शंकर गुहा नियोगी के व्यक्तित्व में एक साथ गांधी , मार्क्स और सुभाष के विचारों का मिश्रण था। वे कठमुल्ला मार्क्सवादी भी नहीं थे , जिस व्यवस्था में मानवीयता के गुणों को कोई जगह नहीं है। इसी तरह वे प्रजातंत्र की आड़ में अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी हथकंडों के भी सख्त खिलाफ थे। नियोगी आज़ादी के बाद एक वर्ग के रूप में उपजे हुए नौकरशाहों के भी पक्षधर नहीं थे।
इतनी विसंगतियों के बावजूद छत्तीसगढ़ जैसे शांत, दब्बू और घटनाविहीन इलाके में नियोगी ने लोकतांत्रिक मूल्यों के सहारे एक भूकम्प की तरह प्रवेश किया। उन्होंने राजनीति , श्रमिक यूनियन या सामाजिक कुरीतियों के क्षेत्र में जेहाद बोलने से कहीं बढ़कर मनोवैज्ञानिक धरातल पर काम किया। नियोगी भविष्य की पीढ़ियों में छत्तीसगढ़ के औसत आदमी की मनोवैज्ञानिक बुनियाद को बदलकर संघर्षधर्मी बीजाणु उत्पन्न करने के लिए शलाका पुरुष के रूप में स्थायी तौर पर याद रखे जाएंगे।
उन्होंने छत्तीसगढ़ के खेतिहर मजदूरों और श्रमिकों की रीढ़ की हड्डी को सीधा कर एक ऐसी राजनीतिक शल्य चिकित्सा की जो छत्तीसगढ़ के श्रमिक आन्दोलन में किया गया पहला प्रयोग है। वे हताश व्यक्ति की तरह नहीं लेकिन मूल्यों के युद्ध में ठीक मध्यान्तर की स्थिति में एक बेशर्म गोलीकांड के शिकार हुए।
शंकर गुहा नियोगी एक तरह के रूमानी नेता थे जो जरूरत पड़ने पर ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन भी करते थे। उनकी राजनीतिक समझ का लोहा वे लोग भी मानते थे जिनके लिए नियोगी सिरदर्द बने हुए थे। तमाम कटुताओं , तल्खियों और नुकीले व्यक्तित्व के बावजूद नियोगी ने कई बार राजनीतिक वाद-विवाद में अपने तर्कों को संशोधित भी किया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में जब सभी विरोधी दलों ने मिलकर ‘भारत बंद‘ का आयोजन किया तो छत्तीसगढ़ में नियोगी अकेले थे जिन्होंने अपने साथियों को काम पर लगाए रखा।
उन्होंने प्रस्तावित भारत बंद को देशद्रोह की संज्ञा दी। वे निजी तौर पर कई मुद्दों पर राजीव गांधी के प्रशंसक भी बन गए थे और अन्य किसी भी नेता को देश की समस्याओं को सुलझाने के लायक उनसे बेहतर नहीं मानते थे। राजीव की मौत के बाद वे मेरे पास घंटों गुमसुम बैठे रहे जैसे उनका कोई अपना खो गया हो।
राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में निरोधित किए जाने के बाद जब उच्च न्यायालय के आदेश से उनकी रिहाई हुई तो नियोगी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मिले। इंदिरा जी ने नियोगी को पर्याप्त समय देकर उन मुद्दों को समझने की कोशिश की जिनकी वजह से नियोगी प्रशासन के लिए चुनौती बने रहते थे।
कथित रूप से नक्सलवादी कहे जाने के बावजूद नियोगी को नक्सलवादियों से सहानुभूति नहीं थी। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बढ़ती जा रही नक्सलवादी हिंसा के प्रति उन्हें भी चिंता थी। वे अपने क्षेत्र में नक्सलवादियों के पैर पसारने की कोशिशों के प्रति सतर्क थे। ट्रेड यूनियन गतिविधियों में भावुक जोश या उत्तेजना कर देने को जो लोग नक्सलवाद समझते हैं, वे नियोगी के वैचारिक स्तर को समझ पाने में सदैव असफल रहे।
इस प्रखर नेता में बच्चों की मासूमियत भी थी। कुछेक मौकों पर प्रशासन के कहने पर मैंने व्यक्तिगत तौर पर नियोगी को समझाइश दी और उन्होंने मेरी सलाह को माना भी लेकिन बुनियादी तौर पर वे प्रजातांत्रिक प्रक्रिया से ट्रेड यूनियन के संगठनात्मक ढांचे को चलाने के पक्षधर दिखाई पड़ते थे।
यह बात अलग है कि कभी-कभी नियोगी में तानाशाही के तेवर भी दिखाई देते थे। उनके प्रारंभिक ट्रेड यूनियन जीवन के अनेक साथी जाने क्यों छिटककर दूर हो गए थे लेकिन उनसे किनाराकशी करने के बाद कोई भी ट्रेड यूनियन नेता उनका विकल्प नहीं बन सका।
कुल मिलाकर शंकर गुहा नियोगी एक बेहद दिलचस्प इंसान , भरोसेमंद दोस्त , उभरते विचारक और घंटों गप्प की महफिल सजाए रखने में सफल नायाब नेता थे। पूर्व बंगाल की शस्य श्यामला धरती से आया यह गमकते धान के बिरवे जैसा व्यक्तित्व भिलाई के कारखाने की लोहे जैसी सख्त बारूदी गोलियों का शिकार क्यों हो गया? नियोगी की हत्या छत्तीसगढ़ कीे प्रथम महत्वपूर्ण राजनीतिक हत्या है।
जो लोग नियोगी को अंधेरी रातों में बीहड़ों और जंगलों में बिना किसी सुरक्षा के जाते देखते थे , उनके मन में यह आशंका जरूर सुगबुगाती रहती थी कि यह सब कब तक चलेगा? लेकिन अपनी मौत से बेखबर और बेखौफ नियोगी अपनी पूरी जिंदगी काँटों के ही रास्ते पर चलते रहे। उनकी मौत राष्ट्रीय घटना बनकर चर्चित हुई है।
हम उन अदना हाथों को क्या दोष दें कि उन्होंने षड़यंत्रकारी दिमागों का एजेंट बनना कबूल किया। हत्यारों ने नियोगी की नहीं , ट्रेड यूनियन की एक अनोखी और बेमिसाल लेकिन सब पर छाप छोड़ने वाली जद्दोजहद की शैली की हत्या की है।