नई दिल्ली: गुजरात से शुरू होकर महाराष्ट्र होते हुये दिल्ली के सुलभ संस्थान पर पहुंचकर मेरी गांधी दर्शन की यात्रा पूरी हुई और मेरे जीवन के सबसे यादगार क्षणो मे से अधिकतर सुलभ शौचालय संग्रहालय मे स्वच्छता की शिक्षा देते हुये गांधी दर्शन के प्रचार-प्रसार कार्य से जुड़े है।
हालांकि सांस्कृतिक राष्ट्रवादी तथा सूफी मत का मानने वाला होने के कारण मेरे राजनीतिक विचार महात्मा गांधी से भिन्न है किंतु उनकी जीवनशैली मेरे लिये आदर्श तथा प्रेरणा का स्रोत रही है क्योकि मेरे धर्मगुरु ने सच बोलने तथा अपना काम खुद करने शिक्षा दी है परन्तु व्यवहारिक जीवन मे यह संभव नही होता है,
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लेकिन गांधी जी का यह प्रयास रहा कि हर काम खुद किया जाये और संवेदनशील तथा गोपनीय विषयो पर भी सच बोलते हुये वो खुलकर विचार रखते इसलिये जब उन पर पुलित्ज़र प्राइज (Pulitzer-Prize) विजेता लेखक जोज़फ लेलीवेल्ड (Joseph Lelyveld) ने जर्मन यहूदी हरमन कैलेंबच (Hermann Kallenbach) के साथ शारीरिक संबंध रखने का अभद्र आरोप लगाया तब मैंने लेख लिखकर और परिचर्चा (डिबेट) के माध्यम से अपना हला फाड़ते हुये चिल्ला-चिल्लाकर उसका विरोध किया,
क्योकि लेखक ने गांधीजी के पत्रो मे उपयोग की गई भाषा को तोड़-मरोड़ कर अनुवाद किया था किंतु मेरा तर्क था कि अगर महात्मा गांधी समलैंगिक संबंध रखते तो वह कभी इसको छुपाते नही है परन्तु मीडिया पर इलुमिनाटी जैसी शैतानी संस्थाओ तथा फासीवाद जैसी अमानवीय विचारधारा वाले लोगो का वर्चस्व है इसलिये मेरी आवाज को दबा दिया गया।
सूफीवादी साहित्य अथवा विचारधारा मे मनुष्य के दो प्रकार के शरीर का वर्णन किया जाता है जिसमे से पहला भौतिक शरीर (नश्वर) कोशिकाओ से बने अंगो का है जो रक्त संचार के माध्यम से कार्य करता है और दूसरा अध्यात्मिक शरीर (अमर) उर्जा रूपी प्रकाश-पुँजो (नूर) से बना है और तरंगो के माध्यम से कार्य करता है जिसके अंगो को लतीफा जाता है हालांकि भौतिक शरीर जन्म से ही क्रियाशील होता है और क्रिया बंद हो जाने के बाद इसकी मृत्यु हो जाती है।
लेकिन अध्यात्मिक शरीर स्थिर होता है जिसे ज़िक्र (साधना/जाप) के माध्यम से बेदार (क्रियाशील/गतिमान) किया जाता है तथा यह भौतिक शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी क्रियाशील रहता है अर्थात आत्मा अमर रहती है,किंतु महात्मा गांधी सूफीवादी व्यक्ति नही थे
परन्तु वह सनातन-धर्म की आध्यात्मिक जीवन शैली को अपनाते है अर्थात सन्यासियो जैसा जीवन जीते थे इसलिये उन्होने हरमन कैलेंबच को लिखा कि तुमने मेरे भौतिक जीवन संबंधी विचारो पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है जिसकी धूर्त लेखक जोज़फ लेलीवेल्ड ने भौतिक शरीर से व्याख्या करी जबकि महात्मा गांधी का अभिप्राय यह था कि मै आध्यात्मिक रूप से एक सनातन सन्यासी हो किंतु मेरे भौतिक विचारो पर तुम्हारी तथा लियो टॉलस्टॉय की समाजवादी विचारधारा का प्रभाव है,क्योकि महात्मा गांधी स्पष्टवादी तथा सत्य बोलने वाले व्यक्ति थे इसलिये वह कभी भी सेक्स संबंधी विषयो पर गोलमोल बात करने के बजाय हमेशा स्पष्ट विचार रखते थे
