नागरिकता संशोधन कानून का हिं!सक विरोध मुसलमानो को सिर्फ नुकसान ही पहुंचाने वाला है, क्योकि मोदी सरकार चाहेगी कि मुसलमान हिं!सा पर उतारू हो और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिये उनके मन मे नाराजगी पैदा हो, फिर दक्षिणपंथी हिंदू भारत मे नागरिकता संशोधन कानून को लेकर वैसा ही मुस्लिम विरोधी माहौल बनायेगे, जिस तरह राम मंदिर के मुद्दे पर मुस्लिम विरोधी माहौल बनाया गया था, उसके बाद मुसलमानो को 1947 से भी ज़्यादा घातक परिणाम झेलने होगे।
किन्तु अब लगता है, कि मुसलमान 1946 जैसी गलती दोबारा दोहराने जा रहे है,
क्योकि 1946 मे मुसलमानो ने विवेक से निर्णय नही लिया था और गांधी-नेहरू की चिकनी-चुपड़ी बातो पर भरोसा किया था, फिर से वह इन दोगले स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष हिंदू नेताओ के जाल मे फंस कर सरकार विरोधी प्रदर्शन कर रहे है।
फासीवाद के विरुद्ध यह लड़ाई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओ और दूसरे समुदाय विशेषकर ईसाइयो और सिक्खो के साथ मिलकर लड़नी चाहिये, क्योकि जब सरकार सख्त होकर देश मे आपातकाल (Emergency) लागू कर देगी,
तब सड़को पर मुसलमानो की ला!शो के ढेर लग जायेगे, फिर यह धर्मनिरपेक्ष हिंदू मुसलमानो को अकेले मरता छोड़कर खुद दुम दबाकर भाग जायेगे।
धर्मनिरपेक्ष हिंदुओ का असली चेहरा हमने धारा 370 के खात्मे के बाद संसद के अंदर और बाहर देखा था, कश्मीरी मुसलमानो को अपने पूर्वजो द्वारा किया गया शेख अब्दुल्ला और कांग्रेस का समर्थन आज सबसे बड़ी भूल महसूस होता है, जिसका पश्चाताप लाखो कश्मीरी मुसलमानो के ख़ून से होगा।
मेरा विचार किसी मानसिक ग्रंथि से पीड़ित नही, बल्कि यूरोप मे नाज़ीवाद के अध्ययन से जुड़ा हुआ विश्लेषण है। जर्मनी मे नूरेमबर्ग क़ानून (Nuremberg Laws) के बाद धनाढय यहूदियो को लगा था, कि धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी जर्मनो की मदद से कोई रास्ता निकाल लेगे, लेकिन जर्मनो पर रीच नागरिकता कानून (Reich Citizenship Law) का ऐसा नशा चढ़ा कि वह सारी मानवता भूल गये।
5000 वर्ष तक थूक की हांडी गले मे लटका कर चलने वाले और महिला वक्ष कर (Breast Tax) जैसी अमानवीय परंपराओ को निभाने वाले दलित और आदिवासी राम मंदिर के मुद्दे पर मुसलमानो के खून के प्यासे हो गये थे,
तो दंगो मे मुसलमानो का घर-सामान लूटने मे सबसे आगे रहने वाले दलित और आदीवासी कल सवर्णो के खिलाफ क्या मुसलमानो की मदद करेगे? ऐसे सोचना सिर्फ मूर्खता ही होगी।
यही लोग बौद्व है, इसलिये अपने हमदर्दो की सूची मे से मुसलमानो को इनका नाम काट देना चाहिये, अमित शाह खुद एक जैन है और जैन हमेशा से मुस्लिम विरोधी रहे है।
भारत मे दक्षिणपंथियो के उदय के पीछे पश्चिमी देशो अर्थात कट्टरपंथी ईसाइयो का हाथ किसी से छुपा नही है, इज़राइलियो (Zionist) को आगे करके अपना खेल खिलवा रहे है, वे चाहते है कि पहले भारत मे गृह!युद्ध हो, फिर भारत-पाकिस्तान के बीच मे परमाणु युद्ध हो, ताकि इन लोगो को हथि!यार बेचने और इसाई मशीनरी को समाजसेवा की आड़ मे धर्मातरण करने का अवसर मिले।
मानवता मे सबसे आगे रहने वाला सिक्ख समुदाय मुसलमानो की हर संभव सहायता करेगा, अकाली दल जैसी धार्मिक पार्टी के नेता होने के बावजूद बादल साहब ने मुसलमानो को नागरिकता संशोधन अधिनियम मे शामिल करने की अपील करके अपना मानवतावादी पक्ष रख दिया है।
