प्रेम और करुणा के सागर भारतीय समाज मे घृणा की राजनीति दूसरे ग्रह से आये किसी जीव की तरह प्रतीत होती है। सांख्य सिद्धांत के रचयिता कपिल और शून्य के जन्मदाता महर्षि चर्वाक जैसे यथार्थवादियो के देश भारत मे अंधविश्वास किसी अन्जान बीमारी की तरह है।
महावीर और गौतम बुद्ध जैसे अहिंसावादीयो के देश मे हिंसा किसी अनहोनी घटना जैसी है। सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व के लिए ब्राह्मणवादियो ने असंभव को भी संभव कर दिया है, ब्राह्मणवाद फासीवाद का भारतीय संस्करण है।
यहूदियो की तरह ब्राह्मणो का भी मत है, कि सृष्टि के जन्मदाता ने उन्हे विशेष रूप से और नेतृत्व के विशेषाधिकार के साथ जन्म दिया है, इसलिये वह मानव जाति मे सर्वश्रेष्ठ है, बाकी लोग उनकी सेवा करने अर्थात उनके इशारो पर नाचने के लिए पैदा किये गये है।
ऐसा मत है, कि अशोक के ज़माने मे 90% भारत बौद्ध धर्म को अपना चुका था,
ब्राह्मणो मे से भी एक बड़ा वर्ग बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुका था, जिसे आज का भूमिहार समझा जाता है, किंतु आठवीं शताब्दी तक पहुंचते-पहुंचते बौद्ध धर्म का भारत से सफाया कर दिया गया।
यही ब्राह्मणवाद की शक्ति का प्रमाण है, कि जब-जब यह धरातल से पाताल मे गया, उतनी ही तेजी से यह ऊपर उठकर बुलंदियां छूने लगता है, इसमे विषम परिस्थितियो मे खुद को बचाने और मौका मिलते ही अपने दुश्मनो को ठिकाने लगाने की अद्भुत क्षमता है अर्थात गिरगिट की तरह रंग बदलने मे माहिर।
झूठ ब्राह्मणवादियो का सबसे बड़ा हथियार है और यह दुष्प्रचार के विशेषज्ञ होते है,
कहानियां गढ़ने के मामले मे दुनिया मे कोई इनका मुकाबला नही कर सकता है,
काल्पनिक कहानियो को इतिहास बता कर सच्चाई का गला घोटने मे,
इनको महारत हासिल होती है, इनकी इसी क्षमता की वजह से हिटलर और उसके प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स को ब्राह्मणवादियो का मुरीद बना दिया था।
मुसलमानो की भारत मे सत्ता स्थापित होने के बाद से ब्राहाम्णवादियो के दोबारा बुरे दिन शुरू हो गये थे, किंतु हाशिए पर पहुंचने के बावजूद उन्होने बहुत संयम से काम लिया और चाटुकारिता करके पहले मुस्लिम शासको के दरबार मे अपनी जगह बनाई, फिर अवसर पाते ही भक्ति आंदोलन को शुरू करवाया।
देश की 85% हिंदू आबादी जो शूद्र थी, वह अपने वर्चस्व के लिए संघर्ष कर रही थी और समाज का सम्मानित अंग बनना चाहती थी, ऐसे मे वह ब्राह्मणो के जाल मे नही फसती, इसलिये तब निर्गुण आंदोलन के नाम पर तुकाराम जैसे संतो द्वारा हिंदुओ को प्रेरित करके संगठित करने का प्रयास किया गया।
सबसे बड़ी सफलता शिवाजी के रूप मे मिली जिन्होने हिंदू राज्य की स्थापना करी, किन्तु शिवाजी शूद्र समाज का हिस्सा थे, जो अपने आप को क्षत्रिय साबित करके स्वर्ण समाज का अंग बनना चाहते थे।
ब्राह्मणो को शूद्र शिवाजी का राजतिलक स्वीकार नही था, इसलिए स्थानीय ब्राह्मणो ने उनका राजतिलक करने से इंकार कर दिया, फिर उत्तर प्रदेश से बुलाये गये ब्राह्मण ने हाथ के बजाय अपने पैर के अंगूठे से शिवाजी को तिलक लगाकर उनका राजतिलक किया।

शिवाजी के देहांत के बाद जैसे ही उनका परिवार कमजोर पड़ा, इन ब्राह्मणवादियो ने पेशवा की उपाधि धारण करके सत्ता पर कब्जा कर लिया, सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए” वाली कहावत चरितार्थ हुई और कोरेगांव युद्ध मे दलितो के हाथो पेशवाओ का खात्मा होते-होते बचा, जिन मुसलमानो के विरुद्ध दलितो को खड़ा किया जा रहा था, उन्ही मुसलमानो ने अपने प्राण न्यौछावर करके पेशवाओ को जिंदा बचाया।
ऊपर से अंग्रेज बड़े कुटिल थे और वह ब्राह्मणो के षड्यंत्रो का विश्लेषण करके उसको पहले से ही भांप लेते थे, उन्होने ब्राह्मणवादियो को ठिकाने लगाने के लिये दलित नेतृत्व को पैदा करके हिंदू और मुस्लिम के बाद दलित को तीसरे बड़े वर्ग के रूप मे खड़ा करने के लिये प्रयास शुरू कर दिये थे, इसलिये उन्होने समाज सुधार के नाम पर नये-नये कानून बनाकर ब्राह्मणो के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व का बोरिया बिस्तर बांध दिया।
ब्राह्मणो ने अंग्रेजो की इस चाल को पढ़ लिया और समाज सुधार और समरसता का चोला पहनकर नये-नये संगठन बनाना शुरू कर दिया, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और आर्य समाज जैसे संगठन बनाकर सनातन धर्मीयो को संगठित करने की कोशिश की गई।
उदारवाद के नाम पर बने ब्रह्म समाज के सहारे अंग्रेजो पर डोरे डाले गये, ताकि अंग्रेजो का ध्यान अपनी तरफ से हटाया जा सके, तो आर्य समाज की आड़ मे सनातन धर्म मे नई जान फूंकने की कोशिश करी गयी!
पेट्रन (स्वरूप)भक्ति आंदोलन वाला ही था, लेकिन आर्य समाज की पैकिंग थोड़ी अलग थी. इस बार सीधे दूसरे धर्मो को निशाने पर लिया गया था, धर्मो और धर्मगुरुओ के खिलाफ अपशब्द कहे गये विशेषकर भारत भूमि पर जन्मे धर्मो के संस्थापको और संचालको जैसे महावीर, महात्मा बुध और गुरु नानक के विरुद्ध अत्यंत निंदनीय अपशब्दो का उपयोग किया गया था।
इस नीच-कर्म का दूसरा सबसे बड़ा कारण भक्ति आंदोलन के सूफी-संतो द्वारा पैदा की गई समरसता और समग्र-संस्कृति से छुटकारा पाना था, क्योकि हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत का बीज बोकर और गंगा-जमुनी तहजीब का कत्ल करके ही शूद्रो के इस्लाम की तरफ झुकाव को रोका जा सकता था, ताकि असमंजस और भ्रम की स्थिति पैदा होने पर उन्हे विकल्प देकर अपनी तरफ आकर्षित किया जाये, फिर अवसर मिलते ही ब्राह्मणवाद को दोबारा से स्थापित करने का प्रयास किया जा सके।
“गर्व से कहो, हम हिंदू है”
का नारा देकर दशको की गुलामी से हिंदुओ के अंदर पैदा हुई हीन भावना को निकालने का प्रयास किया गया, इसका बहुत ही उत्साही परिणाम निकला, मुसलमानो और हिंदुओ के बीच का संघर्ष घरो से बाहर निकलकर सड़को पर आ गया!
1857 के स्वतंत्रता संग्राम से डरे हुये अंग्रेज़ चाहते थे, कि संप्रदायिक फूट पड़े इसलिए उन्होने आर्य समाज को खुली छूट दे दी, जिसका लाभ लेकर ताबूत मे आखिरी कील ठोकते हुये आर्य समाजियो ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करके ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को पुन: स्थापित करने के लिये नींव रख दी।
हिंदुओ को मुसलमानो के विरुद्ध संगठित करने मे आर०एस०एस० के लिये सबसे बड़ी समस्या दलितो का इस्लाम के लिये मोह था, क्योकि बहुत से दलित दरगाह पर जाते, रोज़ा रखते और नमाज पढ़ते थे, उन्हे मस्जिद मे बादशाह और सिपाही का एक पंक्ति मे खड़ा होना बहुत अच्छा लगता था और वह अपना समाज भी समानता पर आधारित चाहते थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने झूठी घटनाओ पर आधारित इतिहास की रचना करके उसका प्रचार करना शुरू कर दिया, ताकि मनुवादियो द्वारा शूद्रो पर किये गये अत्याचारो पर पर्दा डालकर उनको छुपाया जा सके और मुस्लिम शासको की हिंदू विरोधी छवि बना कर हिंदुओ और मुसलमानो के बीच मे नफरत की खाई को पैदा किया जा सके।
सातवीं शताब्दी मे ब्राह्मणो ने बौद्धो को ठिकाने लगाने के लिये उनका चरित्र हनन करने वाली झूठी कहानियो का दुष्प्रचार किया था, जिनमे बौद्ध भिक्षुओ को मांसाहार, मद्यपान, व्यभिचार और समलैंगिकता मे लिप्त बताया गया,
जिससे जनता का उनके प्रति मोहभंग हो गया था और यह बौद्ध धर्म के पतन का पहला कारण बना।
बीसवीं शताब्दी मे दोबारा दुष्प्रचार की इस रणनीति को अपनाते हुये मुसलमानो द्वारा हिंदुओ के ऊपर किये गये अत्याचार की झूठी कहानियां तैयार की गयी।
आज यह कहानिया भारत मे फासीवाद को चरम सीमा पर पहुंचाने मे सफलता की कुंजी बनी है, चार दशक पहले किसी को आभास भी नही था, कि महात्मा गांधी के देश मे इतनी जल्दी फासीवाद का स्वर्ण काल आ जायेगा।
दुश्मन पर विजय पाने के लिए यह जरूरी होता है कि उसकी कमजोरियो के साथ-साथ उसके अस्त्रो का भी जवाब खोजा जा सके, इसलिए उसके अस्त्रो (हत्यारो) का अध्ययन और विश्लेषण जरूरी होता है।
अगर फासीवाद को देश से मिटाना है, तो सबसे पहले इन झूठी कहानियो द्वारा किये गये दुष्प्रचार का अध्ययन करके फासीवादियो को उत्तर देना जरूरी है।
भारत मे कहानी रचना की महान परंपरा रही थी, “बौद्ध जातक कथाओ” जैसी धार्मिक कहानिया और “विक्रम बेताल और सिंहासन बत्तीसी” जैसी विश्व प्रसिद्ध लोक कहानियां श्रोताओ का मन मोह लेती थी, क्योकि समाज मे ब्राह्मण सर्वाधिक शिक्षित होते थे, इसलिये कहानी रचना की एक लंबी ऐतिहासिक परंपरा ने ब्राह्मणो को दक्ष कर दिया था!
ब्राह्मणवादियो ने बौद्ध धर्म का सफाया करने के लिये कहानियो को हथियार बनाया, तब से कहानियां मनुवादी प्रोपोगण्डा तंत्र का महत्वपूर्ण अंग बन गई।
स्वतंत्रता के बाद धर्मनिरपेक्ष भारत सरकार भी अप्रत्यक्ष रूप से इन कहानियो के माध्यम से दुष्प्रचार को बढ़ावा देती रही है, ताकि अल्पसंख्यको के ऊपर नियंत्रण रखा जा सके, क्योकि सरकार भयभीत रहती थी, कि भारत के अल्पसंख्यक भी अमेरिका की यहूदी लाबी की तरह इतने ताकतवर ना बन जाये.
जिससे भारत सरकार को वह अपनी उंगलियो पर नचाने लगे, इसलिए सात दशको मे भी भारत सरकार ने कड़े कानून बनाकर संप्रदायिक दंगो को रोकने का प्रयास नही किया, क्योकि सारे भेदभाव के बावजूद अल्पसंख्यक प्रगति कर जाते है, तब दंगे ही उनको 25 साल पीछे धकेलने का एकमात्र तरीका होते है।
मुझे इस कहानी रूपी ब्राह्मणवादी शस्त्र की मारक क्षमता का एहसास 2005 मे हुआ था, तब मैं एक निजी सुरक्षा कंपनी मे कार्य कर रहा था, जिसमे बड़ी संख्या मे सेवानिवृत्त सैनिक शामिल थे।
मेरी कंपनी के ऑपरेशन मैनेजर लखनऊ के मूल निवासी लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीवास्तव थे, उस दिन श्रीवास्तव एक दूसरे अधिकारी मेजर भूरा और मेरे साथ बैठे मध्यान भोजन कर रहे थे, भूरा मांसाहारी भोजन लाये थे और उसको वह खुशी-खुशी श्रीवास्तव को परोस रहे थे, कि तभी एक और कर्मचारी रणधीर कौशिक आये।
कौशिक अपने मैनेजर श्रीवास्तव के विश्वासपात्र थे, “कप्तान भोजन करो”! बोलकर उन्होने कौशिक को साथ मे भोजन करने का निमंत्रण दिया।
रणधीर कौशिक को कप्तान बनने का बहुत शौक था, लेकिन उस पद से पहले ही (शायद हवलदार के पद से) वह रिटायर हो गये थे, इसलिए हम सब कप्तान कह कर उनको बुलाते, तो वह बहुत प्रसन्न होते थे।
कौशिक मांसाहारी भोजन होने के कारण उसको ना खाने का बहाना खोज रहे थे, इसलिए उन्होने एक कहानी सुनाते हुये कहा, कि दो जीवो के बीच मे एक समझौता हुआ था, कि एक जीवन मे मैं कसाई और तू बकरा बनेगा, अगले जीवन मे तू कसाई और मैं बकरा बनूंगा, एक बार बकरा जब कसाई के सामने आया, तो उसकी मात्र तीन टांगे थी, तब कसाई ने गुस्से से कहा, कि एक टांग कम देकर तू मेरे साथ छल क्यो कर रहा है? तब बकरे ने कहा, कि पिछले जन्म मे मैने तुम्हारी एक टांग जीवित अवस्था मे काट ली थी, इसलिए इस जन्म मे मुझे कष्ट भोगना पड़ रहा है।
यह कहानी सुनकर मेजर भूरा बहुत गुस्से मे आ गए और उन्होने कौशिक को डांटते हुए कहा, कि यह सब ब्राह्मणवादियो की ब्रेनवाशिंग की कार्यशैली है और तुम एक फौजी होकर भी ऐसी हरकते क्यो करते हो? कौशिक हार मानकर चुप होने के बजाय बहस करते रहे, फिर बात यहां तक पँहुच गई, वह बोले, कि मुसलमान उल्टे चलते है!
अब तक चुपचाप वार्तालाप सुन रहे श्रीवास्तव ने बीच मे दखल देते हुए पूछा, कि कैसे मुसलमान उल्टे चलते है? कौशिक ने कहा, क्योकि हम पूरब की तरफ मुंह करके पूजा करते है, इसलिये यह लोग पश्चिम की तरफ मुंह करके पूजा करते है।
श्रीवास्तव ने डांटते हुए कहा, कि अफ्रीका का मुसलमान पूरब की तरफ मुंह करके ही पूजा करता है, क्योकि मुसलमान काबे को केंद्र बनाकर पूजा करते है, इसलिए चारो दिशाओ मे रहने वाले लोग अपने-अपने हिसाब से काबे की तरफ मुंह करके पूजा करते है, इसमे हिंदू विरोध कहां से आ गया?
तब कौशिक ने फिर कुतर्क किया, कि हम सीधे हाथ से हिंदी लिखते है, तो यह उल्टे हाथ से उर्दू लिखते है, इस पर श्रीवास्तव ने कहा, कि ऐसी बहुत सी लिपिया है,
जो उर्दू की तरह लिखी जाती है। इस पर मैने मज़ाक उड़ाते हुये कहा, कि सीधा हाथ से तो उर्दू लिखी जाती है क्योकि हम दाएं से बाएं की ओर लिखते है।
फिर उन्होने गुस्से से कहा, कि बांधो की खाट (पलंग) की अदवाइन (रस्सी) को मुसलमान उल्टा खींचते है, इस पर मैंने उनको समझाया कि मुसलमान रस्सी को नीचे से ऊपर की ओर खींचते है, जिससे पलंग मे झुकाव (गड्ढा) कम हो जाता है और कमर के दर्द की संभावना नाममात्र रह जाये। इस तरह कुतर्को और स्पष्टीकरण का दौर काफी देर तक चलता रहा। आखिर मे मेजर भूरा ने डांट लगाकर कौशिक को शांत किया।
इतना महत्वपूर्ण विषय और अनुभवी लेखक होने के बावजूद इस तुच्छ घटना का उल्लेख करना संकट की गंभीरता को समझाना है, कि परस्पर घृणा के कारण राष्ट्र और समाज पर कितना बड़ा खतरा मंडरा रहा है?
