राजनीति में कभी कोई स्थायी स्टेंड़ नही होता है। राजनेता हमेशा अपनी सुविधा के अनुसार खुद को फीट करते रहते है और रहेगें। खासकर चुनावी हार-जीत में। हार और जीत का कब, किसको और क्यों श्रेय दिया जाना चाहिए यह बेहद अबुझ पहेली रही है। जैसा कि शंका थी कि कैराना की हार का ठीकरा हिंदू- मुस्लिम जैसे विवादस्पद मुद्दें पर आकर फुटेगा और हुआ भी वही। भाजपा के प्रवक्ता जनाब संबित पात्रा ने बड़ी आसानी से इस हार को इस्लाम की जीत और हिंदू की हार करार देते हुए कह दिया कि- मुझे इसमें खेद है। ऐसे नही होना चाहिए था। अगर कैराना में एक गुट (मुसलमान) का एकजुट होना हुआ है और उन्होंने एकमुश्त होकर वोट किया है तो याद रखिए पूरे हिंदुस्तान में इसका असर होगा। इसके साथ ही लगे हाथों सवाल भी खड़ा कर दिया कि- कैराना में इस्लाम तो जीत गया, हिंदू क्यों हार गया? दरअसल यह न तो हिंदू की हार थी और न ही मुस्लिम की जीत बल्कि यह संगठित विपक्ष की मेहनत का तोहफा था। हालाकि संबित ने कैराना के उपचुनाव में पार्टी के उम्मीदवार की हार को हिंदुओं की हार और मुस्लिमों की जीत बता कर फिर से एक बार सांप्रदायिक सौहार्द को चेलैंज कर दिया है। इसके साथ ही वे बड़े ही आसानी और सफाई से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और यूपी के सीएम आदित्यनाथ को बेदाग करार साबित कर गए। इन सबके माथे पर हार का ठीकरा न फुटे इसके लिए पात्रा ने कहा कि उपचुनाव में प्रधानमंत्री का कोई खास रोल नहीं होता है। यह स्थानीय मुद्दों को लेकर होते है। ये मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के नाम पर नहीं होते है। खैर, उनकी इस बात में कितनी सच्चाई है यह तो एक बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन फिर भी मान लेते है कि यह कुछ हद तक सच है। गर जीत जाते तो फिर भी क्या यही दलील दी जाती। तब यह तो नही कहा जाता कि मोदी लहर का असर बरकरार है। अमित शाह की चाणक्य नीति काम कर गई। सीएम आदित्यनाथ का यूपी में काम बोल गया। फिर कहीं ऐसे जुमलों की झड़ी तो नही लग जाती। हार में सब के सब बचा लिए गए। ठीकरा जिस पर नही फुटना था उस पर फोड़ दिया। इतने से भी काम नही चला तो तबस्सुम को लेकर एक फर्जी संदेश भी सोशल मीडिय़ा पर यह कहते हुए वायरल करवा दिया कि यह हिंदू की हार है और इस्लाम की जीत। इस झुट को खुब प्रचारित किया गया। हालाकि यह दावा पुख्ता तो नही है कि यह फर्जी खबर भाजपा ने ही वायरल की है लेकिन चर्चाएं सरे बाजार जोरों पर है कि यह काम उसी का है। बहरहाल, सच की तहकीकात बाकी है। दरअसल तबस्सुम हसन ने ऐसा कभी नही कहा, बल्कि ये कहा कि हम ‘जियो और जीने दोÓ के सिद्धांत में यकीन करते है। हम हर किसी से मिलते है। सबको साथ लेकर चलते हैं। हम शांति और सदभाव से रहते हैं। क्या यह इस्लाम और राम की कोई लड़ाई चल रही है जो जीत और हार होगी? ये तो उन (बीजेपी और उनके समर्थक) लोगों का प्रोपेगेंडा है जो ऐसी मानसिकता रखते हैं। हम कभी भी ऐसा नहीं कर सकते कि किसी भी धर्म को बुरी बात कहें। कोई नहीं कह सकता कि मेरे परिवार का कोई आदमी ऐसी हरकत कर सकता है। इसके साथ ही वे बोल गई कि भाजपा ने असल मुद्दे कभी उठाए ही नही। वे जिन्ना के फोटो का मुद्दा सामने लाकर लोगों को बरगालाने में जुटी रही। आखिर जिन्ना एक समय में यहां थे, लेकिन बंटवारे के बाद स्थिति बदल गई है। पर