क्या मुसलमान हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे और अपनी नागरिकता रद्द होने का इंतजार करे? नही, मुसलमानो को बिल्कुल इंतजार नही करना चाहिये, बल्कि घर पर चुपचाप बैठे रहने की आदत ही आज मुसलमानो की बर्बादी और तबाही के लिये जिम्मेदार है, लेकिन मुसलमानो को यह भी सीखना चाहिये, कि कमजोर हिस्से पर चोट करने से बड़ी-बड़ी चट्टाने टूट जाती है, वरना सारी मेहनत बर्बाद होती है।
सबसे पहले मुसलमानो को न्यायालय की शरण मे जाकर सरकार से 1950 से लेकर 1971 तक के दस्तावेज विशेषकर “वोटर लिस्ट” सार्वजनिक करवाने की मांग करनी चाहिये थी, क्योकि जिस देश मे रफेल जैसे महत्वपूर्ण सुरक्षा सौदे की फाइले और बाबरी मस्जिद (निर्मोही अखाड़ा) जैसे विवादास्पद और ऐतिहासिक मुद्दे की फाइले गायब हो जाती है, जिस देश मे प्रधानमंत्री अपनी डिग्री सार्वजनिक करने से घबराते हो, वहां पर वोटर लिस्ट का सलामत (सकुशल) होना संभव ही नही है।
अगर जैसे-तैसे सरकार वोटर लिस्ट सार्वजनिक करने मे सफल भी हो जाती, तो “त्रुटि” उससे भी बड़ा मुद्दा कानूनी मुद्दा बनता, क्योकि सरकारी अधिकारी आज तक मुसलमानो के नामो को सही ढंग से लिखने मे सक्षम नही हुये है।
पूर्व राष्ट्रपति के भाई के परिवार का नाम इसी अशुद्धि की वजह से नागरिकता सूची से बाहर हुआ है, त्रुटि के इस मुद्दे पर किया गया प्रदर्शन सरकार की साख़ को मिट्टी मे मिला देता और उसे बैकफुट पर जाना पड़ता।
भ्रष्टाचार भारत सरकार के लिये गले की हड्डी साबित होता है और हम सब जानते है, कि सरकारी दस्तावेजो को प्राप्त करने के लिये रिश्वत देनी पड़ती है, ऐसे मे रिश्वत के 2-3 स्टिंग ऑपरेशन सरकार की नींद हराम कर देते।
यह मुद्दा सरकार के लिये आत्मघाती हो जाता, अगर सतर्कता और व्यवस्थित तरीके से इस आंदोलन को आगे बढ़ाया गया होता। लेकिन मुसलमानो मे सूझबूझ का आज भी उतना आभाव है, जितना हो 1946 मे था, इसलिये जामिया मे प्रदर्शन से पहले दीवारो पर “कलमा” लिखा गया और “खिलाफत-2” जैसे शब्द लिखे गये,
जिन्हे दाइश (इस्लामिक स्टेट ऑफ लेवान्ते एंड सीरिया) जैसे आतं!कवादी संगठनो का प्रतीक माना जाता है।
अब मुसलमान यह नही कह सकते है, कि दीवारो पर लिखे गये नारे बजरंग दल और हिंदुत्ववादियो का कारनामा हो सकता है, उल्टे इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय मे यह संदेश जाता है, कि हिं!सा पहले से प्रायोजित थी।
इसराइलीयो के शह पर मोदी सरकार हमेशा यह चाहती है, कि भारतीय मुसलमानो को आतं!कवाद से जोड़ा जा सके, ताकि पश्चिमी देशो मे भारत के मुसलमानो के लिये कोई सहानुभूति पैदा ना हो सके, इसी योजना के तहत मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मौजूदगी मे इस्लामिक आतं!कवाद (Radical Islam) का मुद्दा उठाकर मुस्लिम विरोधी गठजोड़ बनाने की असफल कोशिश की थी।
मुख्य मुद्दा धर्मनिरपेक्षता और समग्र संस्कृति (गंगा-जमुना तहज़ीब) का है, जो हकीकत (व्यवहार) मे कही नही दिखाई देती है, उस गंगा-जमुना तहज़ीब का वहाबीयो (देवबंदी) की दीनी दावत (तबलीग़) ने पिछले 100 सालो मे जनाज़ा (अर्थी) निकाल दिया है।
एक समय था, कि मुसलमान मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर मे मन्नत माँगने जाते, मंदिरो के श्रृंगार और छप्पन भोग मे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते, रामलला की बारात और रामलीला के पात्रो का मंचन करते, होली मे रंग खेलने और दिवाली मे पटाखे छोड़ने मे हिंदुओ से दो कदम आगे रहते थे.