इस घटना ने मेरे मन को इतना झिझोड़ दिया, मैं हैरान था, कि क्यो बड़ी उम्र के लोग भी मन मे इतनी ज़्यादा नफरत पाले बैठे है, फिर मैंने इस विषय पर अध्ययन करके झूठ-तंत्र का पर्दाफाश करने का निश्चय किया, राष्ट्र की एकता और अखंडता की रक्षा की जा सके।
लोक कहानियो से कोई समस्या नही है,बल्कि समस्या कल्पना को यथार्थ बताकर उसे ऐताहासिक घटना के रूप मे सत्यापित करने वाले कुतर्को और षड्यंत्रो से पैदा होती है, एक उपन्यास की काल्पनिक पात्र रानी पद्मावती को क्षत्रियो की आन का प्रतीक बताकर सड़क पर हिंसा का नंगा नाच करके वोट बैंक की राजनीति की जाती है।
यह कहानियां फांसीवादियो का सबसे बड़ा अस्त्र है, क्योकि इन्ही कहानी के माध्यम से हिंदुओ की ब्रेनवाशिंग की जाती है।
टेलीकम्युनिकेशन तकनीक (महाभारत का संजय), स्टील्ट फाइटर प्लेन (पुष्पक), क्लोनिंग (पांडव), इनट्रो वीट्रो फर्टिलिटी सिस्टम (ऋंग ऋषि, द्रोणाचार्य और सत्यवती), कॉस्मेटिक सर्जरी (गणेश)
की चर्चा करके ब्राह्मणवादी उपहास का पात्र बनते है, लेकिन अब मनोवैज्ञानिक बीमारी इस हद तक बढ़ गई है, कि यह इंटरनेट, लेज़र, हार्प (आयन मंडल नियंत्रण तकनीक), परमाणु बम और स्टार वॉर को वैदिक इतिहास का अध्याय बनाने पर तुले है।
यह मनोरंजक बाते विकराल रूप धारण कर लेती है, जब यह राम जन्मभूमि और रामसेतु जैसे मुद्दो पर खून की होली खेलने का बहाना बनती है। सारा विश्व दांतो तले उंगली दबा लेता है, जब न्यायालय मे इन काल्पनिक बातो को ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित करने का प्रयास होता है.
जिस न्यायालय के जज को विश्वास हो, कि मोर के आंसू पीने से मोरनी गर्भवती होती है, उस न्याय व्यवस्था मे राक्षसो (दलित-आदिवासी) और मलेच्छो (मुसलमान-इसाई) को न्याय कैसे मिलेगा?
चित और पट दोनो पहले से इनकी ही थी, अब तो सिक्का भी इन्ही का हो गया है,
ब्राह्मणवाद आज राष्ट्रवाद का चोला पहनकर वापस आ गया है, इस नाटय मे आदि शंकराचार्य का पात्र मोहन भागवत और पुष्यमित्र शुंग का पात्र मोदी मंचन कर रहे है.
सभी हिंदू जातियो का इतिहास लिखवाने की वकालत करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके वर्तमान संघ सरसंचालक मोहन भागवत को अपनी जाति “चितपावन ब्राह्मण” का इतिहास लिखवाने के नाम से ही सांप सूंघ जाता है, क्योकि इससे इनके “माटी पुत्र” होने के प्रोपेगंडे की पोल खुल जायेगी, जबकि वीर सावरकर से लेकर गुरु गोलवलकर तक अधिकतर संघ के कर्णधार चितपावन ब्राह्मण ही होते है.
अग्रेज़ लेखक रिचर्ड मैक्सवेल ईटन ने अपनी किताब “ऐ सोशल हिस्टिरी आफ दा दक्कन (1300-1761)” मे अध्याय 1 के पृष्ठ 192 पर लिखा है, कि चितपावन ब्राह्मण अपनी जान बचाने के लिये बेन इजरायल से भाग कर भारत के कोंकण क्षेत्र मे आये यहूदी शरणार्थी थे, इनकी भाषा और जीवन शैली परंपरागत भारतीयो से नही मिलती है, यह कालांतर मे ब्राह्मण बन गये।
यह बौद्धिक कुटिलता का बेमिसाल उदाहरण है, कि अपनी सुविधानुसार इतिहास तैयार किया जाये, एक तरफ अपनी छवि सुधारी जाये और दूसरी तरफ मुसलमानो की छवि खराब की जाये, मुसलमान सुबह मे बाबर के वंशज बताये जाते है और रात होने से पहले हिंदू पूर्वजो की संतान बन जाते है।
शोध, अध्ययन और अनुसंधान मे एक लाख बौद्ध स्तूपो को तोड़कर उसके ऊपर बनाए गये सनातन धर्म के किसी मंदिर का पता नही चलता है, किंतु मुस्लिम शासको द्वारा बनाई गई हर इमारत के नीचे मंदिर खोज लिया जाता है।
नालंदा स्थित विश्व के सबसे बड़े और पुराने बौद्ध विश्वविद्यालय को सनातन धर्मी शासको ने उस वक्त लूट कर वैदिक विद्यालय बना दिया था, जब इस्लाम पैदा भी नही हुआ था, किंतु बड़ी धूर्तता से उस नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश का इल्जाम मुस्लिम शासको पर लगाया जाता है।
उडीसा के भूतपूर्व राज्यपाल और राज्यसभा के पूर्व सदस्य प्रोफेसर बी० एन० पाण्डे ने “भारतीय संस्कृति और मुग़ल सम्राज्य” के शीर्षक से पुस्तक लिखकर मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा निर्मित नये मंदिरो और सहायता प्रदान किए गये पुराने मंदिरो की इतनी लंबी सूची बताई है, जो उसके द्वारा क्षति पहुंचाए गए मंदिरो की संख्या से सौ गुना अधिक है, जबकि सवा तीन सौ साल के मुगल शासन मे जितने मंदिर टूटे है, उससे कई गुना अधिक मंदिर शैव और वैष्णव संप्रदाय के बीच मे हुये युद्धो मे ध्वस्त कर दिए गये थे।
मुगल सम्राट औरंगजेब ने अपने पिता को कारावास मे डाला, एक भाई को मृत्युदंड दिया, दूसरे की हत्या करी और अपने सगे बेटे को मृत्युदंड दिया था, अगर ऐसे ज़ालिम बादशाह ने हिंदूओ और सिक्खो की भी हत्या करी तो इसमे संप्रदायिकता कहां से आ जाती है?