क्योकि उनका मत था कि यौन-क्रिया (Sex) एक मनोवैज्ञानिक प्रसंग/घटना (Psychologicalphenomenon) है अर्थात हमारे शरीर पर मन का नियंत्रण होता है जिसके कारण यह क्रिया बहन-बेटी तथा पत्नी के बीच के अंतर को समझती है जबकि पश्चिमी सभ्यता मे इसको शारीरिक प्रसंग/घटना (Physical Phenomenon) माना जाता है लेकिन महात्मा गांधी सिर्फ विचारधारा के प्रचार तक सीमित नही रहे बल्कि उन्होने इस व्याख्या को प्रमाणित करने के लिये अपने अनुभव को बताते हुये कहा कि वह 17 वर्षीय मनु के साथ नग्नावस्था मे रहे थे जिसको उनके विरोधी तोड़-मरोड़ कर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये उपयोग करते रहे है।
महात्मा गांधी ने बताया कि जब वह पहली बार जलयान से साउथ अफ्रीका जा रहे थे तो कई दिन तक अंग्रेजी शौचालय का उपयोग करने से बचते रहे जब तक उनकी स्थिति बहुत दयनीय ना हो गई चूँकि महात्मा ने बड़ी सच्चाई से वृतांत को बताया इसलिये वह आज भी सम्माननीय-विश्वसनीय व्यक्ति है क्योकि आज के युग मे कोई भी व्यक्ति अपने जीवन के ऐसे व्यक्तिगत रहस्य को नही बतायेगा जिससे उसकी छवि सामाजिक रूप से पिछड़े व्यक्ति की बन जाये या लोग उसका मज़ाक बनाएं और ऐसी ही एक दूसरी घटना मे महात्मा गांधी ने अपने पहले कोर्ट मे दिये गये भाषण के बारे मे बताते हुये लिखा था
कि इंग्लैंड मे प्रथम बार कोर्ट मे बोलते हुये मै इतनी बुरी तरीके से नर्वस हो गया था कि जिसके कारण मेरे मुंह से शब्द तक नही निकल रहे थे तथा पैर कांप रहे थे फिर स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि मुझे भाषण अधूरा छोड़कर कोर्ट से बाहर जाना पड़ा था
हालांकि इस घटना के वर्णन से उनकी छवि खराब हो सकती थी लेकिन उन्होने सच बोलने मे ज़रा सी भी हिचकिचाहट नही करी इसलिये मै दावे के साथ लिख सकता हूं कि सच बोलने मे महात्मा गांधी किसी से पीछे नही रहते थे और ना ही किसी से डरते थे,लेकिन महात्मा गांधी को समझने के लिये कम से कम तीन लाख शब्द पढ़ने होगे या कम से कम 6 महीने तक पुस्तको का अध्ययन करना होगा तब जाकर कोई बुद्धिजीवी महात्मा गांधी के विचारो की व्याख्या करने के काबिल हो सकेगा किंतु आज के युग मे लेखको के पास समय की कमी है इसलिये वह दो-चार किताबे पढ़कर या इंटरनेट से आठ-दस लेख पढ़कर अपने आप को विषय विशेष का विशेषज्ञ समझने लगते है,
यद्यपि आधुनिक इतिहास मे किसी महात्मा के ऊपर इतनी कीचड़ नही उछाली गई जितनी कीचड़ गंदगी महात्मा गांधी के ऊपर फेकी गई है किंतु महात्मा गांधी आज भी अमर है और लोगो के मन/मस्तिष्क पर छाए रहते है परन्तु महात्मा गांधी की सबसे बड़ी खूबी यह है उनके शत्रु भी एक दिन के समर्थक या मित्र बन जाते है जिसमे 1890 के दशक मे दक्षिण अफ्रीका मे महात्मा गांधी को थप्पड़ मारने वाले पठानो से लेकर 2020 के हिंदू राष्ट्रवादी भी शामिल है जो उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को अपना आदर्श मानते रहे है।
महात्मा गांधी की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह छोटा सा छोटा काम भी स्वयं करने का प्रयास करते थे हालांकि गांधी जी ने कई पाश्चात्य परंपराओ का विरोध किया लेकिन उन्होने यह स्वीकार किया कि सफाई/स्वच्छता (Sanitation) उन्होने पश्चिमी संस्कृति से ही सीखी है क्योकि बचपन से ही गांधीजी स्वच्छता को पसंद करते हुये सफाई कर्मचारियो के लिये मन मे प्रेम भावना रखते थे और एक दिन उन्होने राजकोट स्थित अपने पैतृक घर मे मैला ढोने वाली महिला उका (Uka) को सम्मान-वश छू दिया तो उनकी माता पुतलीबाई ने उन्हे तुरंत स्नान करने का आदेश दिया किंतु महात्मा गांधी ने अपनी माता जी से कहा कि जो महिला हमारी गंदगी-मैला साफ करती है अर्थात हमे स्वच्छता प्रदान करती है वह महिला को अस्वच्छ नही हो सकती है
क्योकि भगवान राम ने भी गुहाका (Guhaka) जोकि एक चांडाल था उसको स्पर्श किया था और रामायण भी हमे सफाई कर्मचारियो से सम्मानजनक व्यवहार करने को प्रेरित करती है,परन्तु जब अपने साउथ अफ्रीका प्रवास के दौरान महात्मा गांधी ने पाया कि जिन फूहड़ (असभ्य) हरकतो की वजह से अंग्रेज़-गोरे हमारा तिरस्कार करते है उनमे अस्वच्छता तथा छुआछूत प्रमुख है तब उन्होने डरबन के अपने घर मे पश्चिमी तर्ज़ का शौचालय बनवाया जिसमे चेंबर पॉट (Chamber Pot) तथा कमोड (Commode) का उपयोग किया जाता था
फिर गांधीजी ने इस कमोड को स्वयं साफ किया तथा अपने परिवार वालो से साफ करवाने का कार्य प्रारंभ किया लेकिन एक दिन अनुसूचित जाति के व्यक्ति द्वारा कमोड का उपयोग करने के बाद उनकी पत्नी ने जब कमोड साफ करने से इंकार कर दिया तब महात्मा गांधी अपनी पत्नी से नाराज़ हो गये,चूँकि महात्मा गांधी ने अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास (1893 से 1895) के दौरान स्वच्छता के बारे मे काफी अनुभव प्राप्त कर दिया था
इसलिये जब प्लेग ग्रस्त बॉम्बे प्रेसीडेनसी मे वह 9 जौलाई 1896 को राजकोट आये तो उन्होने घर-घर जाकर शौचालयो का निरिक्षण किया और सुझाव-प्रशिक्षण दिया,फिर 1901 मे कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन मे सम्मिलित होने के लिये पहुंचे तो वहां पर उन्होने बड़े पैमाने पर अस्वच्छता देखते हुये एक सफाई ब्रिगेड का गठन किया जिसमे सिर्फ ब्राह्मण स्वयंसेवको को नियुक्त किया लेकिन 1915 मे जब आप पूरी तरीके से भारत मे बसने के लिए आ गये तो अपने साथ साउथ अफ्रीका से फोनिक्स आश्रम के स्वयंसेवक भी लाये जिन्होने पुणे मे सर्वेंट ऑफ़ इंडियाज़ सोसाइटी के समस्त क्वार्टर मे जाकर सफाई का कार्य किया।