किंतु आज मस्जिदो मे होली, दिवाली, क्रिसमस और नये वर्ष के अवसर पर हदीसे लगी होती है, कि “अगर गैर-मुसलमानो के त्यौहार मनाओगे तो मरने के बाद अल्लाह तुम्हे गैर-मुस्लिमो मे ही शुमार करेगा”।
“पूरी तरीके से दीन मे शामिल हो जाओ” का इस्लामिक (वहाबी) सिद्धांत मुसलमान को धर्मनिरपेक्ष नही होने देता है, वह बाग़ी होकर मुलहिद (नास्तिक) तो सकता है, लेकिन एक मुसलमान कभी धर्मनिरपेक्ष नही हो सकता है।
किंतु अगर आज हजरत निजामुद्दीन औलिया और बुल्ले शाह जैसे सूफी संत मौजूद होते, तो ज़ेहादी उन्हे काफिर कहकर शहीद कर देते।
आज मुस्लिम विद्वान धर्म प्रचार के जितना धार्मिक साहित्य पढ़ते है, उससे कही गुना ज्यादा हिंदुत्ववादी इस्लाम मे कमियां ढूंढने के लिए इस्लामिक साहित्य का अध्ययन करते है, इसलिए यह सोचना भी बेवकूफी है, उन्हे यह अहम बाते समझ मे नही आती है।
हिंदुत्ववादी उदारवादी हिंदुओ को ताना देते है, कि जो तुम झाड़-फूंक कराने मस्जिदो मे और मन्नत मांगने मजारो पर जाते हो, मोहर्रम के जुलूस मे आगे से आगे रहते हो और ईद-बकराईद पर फ्री का खाना खाने के चक्कर मे मुसलमानो को बधाई देने सबसे पहले पहुंचते हो, क्या वह भी तुम्हारे मंदिर और मठो मे मन्नत माँगने या कोई त्योहार मनाने और प्रसाद खाने के लिये आते है.
देवबंदियो की तबलीग के प्रभाव से आज मुसलमान फातेहा का खाना खाने से भी बचते है, तो वह हिंदुओ का प्रसाद कैसे खा सकते है? नतीजा यह हुआ कि गंगा-जमुना तहजीब सिर्फ किताबो मे रह गई।
अब देखना यह है, कि बनावटी धर्मनिरपेक्षता और किताबी गंगा-जमुना तहज़ीब कब तक इस समाज को एक सूत्र मे बांधे रखेगी? बांग्लादेश निर्माण के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था, कि हमने “द्विराष्ट्र-सिद्धांत” (दो कौमी नज़रिया) का सफाया कर दिया है.
किंतु आज भारत मे हिंदूओ की हीन भावना और नफरत की वजह से दोबारा दो कौमी नजरिया अपना सर उठाता जा रहा है, उल्टे गांधी-नेहरू परिवार और उनकी पार्टी कांग्रेस का ही भारतीय राजनीति से सफाया होता जा रहा है।
घड़ी की सुइयों को पीछे घुमाया जा सकता है, लेकिन समय के चक्र को पीछे नही घुमाया जा सकता है, लेकिन दो कौमी नज़रिया (Two Nation Theory) एक ऐसी सच्चाई है, जो 1946 के वक्त थी, आज भी है और हमेशा रहेगी, इसे छुपाना असंभव है।
भारतीय मुसलमानो के पूर्वजो द्वारा मोहम्मद अली जिन्नाह के बजाय महात्मा गांधी पर भरोसा करने से यह सच्चाई बदल नही गई है, बल्कि आज अपनी मौत के सात दशक बाद जिन्नाह दोबारा जिंदा होकर हमारे साथ-साथ महात्मा गांधी का भी मजाक उड़ा रहे है, कि “देखो, मै जो कहता था, आज वही हुआ!”।
मोहम्मद अली जिन्नाह ने कहा था, कि “मुसलमानो को हिंदुस्तान मे हमेशा अपनी वफादारी के सुबूत देते रहना पड़ेगा”! मुस्लिम लीगियो ने बार-बार कहा था,
कि सुनो मुसलमानो! “हिंदू सैकड़ो सालो से गुलाम रहा है और जब आज़ाद होगा, तब यह दरिंदगी पर उतर आयेगा!” आज यह भी सच साबित हो रहा है, हमे आज तक समझ नही आता है, कि जो दलित और पिछड़े मुसलमानो की वजह से आज मुख्य धारा मे शामिल हुये और इस देश को मनुस्मृति से छुटकारा मिला है, क्यो वही दलित और पिछड़े मुसलमानो पर अत्याचार करने मे सबसे आगे होते है?
