर अपने इशूज़ को सामने रखते हुए देश और उसकी सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के मक़सद के तहत हर राज्य में चुनावी राजनीति में आना चाहिये, यह उनका संवैधानिक अधिकार है, इस तरह उनके जो भी नुमाइन्दे विधान सभा और लोक सभा में पहुँचेंगे वे उनके अधिकार की बात करेंगे, ज़रूरत के अनुसार वे सरकार का हिस्सा भी बन सकते हैं.
दूसरा फ़ायदा यह होगा कि सत्ता पर विराजमान सेक्युलर पार्टियाँ मुस्लिम वोट को साथ रखने के लिये मुस्लिम वेलफ़ेयर के काम करने पर मजबूर होंगी, तीसरा फ़ायदा ख़ुद मुस्लिम नेताओं को होगा कि सेक्युलर पार्टियों में उनकी अहमियत बढ़ जाएगी, अगर मुस्लिम राजनीतिक लीडरशिप ने अपने बेहतरीन उम्मत होने के नाते इन्सानियत की भलाई और तरक़्क़ी के लिये काम किया तो कोई वजह नहीं कि देश के दूसरे समाज की सपोर्ट भी उसे हासिल न हो.
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली