इसमें दो राय नहीं कि पाकिस्तान खुद आ!तंक का एक बड़ा भुक्तभोगी रहा है। ऐसा कोई दिन नहीं गुज़रता जब वहां आ!तंकी हमलों में पांच-दस बेगुनाह लोग नहीं मारे जाते। पिछले एक साल में ही ऐसी घटनाओं में वहां हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए हैं। इसके बावज़ूद भारत-विरोध में अंधे हो चुके इस देश को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अब भी वहां आ!तंकी दहश!तगर्दी के समर्थन में खुलेआम सभाएं करते हैं, मार्च निकालते हैं और आ!तंकी कार्रवाईयों की धमकी देते हैं। यह वैसा देश है जहां सेना और सियासत न केवल आ!तंक का खुला समर्थन करती है, बल्कि तमाम आतं!कियों को प्रश्रय, प्रशिक्षण, आर्थिक मदद भी मुहैया कराती है।

यह वैसा देश है जहां सुविधा के अनुसार आतं!कियों का वर्गीकरण होता है – जो पाक का अहित करे वह बुरा आतं!की और जो पड़ोसी भारत, अफगानिस्तान में नरसंहार करे वह अच्छा आ!तंकी। यह वह लोकतंत्र है जहां नीति-निर्धारण में आम जनता की दूर-दूर तक कोई भूमिका नहीं। यहां की गृह नीति मुल्ले-मौलवी तय करते हैं, अर्थनीति चीन तथा अमेरिका और विदेश नीति सेना तय करती है। आश्चर्य यह है कि इस देश में आम लोगों के बीच से असहमति और प्रतिरोध की कभी कोई गंभीर आवाज़ नहीं उठी। यहां के लोग इस स्थिति के अभ्यस्त हो चुके है शायद। आज हालत यह है कि दुनिया के तमाम देश या तो पाक से नफरत करते हैं या अपने हितों के लिए उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। नफ़रत और कट्टरता की बुनियाद पर बने इस देश का यही हश्र होना था। चीन, रूस और अमेरिका की दिलचस्पी इस मरते देश की खाल तक नोच लेने भर में है।

आतंक की इस समस्या को अगर सुलझना है तो यह पाकिस्तान और आ!तंक के भुक्तभोगी उसके दो पड़ोसियों – भारत और अफगानिस्तान के आपसी सहयोग से ही सुलझेगा। मगर ऐसी कोई संभावना दूर तक नज़र नहीं आती। आज अपने ही अंतर्विरोधों और अर्थसंकट की वज़ह से यह देश नष्ट होने के कगार पर खड़ा है। वैसे हमें पाकिस्तान की इस स्थिति से बहुत खुश होने की ज़रुरत नहीं। पाकिस्तान अगर मरेगा तो उसके साथ थोड़ा-थोड़ा भारत भी ज़रूर मरेगा!
(यह लेख पूर्व आईपीएस ध्रुव गुप्त की फेसबुक वॉल से लिया गया है)