ऊंची दुकान पर इस बार कड़वा पकवान
एक फ़िल्म जिसमें 4 लड़कियों ने काम किया है और 2 लड़कियों ने पैसा लगाया है, आप कम से कम लड़की होने के नाते उसे देखना ही चाहेंगे। जब “वीरे दी वेडिंग” का ट्रेलर आया था उम्मीदें धराशायी हो गयी थी। महसूस हुआ था कि क्या सोचा क्या पाया। कम से कम बॉलीवुड की ए ग्रेड अभिनेत्रियों से तो नही। मैं जानबूझ कर इस फ़िल्म को देखना चाहती थी कि ग़लत साबित होऊं। पर……………
फ़िल्म की कहानी कालिंदी(करीना), अवनी(सोनम), मीरा(शिखा) और साक्षी(स्वरा) के इर्द गिर्द होते हुए कालिंदी की शादी पर बुनी गयी है। चारों लड़कियाँ अच्छी अमीर फैमिली से ताल्लुक़ रखती हैं और ज़िन्दगी में लगभग हर वो काम किया है जो उन्हें पसंद है या उन्हें ठीक लगता है। लेकिन बात वहां आकर अटकती है कि हर किसी को मुकम्मल जहां नही मिलता, किसी को ज़मीन नही मिलती किसी को आसमां नही मिलता।
कालिंदी ने माँ-बाप की बिखरी हुई शादी और लड़ाई झगड़े देखे हैं इसलिए उसे कमिटमेंट से डर लगता है। वो साथ रह सकती है पर साथ बंध नही सकती।
अवनी प्यार पाने के लिए भूखी है, मगर हर बार ग़लत लड़के के चक्कर में फंस जाती है और नतीजा सिर्फ ये निकलता है कि उसे एक नया एक्स और एक नया सबक़ मिल जाता है।
मीरा ने मर्ज़ी से शादी की और अब एक बच्चे की माँ है, मगर परिवार ने अब तक उसके पति को एक्सेप्ट नही किया। वो बिल्कुल अपने परिवार की तरह की ढीठ और ज़िद्दी है।
साक्षी अमीर बाप की बिगड़ी औलाद है। उसे ज़्यादा सर दर्द लेने की आदत नही। जब जैसे जो मन हुआ किया…पापा हैं न। वो कहती नही है कभी पर पूरी तरह मुतमईन है कि ज़िन्दगी में जो हो जाये बाप और बाप का पैसा ज़िंदाबाद!
अब बात करते हैं फ़िल्म की कहानी की। फ़िल्म में कहानी है ही नही। सिर्फ किरदारों से परिचय कराने में ही पूरी फिल्म निपट जाती है। इतने टू द पॉइंट सेट, एक से एक कपड़े और कामभर का म्यूज़िक…. लेकिन एक छोटी सी दिक्कत है कि इन सब चीजों की तारीफ करने के लिए कहानी नही है। आप जैसे ही किसी किरदार से जुड़ना चाहते हैं किसी और ही घटना की बात होने लगती हैं। एक पॉइंट पर मैं कालिंदी के किरदार से जुड़ रही थी। मैं महसूस कर पा रही थी कि एक बिखरी हुई शादी देखने का खौफ़ क्या होता है। मैं ख़ुद आज से 3-4 साल पहले तक शादी के नाम से खौफ खाती थी, मगर उम्र और तजुर्बे के साथ चीज़ें बदली। लेकिन कालिंदी में वो बदलाव कब कैसे हुआ आपको पता ही नही चलेगा क्योंकि निर्देशक (शशांक घोष) ने दिखाया ही नही। ये सिर्फ कालिंदी ही नही हर किरदार की दिक्कत है। जैसे ही साक्षी की भावनाएं समझने लगते हैं कुछ और ही सियापा शुरू हो जाता है। काश निर्देशक ने कहानी नाम की चीज़ पर गौर कर लिया होता।
