लोक सभा चुनाव मैं एक वर्ष से भी कम समय रह गया है. इस लिए सत्ताधरी पार्टी लोक लुभावन के सभी कार्य करेगी। इसकी शुरुआत केंद्रीय मंत्री रविशंकर ने कर दी है. आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए केंद्र ने अपनी तरफ से मोहरे आगे बढ़ा दिये हैं. केंद्रीय मंत्री ने सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को चिट्ठी लिखी है कि न्यायालयों में दलित और आदिवासियों की तादाद काम क्यों है,लेकिन मंत्री जी शायद मुस्लिमों को भूल गए आबादी के अनुपात में याद्फी देखें तो उनकी तादाद कम ही है.मंत्री जी को कमसे काम दलित और आदिवासियों के साथ मुसलमानो का नाम भी जोड़ देना चाहिए था.
क्या केंद्र सरकार सिर्फ यही चाहती है कि उच्च न्यायपालिका में दलित और आदिवासी जजों की तादाद बढ़े मुसलामानों की नहीं . पिछले दो साल में ये छठा मौका है जब इसी एजेंडे पर चिट्ठी लिखी गई है. चिट्ठी में लिखा गया है कि उच्च न्यायालयों में जजों के नाम की सिफारिश करते वक्त हाईकोर्ट जजों का कोलेजियम अनुसूचित और जनजातियों के अच्छे प्रतिभाशाली वकीलों का ध्यान भी रखें, ताकि उनको न्यायपालिका में समुचित प्रतिनिधित्व दिया जा सके. सरकार ने चिट्ठी में हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से ये भी आग्रह किया है कि ऐसे दलित और आदिवासी प्रतिभाशाली वकीलों का डाटाबेस तैयार किया जा सकता है ताकि हाईकोर्ट में नये जजों के नामों की सिफारिश करने से पहले कोलेजियम उनमें से भी बेहतरीन विकल्पों पर विचार करे.पूरी चिट्ठी में सिर्फ दलित और आदिवासियों पर बात की गयी है मुस्लिमों पर नहीं जिनकी हालत दलितों से भी बदतर है.
वैसे तो पूरा यक़ीन है कि इस पर अमल होने वाला नहीं है ये सिर्फ दलितों और आदिवासियों को अपनी तरफ करने का एक मोहरा है.लेकिन फिर भी मुस्लिमों का नाम लिख देने में क्या हर्ज़ था।
चिट्ठी में ये भी लिखा गया है कि जजों के लिए नामों की सिफारिश करने से पहले कोलेजियम अपनी चर्चा और सलाह का दायरा बढ़ाए. ऐसे में इस क्षेत्र के अन्य स्टेकहोल्डर्स से भी सलाह ली जा सकती है. सरकार ने सुझाया है कि पारदर्शिता को ज्यादा बढ़ाने की गरज से बार एसोसिएशन, राज्यपाल या फिर एडवोकेट जनरल से भी राय ली जाए. ये अलग बात है कि पहले भी इस तरह की सलाह को हाईकोर्ट्स कोलेजियम नकार चुके हैं.
मोदी सरकार ने 2014 में कामकाज संभालने के बाद आदिवासी और दलित वकीलों को उच्च न्यायपालिका में नुमाइंदगी बढ़ाने की सलाह दी हो. उत्तराखंड के चीफ जस्टिस एम.के जोसफ को सुप्रीम कोर्ट लाए जाने की सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की सिफारिश को फिर से विचार के लिए वापस भेजने के बाद भी केंद्र सरकार ने चीफ जस्टिस के नाम भेजे खत में यही मुद्दा उठाया था. तब केंद्रीय कानून मंत्री की चिट्ठी में जिक्र किया गया था कि हाईकोर्ट में बड़ी तादाद में जजों के पद खाली हैं लेकिन कोलेजियम एक या दो नाम की सिफारिशें क्यों करता है. सिफारिशें ज्यादा होनी चाहिए ताकि किसी उम्मीदवार के खिलाफ सरकार को कोई शिकायत मिले तो विकल्प मौजूद हों.लेकिन अब तक भी यह मुद्दा ऐसा ही है जैसा 2014 में था,तो इस चिट्ठी को भी अधिक तवज्जोह देने की ज़रुरत नहीं है।
रिकॉर्ड बताते हैं कि आजादी के बाद इतिहास में अब तक जस्टिस के.जी बालकृष्णन इकलौते चीफ जस्टिस हुए हैं जो अनुसूचित जाति से थे. सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल 8 जजों के पद खाली हैं. जुलाई में ये तादाद 9 हो जाएगी और साल के अंत तक दो अंकों में आ जाएगी. उच्च न्यायालयों में जजों के 400 से ज्यादा पद खाली हैं. निचली अदालतों में तो पांच हजार से ज्यादा जजों के पद खाली हैं, मुकदमों का बोझ भी तीन करोड़ से ज्यादा है.
उच्च न्यायलयों में जजों की नियुक्ति के लिए पहले हाईकोर्ट कोलेजियम निचली अदालतों के जजों और बार से चुनिंदा वकीलों के नामों की सिफारिश पहले मुख्यमंत्री को और फिर वहां से खुफिया रिपोर्ट ओके होने के बाद सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम को भेजता है. सुप्रीम कोर्ट में तीन वरिष्ठतम जजों का कोलेजियम उन नामों पर विचार कर उम्मीदवार को बुलाकर भी उनसे निजी तौर पर मिलकर सवाल जवाब करता है. खुफिया रिपोर्ट्स के साथ और कई तरह की पड़ताल के बाद फाइनल सूची सरकार को भेजी जाती है.
सरकार भी उसकी पड़ताल कर संतुष्ट होने के बाद राष्ट्रपति के पास भेजती है. राष्ट्रपति नियुक्ति का वारंट जारी कर देते हैं. सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम जजों का कोलेजियम हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस में से सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त करने की सिफारिश करता है.
सरकार की चिट्ठी का कितना असर हाईकोर्ट कोलेजियम पर पड़ता है ये तो भविष्य में पता चलेगा लेकिन सरकार ने चुनावों से ऐन पहले अपना राजनीतिक दांव तो खेल ही दिया है.