कांग्रेस नेता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नागपुर स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय जाने के कई लाभ भाजपा और संघ को मिलते दिखाई दे रहे हैं. कहने को तो तर्क दिए जा सकते हैं कि मोहन भागवत और प्रणब मुखर्जी के बीच घनिष्ठता है. वो एक-दूसरे वो व्यक्तिगत रूप से पसंद करते हैं. प्रणब दा ने तो मोहन भागवत को राष्ट्रपति रहते रिसीव करने के लिए प्रोटोकॉल तक तोड़ा है.
लेकिन कहानी इतनी भर नहीं है. प्रणब मुखर्जी के जाने की खबर आने के साथ ही कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों, समाजशास्त्रियों ने इस फैसले का विरोध करना शुरू कर दिया था और प्रणब दा को नसीहत दी जा रही थी कि वो कतई संघ के इस कार्यक्रम में शामिल न हों.
यहां तक कि उनकी बेटी और कांग्रेस की नेता शर्मिष्ठा मुखर्जी ने अपने पिता को सार्वजनिक रूप से आगाह किया कि उनके संघ के कार्यक्रम में जाने से उन्हें कुप्रचार का सामना करना पड़ेगा. लोग प्रणब दा के भाषण को भूल जाएंगे और उनकी संघ प्रमुख के साथ की तस्वीरें दशकों तक उनका पीछा करती रहेंगी.
लेकिन यह भी समझना होगा कि नाहक ही संघ ने प्रणब मुखर्जी को अपने कार्यक्रम में नहीं बुला लिया. यह एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया है. प्रणब को बुलाने का सबसे पहला लाभ तो यह हुआ कि जिस संघ शिक्षा वर्ग की खबर आंचलिक स्तर पर छप कर खप जाती थी, वो दो घंटे तक सभी बड़े मीडिया चैनलों पर लाइव दिखाया गया.
प्रणब दा की संघ के कार्यक्रम में उपस्थिति असंतुष्ट कांग्रेसियों के लिए संकेत भी है और संदेश भी. संघ और भाजपा जिस तरह से प्रणब दा की इस कार्यक्रम में जाने के बाद से तारीफ कर रहे हैं वो कांग्रेस के असंतुष्टों और वरिष्ठों को संदेश देना है. पहले ही कई बड़े कांग्रेसी चेहरे भाजपा में शामिल हो चुके हैं.
सबसे बड़ा लाभ यह है कि नाथुराम गोडसे से लेकर हिंदू आतंकवाद के सवाल तक संघ को घेरने वाली कांग्रेस के पास अब अपने ही आंगन में एक विभीषण है. प्रणब दा के जाने से पहले तक के राहुल गांधी के भाषणों को याद कीजिए जहां राहुल ने संघ और भाजपा दोनों को एकसाथ खड़ा करके फासीवादी और लोकतंत्र का दुश्मन कहा है. संघ पर गांधी की हत्या का आरोप लगाने वाले राहुल गांधी के लिए प्रणब दा ने मुश्किलें ज़रूर खड़ी कर दी हैं.