मुद्दा ये नहीं है बल्कि असल मुद्दा किसानों और गरीबों का है। इस पर भाजपा के पास कहने के लिए कुछ नहीं था। हालाकि जिस तरह से कैराना के उप चुनाव में भाजपा ने ध्रुवीकरण किया था उसे देखते हुए तो तबस्सुम की बातें कुछ हद तक सही भी लगती है। बता दे कि भाजपा ने कैराना लोक सभा चुनाव में अपनी लाईन हिंदू-मुस्लिम ही तय कर रखी थी। करीब दो साल पहले कैराना से बहुसंख्यक वर्ग के परिवारों के ‘पलायनÓ का मुद्दा उठाकर जता दिया था कि उसके चुनाव का मुद्दा भी यही होगा। भाजपा ने पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में भी इसे एक अहम मुद्दे के तौर पर शामिल किया था, लेकिन वह फलीभूत नहीं हुआ और कैराना विधानसभा सीट से हुकुम सिंह की बेटी भाजपा प्रत्याशी मृगांका सिंह को पराजय का सामना करना पड़ा था।
इस बार भी हार का ही सामना करना पड़ा। अब यह हार पच नही पा रही है। इसी कारण तबस्सुम के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थकों द्वारा दो समुदाय के बीच नफरत फैलाने का काम किया गया। यह काम सोशल मीडिय़ा पर एक फर्जी संदेश के माध्यम से किया गया। इस फर्जी मैसेज ने भी अपना काम कर दिया। हालाकि इस मैसेज को लेकर शनिवार 2 जून को तबस्सुम ने पुलिस के सामने अपना पक्ष रख कर शिकायत दर्ज कर दी है। उनने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के संगठन हिन्दू युवा वाहिनी के नेताओं पर यह झूठी खबर फैलाने का आरोप लगाकर दावा किया कि उनके खिलाफ प्रोपेगेंडा हिन्दू युवा वाहिनी के सदस्यों द्वारा ही शेयर किया जा रहा है। हिंदू युवा वाहिनी संगठन के संस्थापक यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। गोरखपुर से सटे हुए कई जिलों में हिंदू युवा वाहिनी काफी सक्रिय है। लेकिन योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह संगठन पूरे राज्य में अपनी सक्रियता बढ़ाने पर जोर दे रहा है।
दरअसल, यह हार भाजपा को पच नही रही है, क्योंकि यह सीट राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। यही वजह है कि यहां हार से निराश बीजेपी नेता और उनके समर्थकों का एक समूह अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर लोगों का ध्यान भटकाने के लिए सांप्रदायिक माहौल बनाने की कोशिश में जुट गया। इसमें कोई दो राय नही है कि यूपी और देश के दूसरे राज्यों के उप चुनावों में लगातर मिली हार ने पीएम मोदी व भाजपा की साख में गिरावट दर्ज की है। फिलहाल इस समय उपचुनावों के जो नतीजे आए है उनने कम से कम इस मौजूदा समय में देश के राजनीति समीकरण तो बदल ही दिए हैं। बताते चले कि तबस्सुम हसन 16 वीं लोकसभा में इस राज्य से पहली मुस्लिम सांसद बन गई है। वे राष्ट्रीय लोकदल-समाजवादी पार्टी गठबंधन की संयुक्त प्रत्याशी थी। इस जीत में सबने अपने-अपने स्तर पर ताकत लगाई और दिखाई। विशेष रूप से कैराना में, जहां अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। यह महज एक गठबंधन नहीं था, बल्कि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के गठजोड़ के अस्तित्व की परीक्षा भी थी। इसमें बहुजन समाज पार्टी के साथ ही कांग्रेस का साथ भी काबिले तारिफ रहा। बता दे कि तबस्सुम को प्रत्याशी बनाने का जोर-दबाव समाजवादियों का ही रहा था। इनके कारण ही एक मुस्लिम महिला को टिकट दिया गया। हालाकि इस फैसले के सामने