हर राजा अपनी सत्ता बचाने के लिए खून की नदिया बहाता था, अशोक ने अपने पिता और सौ भाइयो की हत्या करी थी, अशोक के परिवार को पित्रहंता कहा जाता है, क्योकि उसके पिता ने उसके दादा की हत्या की थी।
महाभारत मे पांडवो ने अपने दादा भीष्म पितामह की हत्या करवाई और गुरु द्रोणाचार्य और सैकड़ो रिश्तेदारो की हत्या करी थी, मर्यादा पुरुषोत्तम ने छल से बाली की हत्या करी और युद्ध मे लंकावासीयो का नरसंहार किया था,देवी-देवता के हाथ भी खून से रंगे रहते थे, ऐसे मे किसी राजा द्वारा की गई हत्या को मुद्दा बनाना कहां तक उचित है?
जब प्रधानमंत्री मोदी के हाथ गुजरात के मुसलमानो के खून से रंगे होने का शक है,
तब किसी प्राचीन मुसलमान शासक द्वारा हिंदुओ की हत्या का प्रोपेगंडा करना सिर्फ फांसीवादी एजेंडे का षड्यंत्र ही है।
जहांगीर के शासनकाल मे 20%, शाहजहां के शासनकाल मे 25% और औरंगजेब के शासनकाल मे 33% से अधिक दरबारी हिंदू थे, 90℅ मुस्लिम आबादी वाली मुसलमान रियासत रामपुर के 60% मंत्री ब्राह्मण थे, यह तथ्य जानने बावजूद भी जज़िया, तीर्थ-यात्रा कर और दूसरे बहाने से भेदभाव का मुद्दा उठाना सिर्फ बौद्धिक कुटिलता का प्रमाण है।
मुस्लिम शासन का ढांचा संघात्मक होता था और बादशाह हिंदू राजाओ और जमींदारो की मार्फत हिंदू जनता पर शासन करते थे, अर्थात वह लगभग 90% प्रतिशत हिंदू जनता से सीधे संपर्क मे नही रहते थे, ऐसे मे अत्याचार की कहानियां दुर्भावना से ग्रस्त है, अगर मुसलमान शासक सीधे हिंदू जनता के संपर्क मे आते, तो लगभग आधे दलित और आदिवासी आज मुसलमान होते.
40% राजपूत, 35% गुर्जर 33% जाट मुसलमान है, साउथ एशिया के मुसलमानो मे दलितो की संख्या 10% से भी कम है, जबकि हिंदुओ मे 15%, सिक्खो मे एक तिहाई, ईसाइयो मे लगभग दो तिहाई और बौद्धो मे लगभग 90% है.
अगर पाकिस्तान और उत्तर भारत (विशेषकर कश्मीर, सिंध, पँजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) का संयुक्त रूप से अध्ययन करे, तो मुसलमानो मे दलितो के मुकाबले ब्राह्मणो की संख्या कई गुना अधिक है।
भारत “सोने की चिड़िया” था और विश्व व्यापार मे भारत का हिस्सा 30% से अधिक था। अब यह आंकड़ा कहां से आया? इसका कोई प्रमाण नही क्योकि भारत मे इतिहास लिखने की परंपरा ही नही थी।
राजाओ की चाटुकारिता मे लिखे गये पृथ्वीराज रासो जैसे काव्य ग्रंथो को इतिहास का नाम दिया जाता है, ऊपर से एक लेखक द्वारा लिखी गई इन ग्रंथो की वंशावली दूसरे लेखक से नही मिलती है, यूनानी लेखक मेगास्थनीज द्वारा लिखी गई किताब इंडिका भारत से संबंधित सबसे पुरानी किताब है, उसने लिखा था कि भारत मे 8 वर्ग थे, जबकि हम जानते है कि मात्र 4 वर्ग (वर्ण) थे,
दुर्भाग्य से जो किताब है, उसमे भी विवरण गलत है।
भारत मे अधिकृत और व्यवस्थित रूप से इतिहास लेखन और संग्रह का काम मुसलमान शासनकाल मे शुरू हुआ, किंतु यह इतिहास भी सिर्फ सत्ता से जुड़े लोगो का ही मिलता है अर्थात सामाजिक इतिहास नही मिलता है।
अकबर की हिंदू पत्नी का असली हिंदू नाम क्या था इस पर आज तक मतभेद है,
तो बाकी विषयो की पूर्ण जानकारी की उम्मीद करना व्यर्थ है, व्यापार, वाणिज्य और वित्त से जुड़े आंकड़े 16 वीं शताब्दी मे मिलना शुरू होते है, वह कितने सटीक है? यह भविष्यवाणी करना असंभव है।
कैंब्रिज के मशहूर इतिहासकार ऐन्गस मेड्डीसन के अनुसार 1600 ईस्वी मे वैश्विक अर्थव्यवस्था मे भारत का प्रतिशत 22.54, चीन का 29.14 और प० यूरोप का 20.02 था, जो 1700 ईस्वी मे भारत का प्रतिशत 24.44, चीन का 22.30 और प० यूरोप का 22.46 था, वह 1870 ईस्वी मे भारत का प्रतिशत 12.25, चीन का 17.23 और प० यूरोप का 33.61 था.
