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अब चैनल जनता के सवाल नहीं 2019 में कौन जीतेगा ये पूछते हैं, इन्हें देखना बंद कर दीजिए: रवीश कुमार

Agha Khursheed Khan by Agha Khursheed Khan
जनवरी 6, 2019
in देश
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अब चैनल जनता के सवाल नहीं 2019 में कौन जीतेगा ये पूछते हैं, इन्हें देखना बंद कर दीजिए: रवीश कुमार

लेखक रवीश कुमार

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क्या 2019 में टीवी के दर्शकों को कोई काम नहीं है कहीं से घूमते-फिरते हुए आकर बैठे और बिठाए गए ये लोग गिनती में दो, चार, छह और कभी-कभी दस भी होते हैं। कई साल से आते-आते इनके चेहरे पर टीवी की ऊब दिखने लगी है। जो नया आता है वो भी इसी टाइप के टीवी को देखते-देखते ऊबा हुआ लगता है। बहस के दौरान कोई मेज़ पर पसर जाना चाहता है, कोई कुर्सी पर पीछे तक झुक कर पीठ सीधी कर लेना चाहता है। कुछ वक्ता तो बोलते वक़्त सोते नज़र आते हैं और कुछ को बोलते हुए सुनकर सोने का मन करने लगता है।

मीडिया

किसी के कान से स्काइप की तार निकल आती है तो कोई बोलता रह जाता है और आवाज़ चली जाती है। वक्ता चाहें जो भी बोलें, अपने हाव-भाव से बता देते हैं कि वे बकवास कर रहे हैं। अब डिबेट में आ गए हैं तो कुछ न कुछ बोलना तो है ही। एंकर भी फँसा लगता है। वो भी शो ख़त्म कर भाग जाने की प्लानिंग में लगा नज़र आता है। इन सब पर एक सवाल की बहुत भारी ज़िम्मेदारी आन पड़ी है। 2019 में क्या होगा? इतना मुश्किल और ज़रूरी सवाल था कि न्यूज़ चैनलों ने 2018 से ही हल करना शुरू कर दिया। काश इसकी गिनती होती कि पिछले एक साल में सभी चैनलों और हरेक चैनल का मिलाकर 2019 को लेकर कितने डिबेट और सर्वे हुए हैं। यह सवाल घिसा हुआ लगने लगा है। दर्शकों को यह बताया गया कि बड़ा भारी गंभीर काम हुआ है इसलिए वह इन सर्वे और विश्लेषण को गंभीरता से ले। चैनल और दर्शक मिलकर रोज़ यह अभ्यास करते हैं। दो चार सवालों तक सीमित रहने वाले इस डिबेट ने राजनीति का काम आसान किया है। किसी एक दुकान पर चाय हर बार अच्छी नहीं बनती है और हर दुकान पर चाय अच्छी नहीं मिलती है। फिर भी चाय बिकती है और दुकान भी चलती है। ईमानदारी से देखेंगे तो ज़्यादातर चाय पीने वालों का चाय के प्रति स्वाद बिगड़ चुका है। फिर भी वे चाय पीते हैं क्योंकि उन्हें पीने के बाद लगता है कि चाय पी है।

मीडिया

बहुत से दर्शक अच्छी चाय की तलाश में कई बार ठगे जाते हैं और घटिया चाय पी लेते हैं। अंत वे इस बात पर समझौता कर लेते हैं कि फ़लाँ चाय ठीक देता है। बुरा नहीं है। यही अवधारणा न्यूज़ चैनलों और दर्शकों के बीच काम करती है। यह मामला सिर्फ चाय और ख़बर पेश करने की विधि तक सीमित नहीं है। विधि के साथ-साथ चायपत्ती की सप्लाई भी बहुत घटिया हो रही है। चैनलों की चायपत्ती यानी कंटेंट ख़त्म हो चुका है। दर्शक फिर भी चाय पीता है। कम से कम हलक में कुछ तो गरम जा रहा है। उसी तरह दर्शकों को डिबेट की लत लग गई है कि कुछ तो मज़ा आ रहा है। इसके बाद भी चाय की दुकानें चलती रहती हैं और चैनलों पर डिबेट की दुकान भी चलती रहेगी। मगर यह सच्चाई है कि आइडिया के तौर पर चैनलों के डिबेट क्रायक्रम का अंत हो चुका है। डिबेट कार्यक्रमों ने सबसे पहले लोकतांत्रिक मुद्दों और सवालों को सीमित किया क्योंकि इनकी लागत कम होती है। 2019 में मोदी का जादू चलेगा इस पर सवाल पर न तो लागत है और न मेहनत। आपको झाँसा देने के लिए बीच-बीच में सर्वे ले आया जाता है जिससे लगे कि कुछ नया मिल गया है।