चुनौतियां बहुत थी, सबसे बड़ी चुनौती तो यह कि- क्या राष्ट्रीय लोकदल अपने जाट सामाजिक आधार के मतों को एक मुसलमान के पक्ष में गिरवा पाएगा? सवाल यह भी था कि क्या स्थानीय रूप में मजहब महत्वपूर्ण है या धर्म-विरोध की राजनीति? क्षेत्रीय पार्टियां मुद्दों की राजनीति कर सकती हैं अथवा नहीं, इस पर भी नजर बनी हुई थी। इस राणनीति ने अपना दम दिखा दिया। यहां बात सिर्फ कैराना की ही नहीं है, अन्य जगहों पर भी प्रतिपक्ष ने अपना दम दिखाया। हालाकि, महाराष्ट्र की पालघर सीट पर जरूर भाजपा को जीत मिली, मगर मोटे तौर पर उप-चुनावों की राजनीति में विपक्षी एकता उस पर भारी पड़ी है। विपक्षियों की यह जीत भाजपा को कतई हजम नही हो रही है। शायद इसीलिए तो संबित ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा कि – कांग्रेस आत्मनिरीक्षण करे, वह आज दूसरी पार्टियों के लिए चीयर लीडिंग बन कर रह गई है और तालियां बजाने भर का काम कर रही है। कांग्रेस खुद राजनीति के मध्य में और धुरी में नजर आ रही है। ऐसे में कांग्रेस को आत्म निरीक्षण करने की ज्यादा जरूरत है। असल में हार के बाद किसे ज्यादा आत्म निरीक्षण और परीक्षण की जरूरत होती है ये सब अच्छे से जानते है, लेकिन यहां तो उल्टा चोर कोतवाल को डांट रहा है। हारने वाले- कारणों पर विमर्श और आत्म परीक्षण करने की बजाय दलीलें दे रहे है। दरअसल, यह भी उनकी रणनीति का ही एक हिस्सा है। गर वह कांग्रेस पर हमला नही बोलते तो जनता का ध्यान नही भटकता और जनता इस बात पर विचार करने में जुट जाती कि कहीं भाजपा के उल्टे दिनों की गिनती तो शुरू नही हो गई। वे यही तो नही चाहते थे। बहरहाल इन उपचुनाव में विपक्षी दलों की जीत के बाद भी लोकसभा के मौजूदा अंकगणित में भाजपा के लिए कोई परेशानी सामने नहीं होगी। अभी भी संगठित एनडीए के पास 315 सीटें हैं, जिसमें से भाजपा की खुद 273 सीटें हैं, इस वजह से बहुमत पर कोई आंच नहीं आएगा। इस मौके पर ये भी स्मरण हो कि वर्ष 2014 के लोकसभ चुनाव में ‘मोदी की आंधीÓ के चलते भाजपा ने उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटें जीती थीं, जबकि उसके सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिली थीं। यूपी में मुस्लिमों की तकरीबन 20 फीसदी आबादी के बावजूद उस चुनाव में इस सूबे से एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं जीत सका था। कैराना लोकसभा क्षेत्र में लगभग 17 लाख मतदाता है। इनमें तीन लाख मुसलमान, करीब चार लाख पिछड़े और डेढ लाख वोट जाटव दलितों के हैं। यह बसपा का परंपरागत वोट बैंक माना जाता है। यहां यादव मतदाताओं की संख्या कम है ऐसे में यहां दलित और मुस्लिम मतदाता खासे महत्वपूर्ण हो जाते है। इस क्षेत्र में हसन परिवार का खासा राजनीतिक दबदबा माना जाता है। कैराना संसदीय सीट के लोगों का स्वभाव कुछ अजीबों-गरीब ही है। यह सीट पिछले करीब दो दशकों से अलग-अलग राजनीतिक दलों के खाते में जाती रही है। वर्ष 1996 में इस सीट से सपा के टिकट पर सांसद चुने गये मुनव्वर हसन की पत्नी तबस्सुम बेगम वर्ष 2009 में इसी सीट से बसपा की तरफ से सांसद रह चुकी है। इस सीट पर रालोद का भी दबदबा रहा है। सन 1999 व 2004 के लोकसभा चुनाव में उसके प्रत्याशी यहां से सांसद रह चुके है। 