28 वर्ष की आयु मे अपने साउथ अफ्रीका प्रवास के दौरान महात्मा गांधी एक दिन जब अपने बाल कटवाने के लिए गोरे हज्जाम (Barber) की दुकान पर गये तो उसने उनके बाल काटने से इनकार करते हुये कहा कि आपके बाल काटने से मेरे गोरे ग्राहक नाराज़ हो जायेगे तब महात्मा गांधी ने यह निर्णय लिया कि आज के बाद वह स्वयं अपने बाल काटेगे फिर बाजार से बाल काटने का सामान लाकर तथा शीशे के सामने बैठकर उन्होने अपने बाल काट लिये चूँकि स्वयं बाल काटना एक आसान काम नही था इसलिये बाल सफाई से नही कटे और देखने मे अच्छे नही लग रहे थे
किंतु गांधी जी उसकी परवाह किये बग़ैर दूसरे दिन कोर्ट चले गये परंतु कोर्ट के कर्मचारियो ने उनका बहुत मज़ाक बनाया लेकिन गांधीजी ने हिम्मत नही हारी फिर जीवन-भर खुद अपने बाल काटते रह,जब उन्हे बाल काटने का अनुभव हो गया तब उन्होने आश्रम मे यह नियम बनाया कि बाहर से कोई हज्जाम नही आयेगा और आश्रम के निवासी स्वयं तथा दूसरे निवासियो (सदस्यो) के बाल काटेगे फिर जब वह साउथ अफ्रीका की जेल मे गये तो उन्होने जेल अधिकारियो से बाल काटने का सामान मंगवाकर अपने बाल स्वयं काटे क्योकि साउथ अफ्रीका की जेलो मे कैदियो के सलीके से बाल काटने के बजाय सीधा गंजा जाकर देने की परंपरा थी,
भारत आकर गांधीजी ने स्वदेशी उस्तरे का इस्तेमाल करने मे महारत हासिल कर ली था फिर 75 वर्ष की आयु मे गांधी जी जब आगा खान पैलेस मे नज़रबंद थे तब एक साथी महिला ने महात्मा गांधी को अपनी समस्या बताते हुये कहा कि बापू मेरे बालो की रुसी मुझे बहुत परेशान कर रही है और मै अपने बालो को काटकर सिर पर कोई दवा लगाना चाहती हूं लेकिन यहां बाल काटने की कोई व्यवस्था नही है तब गांधी जी ने कहा कि तुम इस काम मे देर मत करो और उस महिला से कैची मंगवाकर स्वयं उस महिला के बाल बहुत सुंदरता से काट दिये।
गांधीजी साउथ अफ्रीका मे वकालत कर रहे थे तो उन्हे बैरिस्टर वाली पोशाक पहनना पढ़ती थी जिसमे पहने जाने वाली कमीज़ वह एक दिन बीच बदलते थे जबकि कॉलर के गंदा हो जाने की वजह से वह रोज़ाना कॉलर बदलते थे लेकिन वहां धोबी सप्ताह मे एक बार आया करता था तथा कभी-कभी तो वह आता भी नही था जिसके कारण गांधी जी को तीन दर्जन कॉलर खरीदना पड़े थे जिससे उनका खर्चा काफी बड़ जाता था
इसलिये उन्होने एक दिन निश्चय किया कि अब वह अपने कपड़े स्वयं धोयेगे और पेशेवर तरीके से कपड़े धोने की एक किताब घर लाकर कपड़े धोने का कार्य प्रारंभ किया तो उनकी पत्नी कस्तूरबा ने पहले उनको समझाने का प्रयास किया किंतु फिर वह भी पेशेवराना तरीके से कपड़े धोने की प्रक्रिया मे उनके साथ शरीक हो गई परन्तु कलफ (Starch) अधिक होने तथा इस्तरी (Iron Press) करने का अनुभव ना होने की वजह से कॉलर अकड़ कर खड़ा हो गया हालांकि कोर्ट मे साथियो द्वारा जमकर मज़ाक बनाने के बावजूद भी महात्मा गांधी ने कहा कि मुझे इस पर कोई शर्म नही आती है बल्कि खुशी हेै क्योकि मैने पहली बार कपड़े धोने का प्रयास किया था
