मसीहुद्दीन संजरी
लोकसभा चुनावों में 23 मई 2019 को भाजपा की प्रचंड जीत का एलान हुआ। आतंक की आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भाजपा ने भोपाल से अपनाप्रत्याशी बनाया जिन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेतादिग्विजय सिंह को भारी मतों से पराजित कर कानूनबनाने वाली देश की सबसे बड़ी पंचायत में पदार्पणकिया। मोदी के दोबारा सत्ता में आने के साथ ही सरकार आतंकवाद पर ‘सख्त’ हो गयी। पहले से ही दुरूपयोगके लिए विवादों में रहे पोटा कानून के स्थान पर कांग्रेससरकार ने 2004 में नए रूप में गैरकानूनी गतिविधियां(निरोधक) अधिनियम पेश किया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट की बैठक में इसी में दो और संशोधन लाने का फैसला किया गया। खबरों केअनुसार पहला संशोधन किसी व्यक्ति को आतंकवादीघोषित करने के लिए उसके किसी संगठन से जुड़े होनेकी बाध्यता को समाप्त करता है और दूसरा एनआईएको किसी भी व्यक्ति को आतंकी होने के संदेह पर गिरफ्तार करने की शक्ति प्रदान करता है। गिरफ्तार किएगए व्यक्ति को तभी ज़मानत मिल सकती है जब वह खुदको अदालत में बेगुनाह साबित कर दे। अब तकएनआईए को किसी व्यक्ति को आतंकवादी साबित करनेके लिए तमाम अन्य साक्ष्यों के अलावा उसके किसीआतंकी संगठन से जुड़ाव के सबूत भी अदालत को देनेहोते थे लेकिन अब उसे इस जंजाल से मुक्त कर दियाजाएगा।
राजनीतिक उद्देश्यों और राजनेताओं के खिलाफ पोटा केदुरूपयोग के आरोपों के चलते 2004 में पोटा को खत्मकर 1967 में बने यूएपीए में आतंकवाद से सम्बंधितप्रावधानों को शामिल कर उसे नया रूप दिया गया था।शुरू में यूएपीए में शामिल आतंकवाद सम्बंधित पोटा केतीन कठोर प्रावधानों को शिथिल या खत्म कर दियागया था। पोटा के अंतर्गत शामिल ज़मानत पाने के कड़ेप्रावधानों को निकाल दिया गया था।
पंद्रह दिनों कीपुलिस हिरासत को हटा दिया गया था और पुलिस केसामने दिए गए बयान के अदालत में स्वीकार्य होने कीबाध्यता खत्म कर दी गई थी।
लेकिन बाद में होने वालोसंशोधनों में इनमें से दो प्रावधानों को फिर से और कठोर बना दिया गया। पुलिस के सामने दिए गए बयान अब भीअदालतों में स्वीकार्य नहीं हैं लेकिन साथ में आरोपों कोगलत साबित करने का बोझ कैद में जा चुके आरोपी परहोने और ज़मानत की संभावनाओं के खत्म हो जाने केबाद इस अस्वीकार्यता के बहुत मायने नहीं रह जाते।
प्रस्तावित संशोधन में आतंकवाद पर प्रहार की बात कीगई है। हालांकि सच यह भी है कि यूएपीए के प्रावधानों का प्रयोग असहमति के स्वरों को कुचलने के लिए भी किया जाता रहा है। गत वर्ष दिल्ली और मुम्बई से अर्बन नक्सल के नाम पर प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, कवियों,शिक्षक और वकीलों की गिरफ्तारियांइसी की ताजा कड़ी है। नए संशोधन के बाद आतंकवाद, माओवाद जैसे आरोपों के नाम पर इस तरह की गिरफ्तारियों के लिए कथित आरोपी को किसी प्रतिबंधित संगठन से जोड़ने के लिए जांच एजेंसी कोकिसी पत्र या अन्य कड़ी की आवश्यकता नहीं होगी।इससे भी बढ़कर बिना सबूत किसी लेखक, कवि,पत्रकार, छात्रनेता, स्तम्भकार, सामाजिक कार्यकर्ता या वकील को विधि विरुद्ध क्रियाकलाप में शामिल होने का आरोप लगाने का अधिकार जांच एजेंसी को मिलजाएगा। हालांकि ऐसा पहले भी होता रहा है लेकिन अबऐसा करना विधि सम्मत होगा।