रवीश कुमार

दर्शको को लगता रहे कि वे नया देख रहे हैं इसलिए कभी किसी बयान को आधार बना लिया जाता है तो कभी किसी विवाद को। वैसे भी डिबेट तो अब ट्वीटर और फ़ेसबुक पर ही हो जाता है। पहली बार तर्क रखने और जवाब देने का अंदाज़ टीवी तक आते आते बासी हो जाता है। सोशल मीडिया ने डिबेट को मार दिया है। चैनलों का डिबेट अब थका हुआ लगता है। कॉस्ट कटिंग की वाजिब वजहें होती हैं लेकिन इसके असर में चैनल तो चैनल रहे नहीं, दर्शक भी दर्शक नहीं रहे। पहले चुनावी कवरेज़ रिपोर्टरों की फ़ौज से होता था अब सर्वे से होता है। रिपोर्टर अलग अलग सवाल खड़े करता था, सर्वे सारे सवालों को ख़त्म कर चुनावी चर्चा को दो चार सवालों तक सीमित करता है। आख़िर टीवी के डिबेट में आने वाले नियमित वक्ताओं में किसने रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर काम किया है? लगातार इन सवालों पर आलसी वक्ताओं को बिठाकर इनसे जुड़े प्रश्नों की प्रासंगिकता समाप्त की जा रही है। ऐसा कर चैनल सायास राजनीति दलों की बड़ी मदद करते हैं या उनके ऐसा करने से मदद हो जाती है। चैनलों ने दर्शकों को दर्शकहीनता की स्थिति में पहुँचा दिया है। दर्शकहीनता की स्थिति वो स्थिति है जिसमें आप टीवी के सामने दर्शक तो होते हैं मगर उस टीवी में कोई सूचना नहीं होती। सूचनाओं की विविधता नहीं होती। ठीक उसी तरह से जैसे पेरिस जाकर एफिल टावर देख लेने से न तो आप पूरे पेरिस को जान जाते हैं और न ही फ्रांस का समाज और इतिहास। ज़्यादातर पर्यटक कुछ चिन्हित जगहों पर सेल्फी लेकर चले आते हैं। उसी तरह डिबेट कार्यक्रम भी दर्शकों के लिए महज़ सेल्फी प्वाइंट बन कर रह गए हैं। दर्शक भी पर्यटक हो गया है। तीन दिन मे फ्रांस घूम लेना चाहता है या फिर वह फ्रांस की बाकी सच्चाई न देख सके इसके लिए पर्यटक स्थल तय कर दिए गए हैं। आप पेरिस पहुँच कर आर्क द त्रियांफ का दरवाज़ा देखते हैं। वहाँ आई भीड़ आपको यक़ीन दिलाती है कि जो आप देख रहे हैं वही सब देख रहे हैं। हमारा देखना सीमित और संकुचित हो चुका है। इसी को दर्शकहीनता कहता हूँ।

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प्रेस कांफ्रेंस

उन्हें लगता है कि वे न्यूज़ चैनल देखते हैं मगर न्यूज़ कहाँ हैं? रिपोर्टिंग कहाँ है? दर्शक होने का यही पैटर्न है। चैनल होने का भी यही पैटर्न है। आपको लगता है कि मीडिया का विस्तार हुआ है लेकिन रिपोर्टिंग का तो विस्तार नहीं हुआ है। न चैनलों में और न अख़बारों में। आप किसी मीडिया समूह की वेबसाइट को ग़ौर से देखिए। पता चल जाएगा कि उसमें होने के नाम पर कुछ तो है मगर वो कुछ भी नहीं है। जब रिपोर्टर का विस्तार नहीं हुआ तो जवाबदेही का विस्तार कैसे हो गया? क्या बग़ैर सूचना के जवाबदेही तय की जा सकती है? टी आर पी से विज्ञापन मिलता है तो क्या चोटी के चैनल अपनी कमाई रिपोर्टिंग के ढाँचे पर ख़र्च करते हैं? मूल रिपोर्टिंग और किसी बड़ी घटना के आस-पास की रिपोर्टिंग मे भी फ़र्क़ करना होगा।

(ये लेख वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की फेसबुक वॉल से लिया गया है)

 

Tags: #AAP#CongressBJPJDURavish Kumar
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