और अनुभव के साथ साथ मेरी कार्य क्षमता बढ़ जायेगी लेकिन मेरे कपड़े धोने का खर्च ज़रूर बच गया जिस धन को मै दूसरे कार्यो मे उपयोग करूंगा फिर वह आश्रम की महिलाओ की भी कपड़े धोने मे मदद करने लगे क्योकि दक्षिण अफ्रीका मे पानी की समस्या के कारण महिलाओ को कपड़े धोने तथा पानी लाने के लिये बहुत दूर जाना पड़ता था,
क्योकि गोपाल कृष्ण गोखले को गांधीजी अपना गुरु मानते थे और 1912 मे जब गोखले जी दक्षिण अफ्रीका मे महात्मा गांधी के फार्म हाउस मे ठहरे हुये थे तो एक कार्यक्रम मे जाने से पहले उनकी नज़र अपने गुलबंद (Scarf) की सिलवटो पर पड़ी तब निराशा के कारण उनके चेहरे का रंग बदल गया इसलिये परिस्थितियो को भांपते हुये महात्मा गांधी ने उनसे उनके गुलबंद पर इस्तरी करने की आज्ञा मांगी तो गोखले जी ने कहा कि मुझे तुम्हारी राजनीतिक क्षमता पर पूरा भरोसा है लेकिन इस्तरी करने की क्षमता पर भरोसा नही है किंतु महात्मा गांधी ज़िद पर अड़ गये और स्कार्फ (Scarf) पर इस्तरी शुरू कर दी परन्तु गोखले जी बहुत चिंतित हो रहे थे
फिर थोड़ी देर के बाद उनकी खुशी का ठिकाना नही रहा जब महात्मा गांधी ने बहुत सुंदरता तथा पेशेवराना तरीके से उनके गुलबंद पर इस्तरी कर दी,गांधीजी खादी उत्पादन के प्रारंभिक दिनो मे हथकरघा पर जो साड़िया बुनते थे वह काफी भारी होती थी जिन्हे धोने मे महिलाओ को बहुत कष्ट उठाना पड़ता था इसलिये महात्मा गांधी ने कहा कि यह साड़ियां धोने मे मै तुम्हारी सहायता करूंगा
और जीवन भर दूसरो के कपड़े धोने मे उन्होने कभी शर्म महसूस नही करी लेकिन एक घटना तो उनकी महानता का बेमिसाल नमूना है जब वह किसी धनवान व्यापारी के घर मे मेहमान गये थे तो उन्होने गुसलखाने मे जमीन पर गिरी हुई साड़ी को धोकर सुखाने के लिए टांग दिया फिर जब यह दृश्य मेज़बान ने देखा तो शर्म से पानी-पानी होकर उसने महात्मा गांधी से वादा किया कि वह आज के बाद अपने कपड़े स्वयं धोकर साफ करेगा।
महात्मा गांधी ने अपने जर्मन मित्र हरमन कैलेंबच से प्रेरित होकर एक चीनी मोची से साउथ अफ्रीका मे जूते (चप्पले) बनाना सीखा था फिर धीरे-धीरे गांधी जी की बनाई चपले इतनी प्रसिद्ध हो गई कि साउथ अफ्रीका मे चप्पले पहनना एक फैशन बन गया और 1911 मे टॉलस्टॉय फार्म हाउस के बाहर प्रदर्शनी लगाकर उनकी चप्पले बेची गई लेकिन गांधी जी की 70 वीं वर्षगांठ के अवसर पर जनरल स्मुतस (SMUTS) ने लिखा था कि जब गांधी जी ने साउथ अफ्रीका की जेल मे मेरे लिये चप्पल बनाकर मुझे भेंट किये थे और मैने उनको कई बार गर्मियो मे उपयोग भी किया था
लेकिन आज मेरे अंदर इतनी क्षमता नही है कि मै उनको पहनकर महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्ति के सामने खड़ा हो सकू,1915 मे भारत वापस आकर गांधी जी ने अपने साथी चर्मकारो-मोचियो को संगठित करके उन्हे विकसित विधि से कार्य करने का प्रशिक्षण दिलवाया ताकि वे अपना काम सफाई से कर सके फिर उनके साथ कोलकाता के नेशनल टेनरी मे जाकर कच्ची खाल से चमड़ा बनाने वाली प्रक्रिया का अध्ययन करते हुये देखा कि किस तरह कच्ची खाल को नमक के पानी मे भिगोकर एक-एक करके बाल हटाते हुये खाल को साफ करके रंगा जाता है