अभिनय की बात करें तो सोनम ने रुला दिया। वो जब-जब स्क्रीन पर थी लग रहा था डिज़्नी वर्ल्ड की पैम्पर्ड प्रिंसेस को हिंदी मूवी के डायलॉग्स दे दिए हैं। उनसे गुस्सा, दुःख यहां तक की ख़ुशी भी ज़ाहिर नही हो रही थी। ऊपर उन्होंने कुछ बेहद अजीब आई मेकअप कर रखा था। करीना कपूर ने इस तरह काम किया जैसे ये उनकी दूसरी-तीसरी फिल्म हो। पूरी फिल्म में वो सिर्फ कन्फ्यूज्ड और दुःखी के फ्रेम में नज़र आई हैं। कई सीन्स तो साफ कह रहे थे कि उनसे नही हो रहा।
यहां पर शिखा तलसानिया और स्वरा भास्कर को शाबाशी देने की ज़रूरत है। शिखा एक माँ और एक दोस्त के किरदार में बख़ूबी फिट नज़र आई। वो बखूबी जानती हैं अभिनय किस चिड़िया का नाम है। एक माँ के तौर पर अपने बच्चे के लिए उनकी फिक्र और मोहब्बत महसूस हुई। ज़रूरी नही कि हर मॉडर्न माँ बेपरवाह और बदतमीज़ हो। वहीं स्वरा तो दिल ले गयी! भले फ़िल्म करीना पर केंद्रित है, मगर स्वरा सारा ध्यान खींच ले गयी। इस फ़िल्म ने एक कलाकार के तौर पर उनसे उम्मीदें बढ़ा दी हैं। दूसरी तरफ करीना के बॉयफ्रेंड सुमित व्यास (ऋषभ) अपने किरदार के लिए परफेक्ट चॉइस थे। इतनी सारी लड़कियों के बीच भी वो साफ और सहज नज़र आये। कुछ ज़्यादा या कम नही। जितना मिला निभा ले गए। सहकलाकारों की बात करें तो आयेशा रज़ा, नीना गुप्ता और कविता घई जैसे कलाकारों के हिस्से चिढ़ाने वाले डायलॉग्स से ज़्यादा कुछ नही आया। जब मुख्य कलाकारों के पास ही अकाल था तो बाक़ी कास्ट से तो उम्मीद ही क्या।
फ़िल्म से एक ज़ाती शिकायत है कि 30 के पायदान पर खड़ी चारों अभिनेत्रियों से टीनएज उम्र की गलतियां करवाई गयी हैं। यहां तक की डायलॉग्स भी वैसे ही हैं। राइटिंग के नाम पर सिर्फ कॉमेडी डालने से अच्छी स्क्रिप्ट नही बन जाती। ऐसे तो कपिल शर्मा भी कर लेते हैं, जिसके लिए थिएटर तक नही जाना पड़ता। वहीं कालिंदी की माँ फर्स्ट हाफ में नैरेटर की भूमिका में दिखती हैं लेकिन सेकंड हाफ में बिना किसी सूचना के गायब हो जाती हैं। लड़कियों की बराबरी और बग़ावत सिर्फ उन्हीं कामों के ज़रिए दिखाई गयी है जो लड़के करते हैं। फर्स्ट हाफ में ही आपको समझ आ जाता है क्लाइमेक्स सीन्स क्या होंगे। अंत भला तो सब भला तो बॉलीवुड की रवायत रही है।
मेरी माने तो इस फ़िल्म को देखने के लिए थिएटर तक जाने की ग़लती न करें। मेट्रो के थकाऊ सफर में ये फ़िल्म देखेंगे तो ज़्यादा सुकून देगी। हाँ इतना ज़रूर है कि फ़िल्म उतनी अभद्र नही है जितनी ट्रेलर से महसूस हुई थी। पर ऐसी भी नही है कि पैसा और वक़्त ज़ाया किया जाए। किसी क़रीबी वीरे की वेडिंग में इन पैसों का शगुन दे आइयेगा।
(लेखक महविश रज़वी जो एक स्वतंत्र पत्रकार हैं )