यह आंकड़े सत्यापित करते है, कि बादशाह औरंगजेब का शासन काल “भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वर्ण काल” था। भारत सोने की चिड़िया पहले भी था और आज भी है, क्योकि सोना और सम्पत्ति सर्वाधिक राजा और सामंत वर्ग के पास होती थी, उसके बाद व्यापारी वर्ग फिर मंदिरो के पास होती थी।
आज भी अंबानी-अडानी जैसे धन-कुबेरो के पास अकूत संपत्ति है, अकेले पदनाभन मंदिर के पास पूरे केरल सरकार से ज्यादा सोना है। दक्षिण भारत के 6 राज्यो के पास जितनी संपत्ति है, उससे ज्यादा मूल्य का सोना तमिलनाडु के मंदिरो के पास है।
लोगो की आमदनी बढ़ गई है, लेकिन महंगाई उससे कई गुना ज्यादा बड़ी है,
70 वर्ष पहले एक सरकारी कर्मचारी अपने परिवार के 10 लोगो को बड़ी आसानी से पाल लेता था, आज उसी पद पर आसीन कर्मचारी को चार आदमियो का खर्चा उठाना भारी पड़ता है, भारतीय पहले भी गरीब थे और आज भी गरीब है.
मुसलमानो के भारत मे आने से पहले अधिकतर भारतीय लोगो को दो वक्त का भरपूर भोजन भी नही मिलता था, शरीर छुपाने के लिये नाम मात्र कपड़े होते थे,
नंगे पैर चलते थे, पत्तो और मिट्टी के बर्तनो मे खाना खाते थे, शौचालय का शब्द भी नही सुना था।
ब्राह्मण तो भीख मांग कर खाते थे, तो फिर इनको व्यापार, वाणिज्य और वित्त के बारे मे बिना अनुभव के कैसे व्यवहारिक जानकारी होगी? सोचना भी मूर्खता है।
अपनी बेटियो को गर्भ मे ही हत्या कर देने वाले, विधवा बहन-बेटी को घर से बाहर निकाल कर मथुरा-वृंदावन मे भीख मंगवाने वाले और बूढ़ी मां को वद्वा आश्रम मे पहुंचाने वाले ब्राह्मणवादी मुसलमानो को तीन तलाक और बुरखे की आड़ मे महिला विरोधी कहकर बड़ा खुश होते है।
जिन कामुक लोगो ने महिलाओ को स्तन तक ढकने नही दिये और उनसे स्तन कर वसूला, अशिक्षित भारतीयो की बेटियो से देवदासी प्रथा के नाम पर वेश्यावृत्ति करवाई, वह नैतिकता पर मुसलमानो को उपदेश देते है, जबकि खुद यह लोग अपनी बहुओ को दहेज के लिये जिंदा जला देते है।
पर्दा और सती प्रथा का दोष मुसलमानो पर मढ़ने वाले फासीवादियो को यह पता नही है कि मुसलमानो के जन्म से सैकड़ो वर्ष पहले पारसियो ने पर्दा प्रथा शुरू की थी, सती प्रथा तो वैदिक ग्रंथो मे मिलती है, क्या सत्यवान और सावित्री बाबर के शासनकाल मे थे? राजपूत राजा दूसरे हिंदू राजा को हराने के बाद उसकी पत्नियो को उठाकर ले जाते थे.
पृथ्वीराज चौहान ने अपने नाना की संपत्ति को लेकर मौसेरे भाई जयचंद से लड़ाई करी और फिर उसकी बेटी अर्थात रिश्ते मे अपनी भतीजी को उठाकर ले गया और उससे शादी कर ली, पीड़ित लज्जित होकर एक बाप ने बदला लेने के लिए पृथ्वीराज चौहान की सुपारी मोहम्मद गोरी को दी थी।
कामुकता का इतिहास ब्रह्मा के समय से ही शुरू हो गया था, कामदेव के बाण के प्रभाव से ब्रह्मा अपनी बेटी से बलात्कार करने का प्रयास लगे थे, अगर शंकर उनका पांचवां सर काटकर होश मे नही लाते, तो वह अपनी पुत्री से बलात्कार कर देते।
चंद्र देव ने छल से बृहस्पति देव को मूर्ख बनाकर घर से बाहर भेजा और उनकी सोती हुई पत्नी से संभोग किया,इस अवैध संबंध से बुध देव का जन्म हुआ, यह सूची बहुत लंबी है, लेकिन तात्पर्य यह है, शीशे के घर वालो को दूसरो के ऊपर पत्थर नही फेकने चाहिये!
मुसलमानो और ईसाइयो ने वैदिक ग्रंथो को बदल दिया है!”, ब्राह्मणवादी बड़ी कुटिलता से यह बताकर सरस्वती पुराण और भविष्य पुराण जैसे वैदिक ग्रंथो को अस्वीकार कर देते है, किंतु जरूरत पड़ने पर बड़ी धूर्तता से इन ग्रंथो को सत्यापित-प्रमाणित करने के लिए किसी भी सीमा तक चले जाते है, भले ही इसके लिए हिंसा और आतंकवाद का सहारा क्यो ना लेना पड़े, ब्राह्मणवादी कुटिलता का गुणसूत्र है।
मे भारत बलात्कार के मामलो मे सबसे ऊपर है,फिर भी इन फासीवादियो और मोदी सरकार को लज्जा नही आती है.