2014 में इस पर भाजपा का कब्जा रहा। अब फिर यह सीट रालोद की झोली में आ चुकी है। बेशक इस सीट का स्वभाव चंचल रहा है मगर ये नतीजे कुछ और ही सवाल खड़े कर रहे है। साफ है, आने वाले दिनों में भाजपा को स्थानीय चुनौतियों का सामना लोकसभा में भी करना पडेगा। हालांकि ये चुनौतियां 2014 में भी थीं, पर तब विपक्षी दलों में इस कदर गठजोड नहीं था। बता दे कि ये नतीजे आगामी विधानसभा चुनावों और उसके बाद 2019 के चुनावी महासंग्राम से भी जुडते दिखाई दे रहे हैं। ये नतीजे बताते हैं कि भाजपा को अब किसी एक राष्ट्रीय चुनौती से नहीं बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों में उसकी चुनौतियां अलग-अलग होंगी। पिछले कुछ समय से जो राजनीतिक कहानी चल रही है, कम से कम वह तो यही बयां करती है। विपक्षी गठजोड़ हर जगह भाजपा के लिए नई-नई परेशानियां खड़ी कर रहा है। सनद रहे कि आम चुनाव के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद जिस राज्य का सबसे अधिक महत्व है, वह बिहार है। यहां 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनावों के बाद सियासी तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। जिस नीतीश कुमार ने लोकसभा और विधानसभा, दोनों ही चुनाव नरेंद्र मोदी के विरोध पर लड़े थे, वह अब राजद के साथ अपना गठबंधन तोड़कर भाजपा के साथ ही सरकार बना चुके हैं। अब माहौल बदल चुका है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद गठबंधन ने जोकीहाट विधानसभा सीट अपने पाले में कर लिया है। भाजपा के विरोध का मुद्दा जिस तरह से इन दिनों विपक्ष की राजनीति का केंद्रीय तत्व बन गया है, उससे आगामी समय का आंकलन सहज ही किया जा सकता है। मौजूदा स्थिति को देखते हुए यही उम्मीद बन रही है कि आगे भी विपक्ष में तालमेल बढ़ेगा और 2018 के विधानसभा व 2019 के आम चुनावों को ये सारे दल गठबंधन करके ही चुनावी मैंदान में उतरेगें। अतीत बताता है कि जहां भी विपक्षी एका बना है, भाजपा के लिए मुश्किलें पेश खड़ी हुई हैं। कर्नाटक के विधानसभा चुनाव से पहले भी एचडी देवगौड़ा और मायावती एक हो गए थे, जिसका अर्थ है कि मंडल और दलित बहुजन समाज की राजनीति गठजोड करने को फिर से तैयार है। कर्नाटक की सफल प्रयोगशाला इसे ऊर्जा भी दे रही है। अब तमाम दल नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और उनकी सरकार को चुनौती देने के इर्द-गिर्द ही सामंजस्य बनाने में जुटे है। ऐसे में अब भाजपा के सामने यक्ष प्रश्न यह है कि क्या वह नए समीकरण अपने साथ जोड़ पाएगी, विशेष रूप से अति पिछड़ों और दलितों को? या वह नए मुद्दों की राजनीति खेलेगी? सवाल यह भी है कि क्या फिर से वह मंदिर के पुराने मुद्दे को नया चोला पहनाएगी? भाजपा अगर यह बात सार्वजनिक चर्चा में ले आती है कि स्थानीय चुनाव व लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होते हैं और मतदाता भी इसी आधार पर वोट डालते हैं, तो संभवत: एनडीए का पलडा फिर से भारी रहेगा। मगर यदि वह स्थानीय झंझावात में उलझ जाती है, तो पुराने गठजोड़ भारी पड़ सकते हैं। नजर इसी पर रहेगी कि किस तरह की सोच के जरिए भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और अपनी संगठनात्मक शक्ति को जोड़कर 2019 के लोकसभा चुनाव को लड़ेगी।
संजय रोकड़े
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नोट- लेखक मीडिय़ा रिलेशन पत्रिका का संपादन करने के साथ ही सम-सामयिक विषयों पर कलम चलाते है।