और उन्होने टैगोर शांति निकेतन से भी संपर्क बनाये रखा क्योकि वह लोग परंपरागत चर्म-कार्य प्रक्रिया को उन्नत रूप से विकसित करने के लिये लगातार अनुसंधान करते रहते थे क्योकि गांधी जी का मत था कि हमे चर्म-कार्य की परंपरागत विधि को त्यागने के बजाय उसे विकसित करना चाहिये ताकि इस काम को सफाई से अंजाम दिया जा सके,
एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू गांधी जी से मिलने सेवाग्राम गये तो उन्होने देखा कि गांधीजी बच्चो को जूता बनाने का प्रशिक्षण देने मे इतने व्यस्त है कि उन्हे उनकी (नेहरू) उपस्थिति का एहसास भी नही हो रहा है लेकिन 1932 मे सरदार पटेल गांधी जी के साथ यरवदा जेल मे थे जब उनके चप्पल टूट गये तो उन्होने दुखी होते हुये अपनी समस्या महात्मा गांधी को बताई तब उन्होने चमड़ा मंगवाकर उच्च-कोटि के चप्पल बनाकर सरदार पटेल को देते हुये कहा कि तुमने मेरे ऊपर उपकार किया क्योकि मै चप्पल बनाने की कला लगभग भूल ही गया था लेकिन तुम्हारे कारण पुनः अभ्यास करने का अवसर मिल गया।
गांधीजी ने साबरमती आश्रम मे एक हथकरघे की स्थापना करी जिसमे अधिकतर सदस्य आठ (8) घंटे बुनाई करते थे जबकि 45 वर्ष की आयु मे गांधीजी प्रतिदिन पाँच (5) घंटे हथकरघे पर बुनाई करते थे फिर 1 जुलाई 1922 को आश्रम मे अखिल खादी विद्यालय की स्थापना की गई जिसमे विद्यार्थियो को चरखा चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता था
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लेकिन 1925 मे गांधी जी ने पंद्रह सौ गांवो के 50,000 धुनकरो-बुनकरो को मिलाकर चरखा संघ की स्थापना करते हुये चरखे को एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दे दिया इसलिये गांधीजी अपनी वर्षगांठ को चरखा जयंती के रूप मे मनाते थे,शिक्षक, नर्स आदि शायद ही कोई ऐसा काम हो जो गांधीजी के लिये संभव हो और उन्होने उस कार्य को नही किया हो अर्थात गांधीजी एक व्यवहारिक दार्शनिक थे।
गांधीजी परिश्रम करने के साथ-साथ सच बोलने से कभी नही घबराते थे और उनकी सच बोलने की विलक्षण क्षमता ने उनको एक महान नेता बना दिया था जबकि आज के राजनीतिज्ञ झूठ बोलने को योग्यता अर्थात कूटनीतिक कुशलता समझते है,चूँकि गांधीजी सच का उपयोग करके यह अनुभव करना चाहते थे कि झूठ बोले बिना सरलता से मानव जीवन कैसे जिया जाये इसलिये उन्होने उन परिस्थितियो की भी चर्चा करने मे हिचकिचाहट नही करी जिस समय उनके पिताजी का देहांत हुआ था
और यह इमानदारी उनके महात्मा होने का प्रमाण है क्योकि वरना करोड़ो मे से शायद कोई एक व्यक्ति सच्चाई के साथ उन परिस्थितियो की चर्चा कर सकता है,अतः यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी कि सच बोलने का दूसरा नाम है मोहनदास करमचंद गांधी है!
एज़ाज़ क़मर (रक्षा, विदेश और राजनीतिक विश्लेषक)