कन्या भ्रूण हत्या करते-करते अब तो बेशर्मी और लालच की हद पार हो गई है, मंत्री चाहते है, कि गाय से सिर्फ बछिया पैदा की जाये ताकि अधिक से अधिक दूध का उत्पादन किया जा सके।
1956 मे पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) मे मुसलमानो की आबादी 97.1% थी, जो विकीपीडिया के अनुसार अब घटकर 96.4% हो गई है, जबकि फासीवादी भारत मे दुष्प्रचार रहे है, कि पाकिस्तान मे हिंदूओ की आबादी घट गई है, इसी को “सफेद झूठ” कहते है, जिसके विशेषज्ञ ब्राह्मणवादी है।
हिंदुत्ववादी अपने फासीवादी षड्यंत्र के अंतर्गत बांग्लादेशी हिंदुओ को भारत मे लाकर बसाना चाहते है, जिसके कारण बांग्लादेश मे लगातार हिंदूओ का प्रतिशत घट रहा है, अगर भारत सरकार बांग्लादेशी हिंदूओ के भारत मे आने पर सख़्ती से प्रतिबंध लगा दे, तो दोबारा से बांग्लादेश मे हिंदूओ का प्रतिशत सामान्य हो जाएगा।
अरब मे नये मंदिरो का निर्माण किया जा रहा है, पाकिस्तान मे प्राचीन मंदिरो का जीर्णोद्धार किया जा रहा है,जबकि भारत मे ऐतिहासिक मस्जिदो को निशाना बनाया जा रहा है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के अनुसार मुसलमानो मे प्रजनन दर 3.4 से घटकर 2.6 हुई, जिससे 23% की गिरावट पाई गई है, जबकि फासीवादी कह रहे है कि मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करके भारत के बहुसंख्यक बन जायेगे।
कन्या भ्रूण हत्या के कारण भारत मे हिंदू प्रजनन दर 2.6 से घटकर 2.1 हुई है,
अगर हत्यारो के लिये फांसी की सजा घोषित कर दी जाए, तब हिंदू प्रजनन दर मुसलमानो से दोगुनी हो जायेगी।
1971 की जनगणना मे 1951 की तुलना मे ईसाई आबादी मे 400% वृद्धि बताने से तहलका मच गया था, विषम परिस्थितियो के कारण 1951 की जनगणना त्रुटिपूर्ण थी, 1951 की जनगणना मे बौद्ध और ईसाई आदिवासियो का धर्म हिंदू लिख दिया गया था, फिर 1971 तक इस त्रुटि को पूरी तरीके से ठीक कर दिया गया, किंतु मुस्लिम आबादी का विवाद नही सुलझा, 1946 मे मुस्लिम लीग का मत था,
कि भारत मे मुसलमानो की आबादी 33% है जबकि हिंदू इसे 25% मानते थे।
1951 की जनगणना मे मुस्लिम आबादी को 9.9% बताया गया था, जबकि वास्तव मे यह 8% अधिक अर्थात 17.9% थी, आज भी यह आबादी 18% है,
जबकि 2011 की जनगणना मे 14.23% बताया गया है।
मशहूर अनुसंधान संस्था पीयू रिसर्च सेंटर के अनुसार 49 मुस्लिम देशो मे प्रजनन दर 4.3 (1990-95) से घटकर 2.9 (2010-15) रह गई है, ईरान की प्रजनन दर 7 (1960) से घटकर आज 1.68 हो गई है, इंडोनेशिया की प्रजनन दर 5.6 (1960) से घटकर 2.3 (1990) हो गई, शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के कारण सारे विश्व मे मुसलमानो की प्रजनन दर घट रही है, 8 मे से 7 इस्लामिक स्कूल परिवार नियोजन का समर्थन करते है।
विश्व मे पहला आतंकवादी आंदोलन “हागानाह” पर गर्व करने वाली नसलवादी जॉ़इनिस्ट इसराइली सरकार के समर्थन से उत्साहित होकर फासीवादी मोदी सरकार के मन्त्री कहते है,
“मुसलमान आतंकवाद फैलाते है”,
उल्फा, बोडो और नक्सली क्या मुसलमानो के आतंकवादी संगठन है?
बजरंग दल, हिंदू जागरण समिति और सनातन संस्था जैसे संगठनो को यह महात्मा बुद्ध, महावीर और महात्मा गांधी की अहिंसा विचारधारा का अनुसरण करने वाला संगठन मानते है, तो फिर आतंकवाद का मापदंड क्या है.
यूरोप के आयरलैंड मे आयरिश आर्मी, स्पेन मे बॉस्क और कई दूसरे पश्चिमी देशो मे ईसाइयो के आतंकवादी संगठन मौजूद है, आधा दर्जन देशो मे बौद्धो के आतंकवादी संगठन सक्रिय है, तो फिर सिर्फ मुसलमान आतंकवादियो की चर्चा क्यो? बचपन से आज तक हम यह ताने सुनते आये है, कि पाकिस्तान बनाकर मुसलमानो का हक दे दिया?
अगर जवाब दो, कि “मुसलमानो की आबादी 33% थी, लेकिन 22% जमीन दी और 13% वित्त दिया गया”, तो पाकिस्तान का एजेंट बना दिया जाता है!