जून के महीने में ही उत्तर प्रदेश सरकार भी एकअध्यादेश लाई जिसके अनुसार प्रदेश के निजी विश्वविद्यालयों को शपथ पत्र देना होगा कि वह किसी प्रकार की देश विराधी गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे और परिसर में इस तरह की गतिविधियां संचालित नहीं होने देंगे। हालांकि देशद्रोह जैसा कठोर कानून सभी भारतीयों पर एक समान लागू होता है, विश्वविद्यालयों और छात्रों पर भी, फिर ऐसे अध्यादेश के लाने का क्या औचित्य रह जाता है। इसमें देश विरोधी गतिविधियों को परिभाषित भी नहीं किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसका मकसद विगत में सरकार की गरीब और गरीबी विरोधी आर्थिक नीतियों, मॉब लिंचिंग, दलितों, आदिवासियों का उत्पीड़न व जबरी विस्थापन आदि ज्वलंत मुद्दों के खिलाफ विमर्श के लिए गोष्ठी, सम्मेलन या विरोध प्रदर्शनों का दमन करना है।
जाहिर सी बात है कि ऐसे व्यक्तियों या संगठनों की विचारधारा व प्राथमिकताएं वर्तमान सरकार के विचारों, कार्यप्रणाली एवं निहितार्थों से मेल नहीं खाती। ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार के अध्यादेश और केंद्र सरकार के प्रस्तावित संशोधनों को जोड़कर देखा जाए तो ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के अध्यादेश का मकसद निजी विश्वविद्यालों के प्रबंधकों को विश्वविद्यालय परिसर में स्वतंत्र विमर्श और विरोध के स्वर का दमन के लिए बाध्य करना है। स्थिति यह है कि एक खास विचारधारा से लैस संगठित भीड़ राह चलते किसी नागरिक को गाय, जय श्री राम या भारत माता के नाम पर हिंसक घटनाएं अंजाम दे रही है और पूरा तंत्र तमाशाई बना हुआ है। स्वतंत्र विमर्श और विरोध के स्वर के दमन के लिए सरकार और उसके समर्थित गैर सरकारी तत्व अति सक्रिय हैं। इसे अपनी विचारधारा को सत्ता और डंडे की ताकत से थोपने के चक्र के अलावा और क्या कहा जा सकता है। लगभग उसी समय केंद्र सरकार द्वारा यूएपीए में संशोधन कर किसी को आतंकवाद के दायरे में लाने और एनआईए को उसे आतंकवादी बताकर गिरफ्तार करने की शक्ति प्रदान करने के प्रस्तावित विधेयक के निहितार्थों को समझना मुश्किल नहीं रह जाता। इस विधेयक को लाने के लिए आतंकवाद के खिलाफ सख्त होने का दिया गया तर्क पहले से साम्प्रदायिक वैचारिक आधार पर तैयार किए गए माहौल का फायदा उठाना और इसी नाम पर संगठित भीड़ का मनोबल बढ़ाना है। जाहिर सी बात है कि इसका शिकार आतंक आरोपी प्रज्ञा सिंह जैसों या उन लोगों को नहीं होना है जो संघ और भाजपा के मुताबिक आतंकवादी या देश विरोधी हो ही नहीं सकते। यह गोलवल्कर के उन्हीं विचारों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लागू करने का प्रयास है जिसमें उन्होंने अपने अनुयायियों से स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष में शामिल होकर अपनी ऊर्जा खर्च न करने बल्कि देश के (उनके अनुसार) आतंरिक दुश्मनों मुसलमानों, ईसाइयों और वामपंथियों से लड़ने के लिए बचाकर रखने का आवाहन किया था।