अगर मुसलमान भारत मे नही आते, तो मनुवादी जाट, गुर्जर, कुर्मी, कुशवाहा को सूर्यवंशी और यादव, सैनी, लोधा को चंद्रवंशी क्षत्रिय नही बनाते। अब से 40 साल पहले तक यादवो और जाटवो की सामाजिक परिस्थिति मे ज़्यादा अन्तर नही था, कुर्मी, कुशवाहा, सैनी और लोधा सभी छुआछूत वाली मानसिकता और सामाजिक भेदभाव से पीड़ित थे।
इनकी दरिं!दगी की झलक हमे 1984 के सिक्ख विरोधी दं!गो मे देखने को मिली थी,
जहां इन्होने अपने ही “धर्म के रक्षक” अर्थात सिक्ख भाइयो को जिंदा जला दिया था, फिर इन्हे ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उसके दो मासूम बच्चो को जिंदा जलाने मे जरा सी भी घबराहट और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओ की चिंता नही हुई,
सबसे हैरानी की बात यह है, कि हिंसा का इतना लंबा इतिहास होने के बावजूद भी मनुवादी हिन्दू यह मानने को तैयार नही है, वह असहनशील और हिंसक है।
जब तक इंसान अपनी बीमारी को स्वीकार नही करता है, तब तक वह उसका इलाज नही कर सकता है, ऐसे मे इस बीमारी का इलाज तब तक संभव नही है, जब तक परिस्थितियां इनको सबक नही सिखा देती, किंतु तब तक बहुत नुकसान हो चुका होगा।
अंतरराष्ट्रीय संस्थाओ और समुदाय की सहायता बहुत आवश्यक है, इसलिये संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का भारतीय मुसलमानो को उपयोग करने मे जरा सा भी संकोच नही करना चाहिये। मुस्लिम देशो विशेषकर अरबो का भारत मे निवेश है, इसलिये वह मोदी सरकार को नाराज़ नही करेगे।
पाकिस्तान से हमारे सांस्कृतिक और पारिवारिक रिश्ते है, वह हर समस्या को उजागर करते रहेगे, किंतु शत्रु देश होने के कारण पाकिस्तान की मदद लेना हमे शोभा नही देता है, इसलिये अपनी लड़ाई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनो की सहायता से ही लड़नी होगी।
भारतीय मुसलमान पाकिस्तान की कितनी ही आलोचना और उसके खिलाफ प्रदर्शन करे, किंतु हिंदूओ को उससे शांति नही मिलती है, क्योंकि हिंदू असुरक्षा की भावना अर्थात पाकिस्तान फोबिया नामक बीमारी से पीड़ित है।
मैं भारत के चंद मुसलमानो (00.001%) मे से हूं, जो बड़ी खुशी और गर्व से चिल्ला-चिल्ला कर कहते है, कि “मैं हिंदू हूं!” इसका अभिप्राय होता है, कि हिंदू जीवन शैली है और मै इस जीवन शैली को अपने धर्म से ज्यादा महत्वपूर्ण मानता हूँ, फिर भी मेरे सभी धर्मनिरपेक्ष हिंदू मित्र मुझे अगला लेख पाकिस्तान के विरुद्ध लिखने का सुझाव देते है।
मैं बार-बार बोलता और लिखता हूं, कि “राष्ट्र सर्वोपरि है!” इसका अभिप्राय होता है कि “भारत देश मुझे इस्लाम से ज्यादा प्रिय है”, फिर भी मेरे जैसे राष्ट्रवादी मुसलमान को अपनी देशभक्ति प्रमाणित करने के लिये पाकिस्तान के विरुद्ध बोलने और लिखने के लिये मजबूर किया जाता है।
पुलिस की फायरिंग मे शहीद होने वाला रामपुर का फैज़ खान
हिंदुओ की मानसिक बीमारी (पाकिस्तान-फोबिया) मेरी आत्मा को चोट पहुंचाती है, कि मैं सिर्फ इनको खुश करने और अपनी देशभक्ति को साबित करने के लिये पाकिस्तान के खि़लाफ झूठा दुष्प्रचार क्यो करू! मैं हिंदूओ की सोच से इतना तंग आ चुका हूं, कि अब मैंने भारतीय राजनीति पर ना लिखने का निर्णय लिया है, किन्तु मेरे व्यक्तिगत निर्णय से भारतीय मुसलमानो की समस्याओ का समाधान नही हो जायेगा और उन्हे भारतीय धर्मनिरपेक्षता के पाखंड का बोझ उठाते रहना होगा।
महत्वपूर्ण यह होगा, कि भारतीय मुसलमान कब तक धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पाखंड का बोझ उठा पायेगे?