पाकिस्तानी बुद्धिजीवियो का मत है,
कि “अंग्रेजो ने भारत और पाकिस्तान मे विलय के अतिरिक्त रियासतो को स्वतन्त्र रहने का तीसरा विकल्प भी दिया था, हैदराबाद-जूनागढ़ को बल से और कश्मीर-रामपुर आदि रियासतो को छल से विलय किया गया”, अगर कोई भारतीय मुसलमान 1947 मे रियासतो के भारत मे विलय से जुड़े किसी विषय की चर्चा करता है, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार को कुचलते हुये देशद्रोही बना दिया जाता है।
1946 मे 102 सदस्य वाली केंद्रीय विधानसभा मे कांग्रेस के 59, मुस्लिम लीग के 30, अकालीदल के 2, और निर्दलीय 3 और 8 यूरोपियन सदस्य थे, इसलिये “मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान चार दिशाओ मे चार अलग-अलग स्थानो पर मांगा था, जबकि मिला पूरब और पश्चिम मे अर्थात सिर्फ दो स्थानो पर”, अगर यह बात कहो तो हमे आतंकवादी बना दिया जाता है! आपको दिनभर ताने और गालियां दी जायेगी, लेकिन अगर जवाब दोगे तो आप देश के गद्दार माने जाओगे।
इस तरह झूठ का जवाब देने के लिये उठाई गई हर आवाज दबा दी जाती है और ज़ुबान काट ली जाती है। यही फासीवादियो की कार्यप्रणाली है। सूफी संतो द्वारा पैदा की गई गंगा-जमुनी संस्कृति फासीवाद के रास्ते मे सबसे बड़ा पत्थर है,
इसलिये फांसीवादियो ने इसको तोड़ने के लिये अपनी आखरी चाल चल दी है और सूफी संतो के विरुद्ध घृणा फैलाने वाली कहानियां गढ़ ली है, अब भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी झूठी कहानी तैयार की है, फिर उसे इतिहास का रूप देने का षडयंत्र किया जायेगा, कहानी के अनुसार सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती साहब की हत्या पृथ्वीराज चौहान की बेटी ने की थी।
इनको यह नही पता कि ख्वाजा साहब रिश्ते मे पृथ्वीराज चौहान के दामाद थे और उनका स्वर्गवास चौहान के देहांत के 50 वर्षो के बाद हुआ था, क्या कोई राजपूतानी अपने पति या जीजा की हत्या करती? कैसे 50 वर्ष से अधिक आयु की महिला कड़ी सुरक्षा व्यवस्था को तोड़कर उन तक पहुंच पाती? अगर सफल होती, तब बहुत बड़ा नरसंहार होता, फिर इसे कैसे छुपाया जा सकता था.
ख्वाजा साहब खानकाह मे रहते थे, वहां उनकी पत्नी और पुत्री के अतिरिक्त किसी महिला का प्रवेश वर्जित था, तब कैसे कोई महिला प्रवेश कर सकती थी? ख्वाजा साहब साउथ एशिया के सारे मुस्लिम सूफी संतो के राजा माने जाते है,
तब क्या भयंकर प्रतिक्रिया नही होती.
ब्राह्मणवादियो को झूठी कहानियां बनाने मे महारत है और अब तो फासीवादीयो के हौसले बुलंद है, ऐसे मे मुसलमानो को चौकन्ना रह कर हर षड्यंत्र का जवाब देना पड़ेगा, “हमे पता नही था! मुसलमानो की यह रणनीति उनके लिये घातक सिद्ध होगी।
संचार के इस युग मे अज्ञानता का बहाना नही बनाया जा सकता है,मुसलमान इन सब षडयंत्रो को भली-भांति जानते-समझते हुये भी अंजान बने रहते है अर्थात “ऐड़ा बनकर पेड़ा खाना चाहते है” अगर मुस्लिम विरोधी शक्तियां सफल हो रही है, तो इसके लिये जिम्मेदार खुद मुसलमान ही है क्योकि वह जवाबी कदम उठाने की मेहनत से बचते है और वास्तव मे प्रयास करना ही नही चाहते अर्थात “पकी पकाई खिचड़ी खाना चाहते है”.
इसलिए हमेशा फरिश्तो की मदद आने का इंतजार करते रहते है और कूटनीति दंगल मे पिट जाने के बाद उसे अल्लाह की रज़ा कहकर अपनी असफलता पर पर्दा डालने की कोशिश करते है।

मै टकराव के पक्ष मे नही हूं क्योकि इससे समाज मे जहर फैलता है और सह-अस्तित्व की भावना को ठेस पहुंचती है,
किंतु अगर आप झूठे प्रचार का जवाब नही देगे तो आप को ही दोषी मान लिया जायेगा।
“अश्वत्थामा मारा गया” की रणनीति अपनाने वाले मनुवादियो का सिद्धांत है,
कि “एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच हो जाता है”। पश्चिमी समाज मे फासीवादी शब्द बहुत बड़ी गाली (अपशब्द) माना जाता है, इससे बड़े-बड़े तानाशाहो के ताज और तख्त हिल जाते है.
यही कारण है, कि संघ की शाखा मे पानी पी पीकर महात्मा गांधी को कोसने वाले और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करने वाले वाले संघी सरकार के नेता विदेश जाकर महात्मा बुध और महात्मा गांधी का महिमामंडन करते नजर आते है.
दो लोकसभा सीटो से उन्नति करके दो बार सरकार बनाने वाली बीजेपी के सुपरहिट “जय श्रीराम” के नारे को पश्चिमी समाज मे लगाने के लिये मंत्रियो के गले से आवाज तक नही निकलती है और उल्टे बुद्धम शरणम गच्छामि के गीत गाये जाते है।
हैरानी की बात यह है, कि संस्कृति के यह रखवाले विदेश में 16 कलाओ मे पारंगत “श्रीकृष्ण” का नाम की तो भूलकर भी चर्चा नही करते है।
“एकता मे ही ताकत है”,
पंक्ति को याद रखे और
पहले खुद को संगठित करे और कानूनी दायरे मे रहकर सिविल सोसाइटी के माध्यम से इनके दुष्प्रचार का जवाब दे।
अगर आप इनको नजरअंदाज करने की भूल करेगे, तो यह ना सिर्फ हावी होते जायेगे, बल्कि उल्टे यह फासीवादी आपकी उदासीनता और मूर्खता का फायदा उठाकर ब्राह्मणवादी झूठतन्त्र से गांधीवादी लोकतंत्र को फासीवादी भीड़तंत्र मे बदलकर भारतीय संविधान की हत्या कर देंगे।
“राष्ट्र सर्वोपरि है” और संविधान राष्ट्र की आत्मा है, हर देशवासी का कर्तव्य है कि वह संविधान की रक्षा और देश की सुरक्षा करे.
इसलिए देश प्रेमीयो जागते रहो और जगाते रहो।
चिंतक, स्वतंत्र पत्रकार एवं समाजसेवी एज़ाज़ क़मर की डायरी से मुक्तक
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